चकनाचूर होता महागठबंधन का सपना

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अरविंद जयतिलक

2019 के आमचुनाव से पहले कांग्रेस पार्टी की दिली इच्छा क्षेत्रीय क्षत्रपों को एकजुट कर राहुल गांधी के नेतृत्व में महागठबंधन को आकार देने की है। लेकिन हाल ही में राज्यसभा के उपसभापति चुनाव में उसके उम्मीदवार बीके हरिप्रसाद को मिली करारी शिकस्त और राजग उम्मीदवार सांसद हरिवंश की जीत ने उसकी रणनीतिक एकजुटता की हवा निकाल दी है। जिन विपक्षी दलों के भरोसे वह अपने उम्मीदवार बीके हरिप्रसाद को उपसभापति पद पर आसीन करा राहुल गांधी के नेतृत्व में महागठबंधन का तानाबाना बुनना चाहती थी, उन्हीं विपक्षी दलों में से कईयों ने राजग उम्मीदवार हरिवंश की जीत पर मुहर लगाकर राहुल गांधी की कुटनीतिक क्षमता, साख और विश्वसनीयता को कठघरे में खड़ा कर दिया है। विचार करें तो कांग्रेस को मिली इस करारी शिकस्त और राजग उम्मीदवार हरिवंश की जीत से दो बातें स्पष्ट रुप से परिलक्षित हुई हैं। एक यह कि क्षेत्रीय क्षत्रप कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में महागठबंधन को तैयार नहीं हैं और दूसरा यह कि राहुल गांधी व सोनिया गांधी में मोदी-शाह की जोड़ी जैसी कुटनीतिक दक्षता हासिल नहीं है। देखा गया कि जहां एक ओर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और जेडीयू अध्यक्ष एवं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने साझे उम्मीदवार की जीत के लिए क्षेत्रीय क्षत्रपों को साधने में सफल रहे वहीं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर आरोप लगा कि उन्होंने क्षेत्रीय क्षत्रपों से समर्थन तक नहीं मांगा। समझा जा सकता है कि जब वे क्षेत्रीय क्षत्रपों को गोलबंद नहीं कर सकते तो फिर देश की जनता को अपने पक्ष में गोलबंद कैसे करेंगे। बहरहाल हरिवंश की जीत ने जहां एक ओर भाजपा और जेडीयू के बीच तल्ख होते रिश्ते में मिठास घोल दी है वहीं कांग्रेस एवं उसके समर्थक विपक्षी दलों के मन में महागठबंधन को लेकर कई तरह के संशय पैदा कर दिए हैं। समझना होगा कि इन्हीं कूटनीतिक समझदारी के बूते भाजपा ने अपने साढ़े चार वर्षों के शासन में कांग्रेस को न केवल कई महत्वपूर्ण राज्यों से बेदखल किया है बल्कि देश के शीर्ष संवैधानिक पदों से भी उसे चलता कर दिया। दरअसल इसका श्रेय जहां भारतीय जनता पार्टी की सकारात्मक दूरदर्शिता को जाता है वहीं विफलता का सेहरा कांग्रेस की अहंकारपूर्ण नकारात्मक राजनीति के सिर बंधता है। लेकिन मजे की बात यह कि इतना कुछ गंवाने के बाद भी कांग्रेस मानने को तैयार नहीं कि उसकी सियासी जमीन सिकुड़ रही है और उसके कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की विश्वसनीयता संकट में है। गौर करें तो 2012 में  का उत्तर प्रदेश से जो हार का सिलसिला शुरु हुआ वह पंजाब, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र, गोवा, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, उत्तराखंड एवं उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और मणिपुर गंवाने के बाद भी थमने का आसार नहीं दिख रहा है। निःसंदेह कर्नाटक में कांग्रेस ने जेडीएस के साथ गलबहियां कर सरकार बना ली लेकिन जिस तरह मुख्यमंत्री कुमार स्वामी आए दिन मीडिया के सामने रुदन कर कहते सुने जा रहे हैं कि उन्हें जहर पीना पड़ रहा है उससे साफ है कि कांग्रेस नेतृत्व कुमार स्वामी को हांक रहा है। कांग्रेस चाहे जितना प्रफुल्लित हो लेकिन कर्नाटक की जनता के बीच अच्छा संदेश नहीं जा रहा है। यह स्थिति कांग्रेस और जेडीएस गठबंधन को सिर्फ कठघरे में ही खड़ा नहीं करता है बल्कि विपक्षी दलों को भी सतर्क करता है। दरअसल उन्हें आभास हो गया है कि राहुल गांधी को मोदी विरोधी अभियान का कमान थमाया गया तो उनकी हार निश्चित है। गौर करें तो विपक्षी दलों की यह आशंका निर्मूल नहीं है। स्वयं कांग्रेसजनों का राहुल गांधी के तथाकथित करिश्माई व्यक्तित्व पर से विश्वास डोलने लगा है तो फिर विपक्षी दल उन पर दांव क्यों लगाएं। ध्यान देना होगा कि 2004 में जब राहुल गांधी ने अपना संसदीय जीवन शुरु किया तो उन्हें संगठन मजबूत करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी। लेकिन वे उसमें बुरी तरह विफल रहे। जब उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया तो उम्मीद बढ़ी कि वे अपने करिश्माई नेतृत्व