-डॉ. दीपक आचार्य-
आज विश्व पर्यावरण दिवस पर सभी स्थानों पर पर्यावरण के संरक्षण-संवर्धन की धूम है। कार्यक्रमों के आयोजन से लेकर भाषणों तक में पर्यावरण ही पर्यावरण के लिए चिन्ता जाहिर की जा रही है।
खूब सारे लोग बरसों से पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन की रट लगाए हुए हैं, आतिथ्य पाकर सम्मान, अभिनंदन और पुरस्कारों का सुख पा रहे हैं और पर्यावरण के नाम पर भाषण झाड़ने मेें इतनी महारत पा चुके हैं कि सभी स्थानों पर पर्यावरणविद् के रूप में मशहूर हुए जा रहे हैं।
पर्यावरण को लेकर इतनी अधिक चिन्ता पिछले कुछ बरस से लगातार जारी है, इसके बावजूद पर्यावरण अभी उतना पुष्ट नहीं हो पाया है जितना होना चाहिए। अन्यथा इतने सालों से लोक जागरण के साथ ढेरों आयोजनों का प्रभाव इतना तो होना ही चाहिए था कि अब हम पर्यावरण विषयक कार्यक्रमों में पेड़ लगाने जंगल बचाने का आह्वान करने के साथ ही अपनी पीठ भी थपथपाने की स्थिति में होते। लेकिन न ऎसा हो पाया, न हम कर पाए।
इसका मूल कारण यही है कि हम हर मुद्दे को सिर्फ वाणी का विलास, समारोहों की तड़क-भड़क और दो-दिन की आयु वाली पब्लिसिटी से अधिक नहीं लिया करते। पर्यावरण की बातें करने से ज्यादा जरूरी है पर्यावरण चेतना और पर्यावरण संरक्षण के विभिन्न उपायों को जमीनी हकीकत देने की।
यह सिर्फ वन विभाग का अपना कार्यक्रम नहीं है बल्कि प्राणी मात्र और हर क्षेत्र से जुड़ा वह अनिवार्य कारक है जिसके बगैर हम जगत और जीवन की कोई कल्पना नहीं कर सकते। पर्यावरण के नाम पर भाषण और ऊपरी तौर पर चिन्ता व्यक्त करने से कहीं अधिक जरूरी है जंगल बचाने और पेड़-पौधे लगाते हुए उन सभी वन क्षेत्रों को आबाद रखने और विकसित करने में अपनी आत्मीय सहभागिता निभाएं, जो परंपरागत वन क्षेत्रों में गिने जाते रहे हैं।
वर्तमान पीढ़ी अपने बूते भले कुछ कर पाने की स्थिति में न भी हो तब भी यदि यही संकल्प ले लें कि परंपरागत वन क्षेत्रों को आबाद रखते हुए इनके संरक्षण के प्रति ही सिर्फ गंभीरता और ईमानदारी के साथ अपने फर्ज निभा लें तब भी पर्यावरण संरक्षण में अपना बहुत कुछ योगदान दे सकते हैं।
इस मामले में हम पूर्वजों से अपनी तुलना करें। पूर्वजों ने इतने अधिक पेड़ लगाए, जंगलों का संरक्षण किया, वन्य जीवों को पाला-पोसा और अभयारण्य की तरह सुरक्षा प्रदान की। इसी का नतीजा है कि आज हम वन देख पा रहे हैं। और हम हैं कि इनकी सुरक्षा तक भी नहीं कर पा रहे हैं।
हममें से खूब सारे लोग ऎसे हैं जिन्होंने अपने जीवन में एक पेड़ तक नहीं लगाया होगा। अतिथियों के रूप में हमारे सामने बरसों से पौधे रोप रहे लोगों के बारे में भी जानकारी जुटायी जाए तो शायद ही कुछ लोग ऎसे निकलेंगे जिन्होंने समारोहों और पब्लिसिटी का इंतजार किए बिना चुपचाप पेड़ लगाए हों।
पर्यावरण दिवस पर कितना ही अच्छा हो कि हम सभी जंगलों तथा वन्य जीवों को बचाने और अधिक से अधिक पेड़ लगाने के साथ ही पर्यावरण के लिए घातक प्लास्टिक की वस्तुआें और विजातीय पदार्थों से दूर रहने का संकल्प लें।
देश भर में विभिन्न स्थानों पर होने वाले पर्यावरण दिवस समारोहों और विभिन्न कार्यक्रमों में भागीदारी निभाने वाले लोग ही यदि साल भर में एक-एक पेड़ लगाने का संकल्प ग्रहण कर लें तो देश के पर्यावरण की आबोहवा ही बदल जाए। इन समारोहों में पर्यावरण विस्तार के लिए समर्पित लोगों को पुरस्कार एवं सम्मान प्रदान करने के साथ ही पर्यावरण संरक्षण एवं विस्तार मेंं सामने आने वाली बाधाओं के समूल निवारण पर भी चर्चा की जानी चाहिए।
पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन की यह समस्त गतिविधियाँ भाषणों और सैद्धान्तिक कार्यक्रमों की बजाय पूरी तरह व्यवहारिक होनी चाहिएं और इस दिन जो कुछ हो वह प्रायोगिक तौर पर हो। अतिथियों और संभागियों के साथ ही जो भी लोग आएं वे सारे के सारे अपने स्तर पर पेड़ लगाएं, कम से कम एक पेड़ को साल भर के लिए गोद लें और उसकी परवरिश करें। इतने भर से हम पर्यावरण की उतनी अधिक और उल्लेखनीय सेवा कर पाएंगे जितनी कि पिछले इतने बरसों में नहीं कर पाए।
पर्यावरण को हमारे जीवन की व्यक्तिगत जिम्मेदारी और सामाजिक फर्ज के रूप में लेने पर ही हम इस बारे में कोई ठोस उपलब्धियां हासिल कर पा सकते हैं। इस काम को हमारे जीवन के विभिन्न संस्कारों की तरह लिए जाने की आवश्यकता है ताकि साल भर में एक दिन हमें इस बारे में चिन्ता नहीं करनी पड़े और पर्यावरण के प्रति हमारे दायित्वों की पूर्ति वर्ष भर होती रहे।
पर्यावरण दिवस पर उन पूर्वजों का पावन स्मरण किया जाना जरूरी है कि जिनकी बदौलत हम पर्यावरण को अनुभव कर पा रहे हैं। इन्हीं से प्रेरणा पाकर हम सभी को भी ऎसा कुछ करना चाहिए कि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भी गर्व के साथ हमारा स्मरण कर सकें। आईये पर्यावरण के प्रति अपने दायित्वों को समझें और प्रकृति का ऋण चुकाने में उदारतापूर्वक आगे आएं।