देवी साधना में त्रुटियॉ होती है अमंगलकारी

आत्‍माराम यादव पीव 
    नवरात्रि में नवदुर्गा के विभिन्न स्वरूपों को 9 दिनों के लिए हरेक नगर, गाँव, मोहल्ले, कसवे आदि हजारो स्थानों पर प्राणप्रतिष्ठित करने का उत्साह दिखाई देता है, उसे हम सृष्टि का संचालन करने वाली जगन्माता के प्रति अपनी भक्ति का स्वरूप ओर माता के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शन के साथ अभिवांछित विषयों की सिद्धि अर्थात भौतिक कल्याण की प्राप्ति के साथ जोड़ते है यह प्रसन्नता की बात है किन्तु वृहदस्तर पर समूचे देश के करोड़ों भक्तों की यह आराधना कही फलित होते नहीं दिखती । जगजननी माँ के जिस स्वरूप का जो मूल स्वरूप है जिसमे उनके द्वारा धारण किए जाने वाले शस्त्र, उनकी सवारी, सिंह, असुर, भैसा आदि के साथ उनके आभूषण, उनकी भुजाए, भुजाओं में जिस हाथ में जो शस्त्र हो,उसमें शस्त्र ओर जिसमें शंखपुष्प हो उसमें वही धारण कराने की चूक भी आराधक के लिए अमंगलकारी हो जाती है जो सामान्य चूक में हम विस्मृत करते है वह गंभीर चूक अहितकर होती है।

  प्रतिवर्ष आश्विन नवरात्रिपूजा में मॉ के सगुणस्वरूप को लाखों स्थानों पर देवी प्रतिमाओं को  स्‍थापित करने  का चलन देखा जा सकता हैं। थोड़ा मन में विचारिये कि देवी मॉ की प्रतिमा का वह रूप करूणा से परिपूर्ण होता है, मॉ तरूणी अवस्था में होती है, जैसे सूर्योदय की लालिमा शोभा पाती है, वैसे ही मॉ का सुन्दरतम श्रीविग्रह अद्वितीय होता है, जिनके मुखारविन्द से नजर नहीं हटती है। इनके सम्पूर्ण अंग परम मनोहर एवं श्रृंगारादि से युक्त होते है, जिंन्हें दुखी व्यक्ति भी देखें तो उसका मन प्रसन्नता से भर जाता हैं। आखिर मॉ के दर्शनों के बाद उनके दर्शन करने वालों को प्रसन्नता क्यों नहीं होगी, जबकि स्वयं जगदम्बा का मुखमण्डल प्रसन्नता से भरा देदीप्यमान रहता है। मॉ के स्वर्णमय मुकुट पर बाल चन्द्रमा तथा मयूरपंख शोभा  बढ़ा रहे होते है पृथ्वी, जल, तेज वायु और आकाश इन पन्चतत्वों तथा जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय एवं अतीत अवस्था में रहते हुये साधक, इनके हाथों में पाश, अकुंश, धनुष, त्रिशूल, खड़ग देकर उनकी अभयमुद्रा से प्रसन्न हो दाहिने कर से वरदान प्राकर स्वयं अभय हो जाता हैं।  

  हर साल हमारे सभी आराध्यों के साथ श्रीराम, श्रीकृष्ण, गणेश काली, दुर्गा भक्ति चरम पर होने के बाद भी हमारे कष्ट दूर होने की जगह बढ़ते जा रहे है, आखिर क्यों? कुछ तो कारण है जिन्हे सभी धर्माचार्यों को संज्ञान में लेना चाहिए, कही धर्म परंपरा के निर्वहन में इसी तरह की कोई चूक तो नहीं जो हमारे कष्टों के निवारण के बजाय हमें हर बार कष्ट ओर समस्या के बढ़ा रहे हो, हमारे पूर्वज राजाओं की इन बातों पर दृष्टि रही है ओर वे इसके समाधान के कारण तलाशकर अपनी प्रजा का हित संवर्धन में जुट जाते थे पर आज के दौर में सरकारें है वे बधिया बैल या सांड की तरह हो गई जो प्रजाहितों के विपरीत निजी तौर पर प्रजा को भारवाहक बनाकर न उनको काम देना चाहती है ओर न ही उनका घर बसाना चाहती है, जबकि उनकी धारणा खुद के दायरे में कुछेक को समेट कर उनकी जरूरतों को पूरा कर उन्हे अपने वर्तुल में मानसिक दिवालियापन बनाने की है। ऐसे में प्रजा राजा के बजाय भगवान भरोसे हो गई ओर भक्ति शक्ति में देवी-देवताओं की शरण में पहुँच गई किन्तु वहाँ भी वह अज्ञानतावश मझदार में है ओर उनका पुरुषार्थ सरकारों के प्रति अपने अधिकारों के लिए बगावत करने की बजाय देवी शक्ति से अपने मनोरथ पूरा कराना है जो आधे अधूरे ज्ञान- भक्ति से संभव होता नही दिखा ।

