प्रमोद भार्गव
देश के जिन सांसदों पर कानून बनाने से लेकर देश और युवाओं को नई दिशा देने की जिम्मेबारी है, वही दायित्व से भटके नजर आ रहे हैं। हाल ही में भारतीय जनता पार्टी की संसदीय दल की बैठक में सदन में कई सांसद अनुपस्थित रहा। लोकतंत्र के लिए यह अच्छी बात नहीं है। जब सांसद ही सदन से गायब रहेंगे, तब सदन का कामकाज कैसे चलेगा ? इसी वजह से राज्यसभा में पिछडा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने वाला विधेयक पारित नहीं हो सका। क्योंकि भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सांसदों की संख्या सदन में काम थी, लिहाजा विपक्ष ने अपना संशोधन पारित करा लिया। इस कारण भाजपा की जमकर किरकिरी हुई। जिसे पार्टी ने गंभीरता से लेते हुए सदन में गैरहाजिर सांसदों की खबर लेते हुए हिदायत देते हुए पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा है कि जब भी सदन चले सांसदों को हर हाल में मौजूद रहना होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस बाबत सांसदों को नसीहत दे चुके है।
केंद्र सरकार राष्ट्रिय पिछडा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का 123 वें संविधान संशोधन विधेयक पारित कराना चाहती थी। जैसे कि अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग और अल्पसंख्यक आयोग हैं। भाजपा के पास जदयू के मिलाकर 89 सदस्य राज्यसभा में हैं। बाबजूद विधेयक पारित नहीं हुआ। जबकि विपक्ष के चार संशोधन मंजूर हो गए, सरकार इन संशोधनों के विपक्ष में कतई नहीं थी। राष्ट्रिय पिछडा वर्ग आयोग की स्थापना 1993 में हुई थी। लेकिन इस सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़ी जातियों को पिछडे़ वर्ग की सूची में शामिल करने या पहले से सूची में दर्ज जातियों में से किसी को बाहर करने की सिफारिश करने से ज्यादा कोई अधिकार नहीं हैं। गोया, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि राष्ट्रिय पिछड़ा वर्ग आयोग की भूमिका महज अनुषंसाओं तक सीमित न रहें। इस लिहाज से इस अतिरिक्त अधिकार देकर सशक्त बनाया जाना था। यह बदलाव इसे संवैधानिक दर्जा देकर ही संभव था। हालांकि यह विधेयक लोकसभा से पारित हो चुका है। विपक्ष ने जो चार संशोधन मंजूर करा लिए हैं, उसके तहत अब आयोग पांच सदस्यीय हो जाएगा। इनसे एक सीट महिला और एक सीट अल्पसंख्यक वर्ग के प्रतिनिधि के लिए आरक्षित हो जाएगी। जबकि मूल विधेयक में अध्यक्ष, उपाअध्यक्ष सहित तीन सदस्यीय आयोग का प्रस्ताव शामिल था। सरकार आयोग को पांच सदस्यीय नहीं बनाना चाहती थी। यदि भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सांसद सदन में हाजिर रहते तो सरकार को इस नौबत का सामना नहीं करना पड़ता। अब सरकार को विधेयक पारित कराने के लिए नए सिरे से कवायद करनी होगी।
अपने दल और सदन की गरिमा गिराने एवं जबावदेही से मुक्त रहने की यह कोई पहली घटना नहीं है। सांसदों ने घूस लेकर संसद में सवाल पूछने और सांसद निधि के वितरण में कमीशनखोरी के मामले पहले ही सामने आ चुके हैं। इस निधि को कायदे कानून तक पर रखकर विकास कार्यों को सीधे अपने कार्यकर्ताओं को देकर अनैतिकता का संदेश भी दे रहे हैं। यह स्थिति सांसद और विधायकों की राजनीतिक जमीन तो पुख्ता कर रही है, लेकिन नीति निर्माण और निगरानी जैसे जो सांसदों के मूल काम हैं, उनसे ध्यान हटा रही है। इसीलिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विधायक निधि खत्म करने की आदर्श पहल की थी। इस निधि के साथ जो खेल सांसद खेलते हैं कमोबेश वही खेल राज्यों में विधायक खेलते हैं। इसीलिए इन निधियों को असंवैधानिक माना जाता रहा है।
