बेटी अतिथि भर होती

–विनय कुमार विनायक
किसी बेटी से पूछो
कितना त्रासद है
अपनी जननी-जन्मभूमि के लिए
मेहमान हो जाना!

बेटी जो जन्म लेती बेटे के मानिंद
एक जोड़ी जिस्म के
एकीकृत रज-वीर्य से संपृक्त!

एकमेव गुणसूत्रों के योग से
एकाकार पारद सा द्विआत्माओं के
अद्वैत मिलन से एक समान!

कन्या दान के बाद ही
करार दिया जाता मेहमान
दहलीज लांघते ही हो जाता
पितृगृह स्मृतिशेष मायका!

भाई-बहन के दरम्यान
सिन्दूर की लाल रेखा
बन जाती लक्ष्मण रेखा!

बेटा बन जाता गृहपति
कलतक जो कहते नहीं थकती थी
‘मुझे चांद चाहिए पापा’
पापा जो फरमाइश के पूर्व ही
चांद के साथ तारे भी तोड़ लाते!

बेपनाह चांद-सितारे अंकवार में
सहेज लेती थी बेटी साधिकार!

आज पहली ही विदाई पर
दो मनभावन साड़ियां लेते
आशंकित होती बेटी
मन ही मन पढ़ लेती
गृहपत्नी के आंखों की उलाहना!

गृहपति का मालिकाना हक
वृद्ध पिता की विवशता
मां की दरकती कोख की भाषा!

सबसे अहं अपने पति की औकात
और गढ़ लेती खुद के लिए
बेटी पराई धन होने का मुहावरा!

छोटे भैया की शादी हो या मां की मौत
अब डाकिया भैया ही लाएगा
हल्दी छिड़का बुकपोस्ट
या कोना जला पोस्टकार्ड!

कभी डाकिया भाई मुस्करा कर कहेगा
एकमुश्त न्यौता-बिजय लितहार
और भैया-भाभी की हनीमून का खबर!

बिन बांचें खत की मजमून देखकर
कभी अनकहे पत्री थमाकर
उदास सा लौट जाएगा डाकिया
कि जला दी गई वह कोख!

बिना तुम्हारे कंधे की प्रतीक्षा के ही
कि तुम अतिथि भर थी
बेटी उस कोख के लिए!
—विनय कुमार विनायक

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