डीएनए कानूनः अपराधियों की करेगा खोज

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प्रमोद भार्गव
केंद्रीय मंत्री-मंडल ने डीएनए प्रोफाइलिंग बिल यानी, ‘मानव डीएनए सरंचना विधेयक‘ को मंजूरी दे दी है। यह विधेयक मानसून सत्र में पारित हो सकता है। डाटा बैंक में देश  के लोगों की डीएनए प्रोफाइल बनने के बाद अपराधिक मामलों की जांच के लिए इसे विदेशी  जांच एजेंसियों से भी साझा किया जा सकेगा। डीएनए जांच और डीएनए प्रोफाइलिंग को नियंत्रित करने वाले कानून में इस बात का प्रावधान किया गया है कि डीएनए नियमन बोर्ड की अनुमति के बाद ही अपराधिक मामलों की जांच घरेलू और विदेशी  एजेंसियां कर सकेंगी। इस बोर्ड में दस सदस्य रहेंगे और राष्टीय  स्तर के साथ-साथ क्षेत्रीय स्तर पर भी डाटा बैंक खोले जाएंगे। इन नामूनों के मार्फत अपराधियों, संदिग्ध, गुमशुदा, दुर्घटना में मृत एवं लापता व्यक्तियों, और लावारिस शवों की डीएनए जांच संभव हो जाएगी। हरिद्वार, प्रयाग और वाराणसी जैसी धर्मनगरियों में हर साल मोक्ष के लिए आए लाखों में से सैंकड़ों लोग गुमनामी के कफन में दफन हो जाते है। इन लावारिस शवों की पहचान में भी डीएनए बैंक मदद करेगा।
‘मानव संरचना डीएनए विधेयक-2015‘ के जरिए देश  के हरेक नागरिक का जीन आधारित कंप्यूटरीकृत डाटाबेस तैयार होगा और एक क्लिक पर मनुष्य

की आंतरिक जैविक जानकारियां कंप्युटर स्क्रीन पर होंगी। लिहाजा इस विधेयक को भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 में आम नागरिक के मूल अधिकारों में शामिल गोपनीयता के अधिकार का खुला उल्लंघन माना जा रहा था, किंतु अब बोर्ड के गठन के बाद ये आशंकाएं निर्मूल हो गई हैं। इससे यह आशंका भी उत्पन्न हुई थी कि तकनीक आधारित इस डाटाबेस का दुरुपयोग स्वास्थ्य एवं उपचार, बीमा और प्रौद्योगिक उत्पादों से जुड़ी कंपनियां बाला-बाला लीक न करने लग जाएं। व्यक्ति की पहचान से जुड़ेबहुउद्देषीय आधार कार्ड के साथ भी ये आशंका जुड़ी थीं, जो अब सही साबित हो रही हैं। फेसबुक और ट्विटर ने भी ‘कैंब्रिज एनालिटिका‘ को गोपनीयता से जुड़ा उपभोक्ताओं का निजी डाटा बेचने का काम किया है। इन सच्चाईयों के परिप्रेक्ष्य में यदि डीएनए के नमूने भी लीक कर दिए जाते हैं तो यह व्यक्ति की जिंदगी के साथ आत्मघाती कदम होगा। भारत में लालच औरभ्रष्टाचार के चलते ऐसी शंका हमेशा बनी रहती है। हालांकि इसे अस्तित्व में लाने के प्रमुख कारणों में अपराध पर नियंत्रण, शवों की पहचान और बीमारी का रामबाण इलाज है। फिर भी सवा अरब की आबादी और भिन्न-भिन्न नस्ल व जाति वाले देश में कोई निर्विवाद व शंकाओं से परे डाटाबेस तैयार हो जाए यह अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। क्योंकि अब तक हम न तो विवादों से परे मतदाता पहचान पत्र बना पाए और न ही नागरिक को विशिष्ट पहचान देने का दावा करने वाला आधार कार्ड ? लिहाजा देश के सभी लोगों की जीन आधाारित कुण्डली बना लेना भी एक दुश्कर व असंभव कार्य है ?