मत्स्य पुराण के दो सो अटठावनवे अध्याय में सूत जी आम गृहस्थों को गृहस्थाश्रम का पालन करने का निर्देश देते हुये उन्हें देर्वाचन, नामसंर्कीतन एवं शक्ति की आराधना में ज्ञानयोग की अपेक्षा कर्मयोग से सिद्धि की प्राप्ति का सरलतम मार्ग बताते है कि -भोग और मोक्ष देने वाले इस मार्ग में देवताओं की मूर्तियों की प्रतिष्ठा, मूर्तिपूजा, नामसंर्कीतन, देवयज्ञोत्सव कर्म विज्ञान का अनुसरण करना चाहिये। मूर्तियों के निर्माण में बनने वाली प्रतिमा किस धातु की हो, किस आकार,प्रकार की हो, कितने हाथ बनाये जाये, मूर्ति का सिर, मस्तक, नासिका, नेत्र, कन्धे, वक्षस्थल, आदि कैसे बनने चाहिये एवं उनके किस हाथ में किस शस्त्र को धारण कराना चाहिये, यह नियम से पालन कराना कल्याणकारी होता है। दूसरा पहलू प्रतिमा के मान एवं उन्मान का भी ध्यान रखने का है जिसमें उनके स्थापना हेतु बनने वाले मण्डप के अनुकूल, उत्तम, मध्यम, निम्न कोटि बनाने पर उससे मिलने वाले अच्छे-बुरे परिणामों से गृहस्थ का कल्याण -अकल्याण होने का संकेत देता है।

नीलसरस्वतीतंत्रम् के तृतीयः पटलः के अनुसार किसी भी शक्तिपूजा-पाठ, आराधना, यज्ञादि करते समय उपासक-साधक को स्नान, अर्ध्य, तिलक , मानसपूजा की पद्धति अनुसर गन्ध पुष्पादि अर्पण करने के लिये शास्त्रोक्त मुद्रा में अर्चन करने के निर्देश देते हुये अगुलियों में उपस्थित पृथ्वी तत्व, आकाश तत्व, वायु तत्व, अग्नि तत्व एवं जलतत्व के के अनुसार उनके उपयोग का महत्व कहा गया है कि- कनिष्ठा पृथिवीतत्वं तद्योगाद् गन्धयोजनम्। अंगगुष्ठो गगनं तत्वं तैनैव पुष्पयोजननम्।। तर्जनी वायुतत्वं स्याद् धूपं तैनैव योजयेत्।। तेजस्तत्वं मध्यमा स्याद् दीपं तेनैव योजयेत्।। अनामा जलतत्वं स्याद् तैनेव योजनयेद गुरूम। ततः स्तुत्वा वाग्भवस्च्य जपेदष्टोत्तरं शतम्।।16-18।। अर्थात कनिष्ठा अंगुलि में पृथ्वीतत्व है, इसके द्वारा देवीदेह में गंर्धार्पण करें। अंगुष्ठ (अंगूठा) आकाश तत्व है, इसके द्वारा मानसपूजा में पुष्पार्पण करें। तर्जनी वायु तत्व है, उससे मानसपूजा में धूप प्रदान करें, मध्यमा तेजस तत्व है, उससे दीपदान करें एवं अनामिका जलतत्व है उसके द्वारा मानसपूजन में गुरूरूपी परमशिव को योजित करें जिसे सामान्यतया हरेक व्यक्ति पूर्णतया विस्मृत कर मनोरथ सिद्धि की कामना में इन छोटी-छोटी त्रुटियों का ध्यान नहीं रख पाता है।मनोरथ पूरे कैसे हो?