दरअसल यहां यह सवाल गौरतलब है कि संवैधानिक ढाचांगत व्यवस्था के अनुसार जब जिस काम के लिए प्रशासन, स्थानीय निकाय और पंचायतें हैं तो विकास निधि के वितरण की जवाबदारी विधायिका पर क्यों ? संविधान के अनुसार तो सांसद-विधायकों का मुख्य काम जनहितैशी नीतियों का निर्माण कर उनका क्षेत्र में ईमानदारी से अमल कराना है, जिससे राशि का दुरूपयोग न हो और विकास कार्यो की गुणवक्ता बनी रहे। इसके संवैधानिक औचित्य पर सवाल खड़े करते हुए योजना आयोग, प्रशासनिक सुधार आयोग और नियंत्रक एंव महालेखा परीक्षक के अलावा कई संविधानविदों तथा गैर सरकारी संगठनों ने भी इस व्यवथा को संविधान विरोधी माना है। यही नहीं इस निधि को राज्यों के स्थानीय और स्वायत्तशासी निकायों के कार्यो में हस्तक्षेप भी माना है। इस योजना के साथ यह दलील भी जुड़ी है कि यह सांसद और विधायकों को कत्र्तव्यों से विमुख भी करती है। क्योंकि वे अब नीति निर्माण और निगरानी जैसे दायित्वों का निर्वाह करने की बजाय खुद विकास कार्यो से प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष जुड़ गए हैं। नतीजतन विधायिका, नौकरशाह और ठेकेदारों का एक ऐसा गठजोड भी वजूद में गया है, जो इस अरबों रुपए की निधि कैसे निजी संपत्ति का हिस्सा बने इस फिराक में लगा, रहता है। इसी सोच का परिणाम था कि करीब दस साल पहले एक समाचार चैनल के स्ंिटग आॅपरेशन की सत्यता प्रमाणित होने के बाद तत्काल ग्यारह सांसदों की लोकसभा से सदस्यता भी रद्द कर दी गई थी। इस निधि के उपयोग के बाबत एक जनहित याचिका के मार्फत चूनौती भी दी गई थी। लेकिन 6 मई 2010 को तत्कालीन न्यायमूर्ति के जी बालकृष्णन की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीषों की संविधान पीठ ने इस मामले में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था। इस स्थिति पर कोई पुनर्विचार करने की बजाय तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार ने इस फैसले को योजना के पक्ष में माना और इसकी संवैधानिकता पर सवाल खडे करने वाली संस्थाओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया। बहरहाल तीन दशक से चली आ रही इस योजना के कोई बुनियादी लाभ तो हुए नहीं, योजना सांसद और विधायकों का चारित्रिक पतन करते हुए उनका नैतिक बल कमजोर करने में जरूर सहायक बनी हुई है।
हमारे देश ने आजादी के साथ ब्रिटेन से संसदीय प्रणाली तो ली है, किंतु उनके आदर्श मानक नहीं लिए। ब्रिटेन और अमेरिका में संसदीय परंपरा के अनुसार, वहां ऐसी संवैधानिक बाध्यता है कि सीनेटर बनने के बाद व्यक्ति को अपने व्यावसायिक हित छोड़ने पड़ते हैं। किंतु हमारे यहां इसके ठीक विपरीत होता है। व्यक्ति जब सांसद या विधायक बन जाता है तो वह बिना किसी ठोस व वैधानिक कारोबार किए साल दर साल बड़ा उद्योगपति बनता चला जाता है। यहीं कारण है कि हमारी लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभाओं में करोड़पति एवं अरबपति जनप्रतिनिधियों की संख्या आधी से ज्यादा पहुंच गइ्र्र है। इसीलिए ये प्रतिनिधि अपने बुनियादी दायित्व का ईमानदारी से निर्वहन करने की बजाए अपने निजी काम धंधों में लगे रहते हैं। इसीलिए संसद और विधानसभाओं में इनकी उपस्थिति लगातार घट रही है।
प्रमोद भार्गव