से कांग्रेस का राजनीतिक विस्तार करेंगे। लेकिन उनके नेतृत्व में कांग्रेस लगातार अपनी जमीन खोती जा रही है। मजे की बात यह कि जिन वजहों से कांग्रेस की हार हो रही है उससे वह सबक लेने के बजाए कांग्रेस उसे ही हथियार के तौर पर बार-बार आजमा रही है। उदाहरण के लिए नोटबंदी और बिहार में सत्ता परिवर्तन जैसे मसले पर वह चाहती तो सरकार के साथ खड़ा होकर कालेधन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध खुद को साबित कर सकती थी। लेकिन वह लालू प्रसाद यादव के साथ खड़ी होकर भ्रष्टाचारियों के सुर में सुर मिलाती दिखी और नोटबंदी के फैसले को अब तक राष्ट्रविरोधी करार दे रही है। मतलब साफ है कि कांग्रेस ने ठान लिया है कि वह मिट जाएगी पर सुधरने वाली नहीं है। आश्चर्य की बात यह है कि जिस कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के कंधे पर कांग्रेस को सत्ता में लाने की जिम्मेदारी दी गयी है वह लोकतांत्रिक जनता के बजाए भ्रष्टाचारियों के कंधे पर सवार होकर सत्ता-सिंहासन तक पहुंचना चाहते हैं। आश्चर्य यह भी है कि वह देश के गंभीर समस्याओं पर फोकस व विमर्श खड़ा करने के बजाए गैरजरुरी सवालों पर सरकार को घेरने की चेष्टा कर रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी कि उनका संयम जवाब देने लगा है और वे बार-बार प्रधानमंत्री को झूठा और फरेबी कह रहे हैं। यही नहीं वे स्वयं देश के लोगों को अपनी काबिलियत पर शक करने का मौका दे रहेे हैं। याद होगा 2010 में विकीलीक्स वेबसाइट ने रहस्योदघाटन किया था कि उन्होंने अमेरिकी राजदूत से कहा था कि देश को इस्लामिक आतंकवाद से ज्यादा खतरा हिंदू कट्टरवाद से है। इसी तरह 2013 में भी उन्होंने इंदौर की एक रैली में जुगाली की कि इंटेलिजेंस के एक अधिकारी ने उन्हें बताया की पाकिस्तान की खूफिया एजेंसी आइएसआइ मुज्जफरनगर दंगा पीड़ितों से संपर्क कर उन्हें आतंकवाद के लिए उकसा रही है। मजे की बात यह कि उनके इस बयान के तत्काल बाद ही उन्हीं की सरकार के गृहमंत्रालय ने ऐसे किसी भी रिपोर्ट से इंकार कर दिया। राहुल गांधी को शर्मिंदगी उठानी पड़ी। लेकिन वे उससे सबक नहीं लिए। अब वे आधारहीन तथ्यों के जरिए राफेल सौदे पर सवाल खड़ा कर कांग्रेस की मिट्टी पलीत कर रहे हैं। जबकि कांग्रेस के ही कई बड़े नेता भ्रष्टाचार व घपले-घोटाले के कारण जांच के घेरे में हैं। इस बीच कांग्रेस के बड़े नेता व पूर्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम एवं उनके परिवार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं। पी चिदंबरम को अदालत के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। प्रवर्तन निदेशालय ने उनके सुपुत्र कीर्ति चिदंबरम के खिलाफ मनी लांड्रिंग का केस दर्ज कर रखा है। आश्चर्य की बात यह कि इसके बावजूद भी कांग्रेस स्वयं को दूध का धुला बता रही है। सबसे खतरनाक बात यह है कि वह सरकार के लोकहितकारी कार्यों को संसद से पारित कराने में अडंगा डाल रही है। हाल ही में उसने तीन तलाक से जुड़े ‘मुस्लिम वूमैन (प्रोटेक्शन आॅफ राइट्स आॅन मैरिज) बिल 2017 को राज्यसभा में पेश नहीं होने दिया। जबकि सरकार ने विपक्ष का सहयोग हासिल करने के लिए केंद्रीय कैबिनेट ने विधेयक में तीन संशोधन किए थे। इसके बावजूद भी कांगे्रस ने इस विधेयक का विरोध कर पुनः साबित किया है कि वह मुस्लिम महिलाओं के हितों के विरुद्ध उन कठमुल्लों के साथ है जो महिलाओं को उनका हक देने को तैयार नहीं हैं। अन्यथा कोई कारण नहीं कि लोकसभा में एक साथ तीन तलाक के खिलाफ विधेयक पर मौन स्वीकृति देने के उपरांत वह राज्यसभा में रोड़े अंटकाए और किस्म-किस्म के कुतर्कों के जरिए विधेयक में खामियां ढंूढे। वह भी तब जब देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा पहले ही एक साथ तीन तलाक को असंवैधानिक और संविधान के अनुच्छेद 14 का उलंघन करार दिया जा चुका है। कांग्रेस के रवैए से इस निष्कर्ष पर पहुंचना गलत नहीं होगा कि शाहबानों से लेकर शायराबानों के तत्काल तीन तलाक पर उसका रवैया जस का तस है। उसमें देश व समाज को सहेजने, न्यायिक भावना का आदर करने और संसदीय लोकतंत्र को जीवंत बनाने की क्षमता नहीं है। उसके रवैए से साफ है कि वह दिग्भ्रमित है और उसके मन में संसदीय मर्यादा का सम्मान और जनता-जनार्दन के हितों की चिंता नहीं है।

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