 हमने मनोरथ पूरा करने के लिए देवी को अपने नियंत्रण में लाने का सरल मार्ग के रूप में 9 दिनों की नवरात्रि के व्रत पूजा भक्ति को अपना लिया है ओर जगह जगह देवी के विभिन्न स्वरूपों को प्राणप्रतिष्ठित कर उनकी आराधना शुरू कर दी। ब्रम्हवैवत्यपुराण के प्रकृति खण्ड में श्क्ति की आराध्य देविया की विधिपूर्वक आराधना एवं पूजाविधान का विस्तृत विवरण दिया गया जिसमें अर्ध, नेवेघ्य एवं पूजा के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले पात्रों- बर्तनों का उल्लेख करते हुये लिखा है कि वे सुवर्ण, रजत, ताम्र, काष्ठ, मूत्तिका, प्रस्तर, रत्न प्रभूति से निर्मित हो ओर उसमें मांगलिक तथा शुभ्रप्रद रेखाए अंकित कि गई है, जबकि हम इसके विपरीत स्टील के बर्तनों का प्रयोग देखते है जो हमारी आराधना में हमारी भक्ति की पुकार जगतमाता तक भेजने में सफल नही हो पाते। ऐसे ही मत्स्य पुराण में मातृचक्र में वर्णित माताओं के स्वरूपों में देवी के एक सौ ऑठ नाम का वर्णन करते हुये ब्रम्ह्चारिणी, शैलपुत्री, सिद्धिदात्री, चंद्रघंटा,महागौरी, कात्यायनी, कालरात्रि, कुष्मांडा एवं स्कन्दमाता सहित सर्वमंगला, चंडी ब्रम्हार्णी, माहेश्वरी, कौमारी,वैष्णवी,वाराही, इंद्राणी, योगेश्वरी, चामुंडा, शिवा, कालिका, दुर्गा, काली, ,छिन्नमस्तिका आदि अनेक विभिन्न दिव्य स्वरूपो के दिव्यता का स्तवन कर देवार्चन विधि का उल्लेख किया गया है जिससे हम उनकी उपासना के लिए प्रेरित हुये ओर हम उनका आव्हान कर जाग गए पर यह बिडंबना ही कहेंगे कि मनुष्य होने के नाते हमारे अंदर की दिव्यता से हम परिचित न हो सके कि प्रकृति का एक रूप दयालु है तो दूसरे रूप में निर्मम है, जो हम मनुष्यों के भीतर भी छुपा हुआ है। दयालु रूप माता का है, जो उदारता का प्रतीक ज्ञान, समृद्धि,शक्ति देने के साथ जगत की रचना में जन्मदात्री माता बन अपनी संतान का पालन करती है तो वही शक्ति के रूप में अभय प्रदान कर सभी विघ्नों को दूर करती है तब देश में शक्ति आराधना के इस पर्व में करोड़ो लोग एक साथ साधनारत रहकर देश,समाज ओर घरों में सुख शांति, वैभव से वंचित क्यो है?

नवरात्रि का पर्व चैत्र ओर शारदीय आश्विन माह में हर साल दो बार दुर्गापूजन कि इस विधि को हम पूर्ण श्रद्धा ओर भक्ति से मनाते है ओर कुछ भक्त गुप्त नवरात्रि के प्रति भी अपनी भक्ति को जारी रखते है किन्तु पौराणिक मापदण्डों पर खरे नहीं उतर पाने के परिणामस्वरूप हम अपने  आराध्य देव या देवी के प्रति भक्ति कर शक्ति प्राप्त करने में हमारी युक्ति में सरल एवं सहजता से त्रुटिया को समाविष्ट कराने की चूक कर जाते है जिससे निश्चित रूप से इसके भयाभय परिणाम भी आते है, भले हमारे चर्मचक्षु इसे न देख सकते है। तो क्यों न हम धर्ममार्ग के अनुसरण में जाने अनजाने होने वाली इन त्रुटियों कि ओर भी अपनी दृष्टि डाले ताकि इसकी पुनरावृत्ति से बचकर हम सन्मार्ग पर अपनी भक्ति का पुण्यफल प्राप्त कर सके।  