ह्यूमन डीएनए प्रोफाइलिंग बिल 2015 लाने के पक्ष में तर्क दिए जा रहे हैं कि डीएनए विश्लेषण से अपराध नियंत्रित होंगे। खोए, चुराए और अवैध संबंधों से पैदा संतान के माता-पिता का पता चल जाएगा। लावारिस लाषों की पहचान होगी। इस बाबत देशव्यापी चर्चा में रहे नारायण दत्त तिवारी और उनके जैविक पुत्र रोहित  शेखर तथा उत्तर प्रदेश  सरकार के सजायाफ्ता पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी व कवयित्रि मधुमिता  शुक्ला के उदाहरण दिए जा सकते हैं। रोहित, तिवारी और उज्जवला शर्मा के नाजायज संबंधों का परिणाम था। तिवारी पूर्व से ही विवाहित थे,इसलिए रोहित को पुत्र के रूप में नहीं स्वीकार रहे थे। किंतु जब रोहित ने खुद को तिवारी एवं उज्जवला की जैविक संतान होने की चुनौती सर्वोच्च न्यायालय में दी और डीएनए जांच का दबाव बनाया, तो तिवारी ने हथियार डाल दिए। रोहित ने यह लड़ाई अपना सम्मान हासिल करने की दृष्टि से लड़ी थी, इसलिए पवित्र और वैद्य हक के लिए थी। इसी तरह अमरमणि नहीं स्वीकार रहे थे कि मधुमिता से उनके नजायाज संबंध थे। किंतु सीबीआई ने मृतक मधुमिता के गर्भ में पल रहे शिशु-भू्रण और अमरमणि का डीएनए टेस्ट कराया तो मजबूत जैविक साक्ष्य मिल गए। जिससे अमरमणि व उनकी पत्नी हत्या के प्रमुख दोषी साबित हुए व आजीवन कारावास की सजा पाई। बहरहाल कानून बनाने से पहले ही अदालतें डीएनए जांच रिर्पोट के आधार पर फैसले दे रही हैं। लावारिस व पहचान छिपाने के नजरिए से कुरूपता में बदल दी गईं लाशों  की पहचान भी इस टेस्ट से संभव है।
जीन संबंधी परिणामों को सबसे अहम् चिकित्सा के क्षेत्र में माना जा रहा है। क्योंकि अभी तक यह शत-प्रतिशत तय नहीं हो सका है कि दवाएं किस तहर बीमारी का प्रतिरोध कर उपचार करती हैं। जाहिर है,अभी ज्यादातर दवाएं अनुमान के आधार पर रोगी को दी जाती हैं। जीन के सूक्ष्म परीक्षण से बीमारी की सार्थक दवा देने की उम्मीद बढ़ जाएगी। लिहाजा इससे चिकित्सा और जीव-विज्ञान के अनेक राज तो खुलेंगे ही, दवा उद्योग भी फले-फूलेगा। इसीलिए मानव-जीनोम से मिल रही सूचनाओं का दोहन करने के लिए दुनिया भर की दवा, बीमा और जीन-बैंक उपकरण निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनियां अरबों का न केवल निवेश कर रही हैं, बल्कि राज्य सत्ताओं पर जीन-बैंक बनाने का पर्याप्त दबाव भी बना रही हैं। आशंकाएं तो यहां तक हैं कि यही कंपनियां सामाजिक समस्याओं से जुड़े बहाने ढूंढकर अदालत में एनजीओ से याचिकाएं दाखिल कराती हैं।
हालांकि जीन की किस्मों का पता लगाकर मलेरिया, कैंसर, रक्तचाप, मधुमेह और दिल की बीमारियों से कहीं ज्यादा कारगर ढंग से इलाज किया जा सकेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन इस हेतु केवल बीमार व्यक्ति अपना डाटाबेस तैयार कराए, हरेक व्यक्ति का जीन डाटा इकट्ठा करने का क्या औचित्य है ? क्योंकि इसके नकारात्मक परिणाम भी देखने में आ सकते हैं। चुनांचे, यदि व्यक्ति की जीन-कुडंली से यह पता चल जाए कि व्यक्ति को भविष्य में फलां बीमारी हो सकती है,तो उसके विवाह में मुश्किल आएगी ? बीमा कंपनियां बीमा नहीं करेंगी और यदि व्यक्ति, एड्स से ग्रसित है तो रोग के उभरने से पहले ही उसका समाज से बहिष्कार होना तय है। गंभीर बीमारी की शंका वाले व्यक्ति को खासकर निजी कंपनियां नौकरी देने से भी वंचित कर देंगी। जाहिर है, निजता का यह उल्लंघन भविष्य में मानवाधिकारों के हनन का प्रमुख सबब बन सकता है ?
मानव डीएनए सरंचना विधेयक अस्तित्व में आ जाता है तो इसके क्रियान्वयन के लिए बड़ा ढांचागत निवेष भी करना होगा। डीएनए नमूने लेने, फिर परीक्षण करने और फिर डेटा संधारण के लिए देश  भर में प्रयोगशालाएं बनानी होंगी। प्रयोगशालाओं से तैयार डेटा आंकड़ों को राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर सुरक्षित रखने के लिए डीएनए डाटा-बैंक बनाने होंगे। जीनोम-कुण्डली बनाने के लिए ऐसे सुपर कंप्युटरों की जरूरत होगी, जो आज के सबसे तेज गति से चलने वाले कंप्युटर से भी हजार गुना अधिक गति से चल सकें। बावजूद महारसायन डीएनए में चलायमान विषाणु की तुलनात्मक गणना मुश्किल है। हमारे यहां कंप्यूटराइजेशन होने के पष्चात  भी राजस्व-अभिलेख, बिसरा और रक्त संबंधी जांच-रिपोर्ट तथा आंकड़ों का रख-रखाव कतई विश्वसनीय व सुरक्षित नहीं है। भ्रष्टाचार के चलते जांच प्रतिवेदन व डेटा बदल दिए जाते हैं। मौसम विभाग की भविष्यवाणियां भी अकसर झूठी साबित होती हैं। ऐसी अवस्था में आनुवंशिक रहस्यों की गलत जानकारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सामाजिक समरसता से खिलवाड़ कर सकती है।

 

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