एक समय था जब माता पिता के बाद र्इष्वर का दर्जा यदि किसी को दिया जाता था तो वे शिक्षक थे ! कहा भी जाता था कि बच्चों की घर के बाद पहली पाठशाला विधालय ही होता है। वहीं रहकर विधार्थी बड़ों के प्रति मान-सम्मान, अच्छे संस्कार ,सहमित्रों के प्रति प्रेम-करूणा, दूसरों के प्रति दया धर्म, क्षमा, बाहरी दुनिया की जानकारी सब कुछ ग्रहण करता है। ऐसे ही नहीं स्कूलों को हम ‘शिक्षा का मंदिर कहते थे ! पहले शिक्षक विधार्थियों के लिए ज्ञान का भंडार ,अनुशासन-सदविचारों पर चलने वाले होते थे। ऐसा नहीं है कि अब विधार्थी या शिक्षक बदल गए हैं ! आज भी वही शिक्षक
और वही विधार्थी हैं,लेकिन हर चीज की तरह इनके भी मायने बदल गए हैं।
बड़े अरसे बाद गांव गर्इ तो सोचा कि स्कूल जाकर अपने अध्यापकों से मिल आऊं। बचपन की खटटी-मीठी यादें आंखों में तैर गर्इ । वही शाला का बड़ा भवन ,लंबा खेल का मैदान ,शिक्षकों की पर्याप्त संख्या , हम पर उनका भरपूर स्नेह ,उनके लिए हमारी नज़रों में उनके लिए मान-सम्मान । जब हम पढ़ते थे तो सिर्फ पढ़ार्इ और अन्य गतिविधियों के लिए सरकारी स्कूल ही काफी था। वहां की पढ़ार्इ लिखार्इ भी अच्छी और साथ में सख़्त अनुशासन ! शिक्षक भी एक आदर्श की तरह होते…. हमने कभी उंची आवाज़ में या नज़र मिला कर अपने गुरूओं को जबाब नहीं दिए। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि हम देर से शाला पहुंचे हो! (हमने कभी शाला को स्कूल नहीं कहा, क्योंकि तब शाला के अर्थ ही दूसरे होते थे) ऐसी गलती होने पर अनुशासन का ऐसा सबक दिया जाता था कि फिर ऐसी गलती हम दुबारा न दोहरा सकें। किसी ने ठीक ही कहा है वक़्त बदलने के साथ हर चीज बदलती है। अब शिक्षकों को मास्टर की उपाधि दी जाती है! मास्टर भी वह जो सिर्फ तनख्वाह के लिए पढ़ाने आते हैं या जिन्हें पढ़ाने के लिए पैसे मिलते हैं। ज़्यादातर विधार्थियों और शिक्षकों में पढ़़ार्इ के प्रति कम लगन और अनुशासन की कमी यह एक समानता दोनों में पार्इ जाती है।
हमने अपनी पढ़़ार्इ सरकारी स्कूलों में ही पूरी की । उस वक्त प्रार्इवेट स्कूलों का इतना क्रेज नहीं था। लेकिन सरकारी स्कूलों की कर्इ कमियों का फायदा उठाकर प्रार्इवेट स्कूल अपने पैर पसार रहा है। आज आर्थिक रूप से थोड़े भी संपन्न अभिभावक अपने बच्चों को प्रार्इवेट स्कूल में ही पहुचाना पसंद करते हैंं । सरकारी स्कूलों में पढ़ार्इ सिर्फ नाम की ही रह गर्इ है।
स्कूल पहुची तो जो वहां की हालत देखी वह खासा हैरान करने वाली थी । बड़ी शाला के नाम पर वहां सिर्फ दो ही कमरे उपलब्ध थे। जहां कभी पक्की इमारत थी, वही शाला अब काफी क्षतिग्रस्त थी। उसी क्षतिग्रस्त भवन के एक कमरे में आंगनवाड़ी और एक कमरे में बि्रज कोर्स चलाया जा रहा है। आंगनवाड़ी में छोटे बच्चों की संख्या काफी थी और वहां टीचिंग मटेरियल भी काफी था।
लेकिन उसका कोर्इ उपयोग नहीं हो रहा था लेकिन खाने के सामान का भरपूर उपयोग था। बि्रजकोर्र्स में भी 14-35 बर्ष के वो ‘छात्र पढ़ रहे थे जो आर्थिक तंगी या अन्य किसी कारण से अब तक पढ़़ नहीं पाये , अब पढ़़ना सीख रहे थे। बि्रजकोर्स के अध्यापक काफी रूचि से उन्हें पढ़़ा रह थे। उनके अनुसार पढ़़ार्इ की कोर्इ उम्र नहीं होती ।
उन्हीं से नए भवन के बारे में पूछकर जब विधालय पहुंची तो दंग रह गर्इं वहां अद्र्धनिर्मित कुल दो ही कमरे थे जिनका पलस्तर भी नहीं हुआ था। फर्श उखड़ा हुआ,शौचालय एकदम गंदा ,किचन शेड ,चाहरदीवारी ,खेल का मैदान सब नदारद । शिक्षक भी उस दिन ‘भगवान की तरह आए। और मध्यांह भोजन को ‘भोज की तरह बच्चों में बांटा। बच्चे भी ‘गिद्ध की तरह भोज पर टूट पड़े। फिर जब भोज समाप्त हुआ तो पानी पीने के लिए अपने घर की तरफ भागे क्योंकि ,स्कूल का नल खराब था ,मानो कह रहा हो जब इन्हें मेरी कोर्इ परवाह नहीं तो मैं क्यों इन्हें अपने जल से शीतल करूं।
वैसे भी स्कूल में सिर्फ एस0टी0,एस0सी0 और ओ0बी0सी0 के ही बच्चें आते थे, क्योंकि ज़्यादातर सामान्य वर्ग के बच्चे गांव के आस-पास के प्रार्इवेट स्कूल में पढ़़ने के लिए जाते थे। बाकी अन्य वर्ग जो पढ़़ार्इ से ज़्यादा खाने के लिए सरकारी स्कूलों में आते हैं। इन वर्गों के बच्चों को ‘अ-आ भी ठीक तरह से नहीं आता है। इन सिथतियों को देख सोच में पड़ गर्इ कि सरकार स्कूलों तक बच्चों को लाने के लिए क्या क्या नहीं करती । यूनीफार्म,किताबें, छात्रवृतित, मध्यांह भोजन, सार्इकिलें आदि तक का खर्चा उठती है। लेकिन आज गांवो में शिक्षा के इस पिछड़ते स्तर के लिए कौन जिम्मेदार है? शिक्षा पद्धति, सरकार, शिक्षक या खुद हम ? यह सवाल मुह बायें मेरी तरफ देख रहा था। आज शिक्षकों ने अपना स्थान खुद खोया है। नैतिक मूल्यों का शिक्षकों में हास हो गया है। वह दिन दूर नहीं जब स्कूली शिक्षा गांवों में बिजली की तरह गुम हो जायेगी ,जो कभी -कभार अपने दर्शन देने गांव आऐ।