शक्ति आराधना में अंजाने में हुई त्रुटियॉ- यह विचारणीय है कि जब भी कोई व्यक्ति अपने-परिवार के लिए सुख शांति ओर वैभव की संकल्पना को ध्यान में रखकर अपना आवास बनाता है तो वह सबसे पहले उचित स्थान का चयन करेगा, चयनित स्थान की सभी दिशाओं के वास्तुदोषों को देखेगा ओर दोष होने पर उनके निवारण आदि सभी महत्वपूर्ण बातों को विशेषज्ञों से जांच परख कर उचित मार्गदर्शन में ही निज निवास की नीव डालने से भवन के आकार को सम्पूर्णता प्रदान करेगा।जब वह खुद के लिए इतने सारी प्रक्रियाओ से एकाकार होता है तब प्रश्न उठता है कि- वही व्यक्ति नवदुर्गा के विभिन्न स्वरूपों की भक्ति करते समय उन्हे 9 दिन के लिए स्थापित करने से पूर्व इन सारी बातों के लिए अपनी आंखे क्यों बंद कर लेता है की हमे भी ’’माता के लिए उचित स्थान, उचित दिशा, उचित मंडप, उचित तोरण द्वार आदि वास्तुशास्त्र के दिशा निर्देश से बनाकर माँ को आमंत्रित कर स्थापित करना चाहिए ताकि पूजा हेतु स्थापित स्वरूप आपको यश, प्रतिष्ठा, सौन्दर्य, वैभव आदि सभी सहज ओर सरलता से भक्ति के बदले दिला दे ओर भक्ति की बयार से देश, प्रदेश के प्रत्येक व्यक्ति की दिशा ओर दशा परिवर्तित हो जाये।’’ परंतु ऐसा दिखता नहीं जिसका कारण है- जिन पंडित-पुजारियों को धर्मज्ञान का संचार कर उचित मार्गदर्शन करना होता है वे भी पूजापाठ की दक्षिणा के आगे खामोश हो जाते है ओर उनकी चतुराई अपने पांडित्य को कर्मानुष्ठान से सिद्ध कर दुर्गोत्सव पद्धति में धर्मशास्त्रीय व्यवस्था को चोपट कर जिस भक्तिभाव से माता के हृदय में अपनी भक्ति की पुकार पहुचाने के लिए आरति, प्रार्थना के स्वरों में “”मात भारत को जल्द से बलवान कर जिससे सुखी हो सारे नारी ओर नर”” दास कवि के भावों का आर्तनाद किया जाता है वह इन चूकों के रहते निष्फल ही है ओर भक्ति में लगे हम लोग भक्ति के स्थायित्व के स्थान पर कलुषित विचारों से मुक्त नही हो पाते है।

शक्ति उपासना की त्रुटियॉ से बचने के लिये-दुर्गाभक्ति तरङ्ग्नी में प्रोफेसर पंडित काशीनाथ जी मिश्र देवी के इन विभिन्न स्वरूपों के लिए बनने वाले पूजामंडपों के वास्तविक आकार, प्रकार की प्राथमिकता से विसर्जन तक की वैदिक धर्मानुगत विधि को शामिल करते है जिसमे शुरुआत स्वच्छ एवं उत्कृष्ट स्थान में ईशान कोण अथवा पूर्व दिशा में सभी विशेषताओं से समन्वित एवं मन को प्रिय लगने वाले देवीमंडप का वैदिक पद्धति से निर्माण करते समय देवी की प्रतिमा के विस्तार एवं ऊंचाई के अनुपात में तोरण की रचना की जाकर एक हाथ के बराबर भूमि नीचे रखकर चार हाथ की ऊंचाई के बराबर का भाग भूमि के ऊपर रखते हुये अन्य विनियोजन कर प्रवेशद्वार चंद्रमा के प्रकाश कि तरह रश्मिजाल से पूर्णता पर थमते है जहां देवी के स्वरूप का सौंदर्य ओर लावण्यता अवर्णीय दिखे । वास्तु के आधार पर स्थान के दोषों के अलावा जिस स्थान पर देवी की 9 दिवसीय स्थापना हो उस स्थान पर पताका फहराने के लिए वक्र वंशदंड के अपेक्षा सीधे सरल आकार के वंशदंड में अगर पताका दो हाथ लंबी हो तो उसकी ऊंचाई आठ हाथ के बराबर हो जिसे सप्तशती के सर्वकामिक मंत्रो के पाठ से उत्तोलित कर लगाने का विधान है ताकि पूजा के हर अवसर पर यह पताका भक्त को विजय प्राप्ति में वरदान साबित हो सके।

देवी भागवत पुराण में प्रतिमा निर्माण एवं स्थापना की विधि -जहा देवी प्रतिमा का निर्माण हो वहाँ नवरात्रि के पूर्व कि अष्टमी तिथि को लकड़ी के नौ मंगलमय मंडप अथवा वित्तीय स्थिति के अनुसार एक मंडप बनाकर उसमें प्रतिमा का निर्माण शुरू किया जाये तथा प्रतिमा के करकमलों में धारण किए जाने वाले अस्त्रशस्त्र, रत्न एवं पहनाये जाने वाले वस्त्रों-आभूषणों की फल प्रभूति से पूजन सम्पादन कार्य किया जाना चाहिए , ऐसा किए जाने पर शक्तिस्वरूपा दुर्गा देवी राज्य, आयु, पुत्र सौम्य प्रदान करती है। इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए की देवी के जिस स्वरूप की स्थापना करने जा रहे है, उनके मूल स्वरूप, उनकी भुजाओ में जिस हाथ में जो दाहिनी ओर त्रिशूल, तलवार, चक्र धनुषबाण चक्र के साथ अन्य अस्त्रशस्त्र का ठीक ठीक विन्यास हो तथा बाहीं भुजा-हाथों में पुष्प चक्र, खेटक, पाश, अंकुश, घंटा, चाप, परशु, आदि धारण किए जाने चाहिए।मत्स्य पुराण में प्रतिमा निर्माण एवं  स्थापना की सम्पूर्ण विधि-

संस्कृत से हिन्दी अनुवाद करने वाले श्रीरामप्रताप त्रिपाठी शास्त्री ,काव्यतीर्थ साहित्यरत्न हिन्दी विद्यापीठ प्रयाग ने सभी देवी एवं देवताओं की प्रतिमा निर्माण, मान एवं गठन के प्रकार, देवी प्रतिमाओं की स्थापना एवं उनके द्वारा धारण किये जाने वाले अस्त्र-शस्त्र,  देवों को यज्ञोपवीत धारण कराकर उन्हें स्थापित की जाने वाली पीठिका के भेद और निर्माण, स्थापना की वैदिक विधि, प्राणप्रतिष्ठा एवं प्रतिष्ठापकों की योग्यता आदि का विधिवत वर्णन मत्स्य पुराण के अध्याय-258 से 266 तक में किया है। दस भुजावाली देवी महिषासुरनाशिनी की प्रतिमा के निर्माण करते समय जटाजूट से विभिषित, अर्धचन्द्र परिलक्षित,तीन नेत्रोंवाली, पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मुखवाली, अलसी के पुष्प के समान नील वर्णवाली, तेजोमय सुन्दर नेत्रों से विभूषित, नवयौवन सम्पन्न, सभी प्रकार के आभूषणों से विभूषित, सुन्दर मनोहारि दॉतों से युक्त,पीन एवं उन्नत स्तनोंवाली प्रतिमा बनाये एवं त्रिशूल उनके दाहिनी हाथ में देना चाहिये तथा तलवार और चक्र क्रंमशः नीचे होने चाहिये, तीक्ष्ण बाण और शक्ति को भी बॉयी ओर से जानना चाहिये। ढाल, पूर्ण धनुष, पाश, अकुश घण्टा तथा परशु इन सबको बॉयी ओर से सन्निविष्ट करना चायि तथा नीचे की ओर शिरोविहीन महिषासुर की प्रतिमा बनानी चाहिये। फिर शिर के कटने पर शरीर से निकलता हुआ दाव दिखाना चाहिये, जिसके हाथ में तलवार हो, हृदय शूल से भिन्न हो, बाहर निकलती हुई उसकी ऑतें दिखाई दे, गिरते हुये रक्त से उसके सारे अंग लाल हो, फैले हुये नेत्र लाल दिखाई हो, नागपाश से चारों और से घिरा हो, भृकुटी तथा भीषण मुख हो, दुर्गा द्वारा पाशयुक्त बॉये हाथ से पकड़ा गया है। देवी के सिंह को मुख से रक्त वमन करते हुये दिखाना चाहिये एवं देवी का दाहिनी पैर समान रूप से सिंह के ऊॅपर स्थित हो तथा बॉया पैर कुछ ऊॅपर की ओर हो। उसका अॅगूठा महिष के ऊपर लगा हो, देवतागण चारों ओर से स्तुतिकर रहे हो, यह भी दिखाना चाहिये।

शक्ति की उपासना में शक्ति प्राप्ति के लिये वैदिक विधिविधान ही कल्याणकारी मार्ग है न कि व्यक्तिविशेष को आगे करके, उसकी सम्पन्नता से भव्य-विशाल पाण्डाल तैयार कर थोथा प्रदर्शन कर देवी के स्वरूपों को आधुनिक स्वरूप देकर उपहास का कारण बनाये और न ही खुद अपने लिये विनाश का मार्ग चुने। धन-ऐश्वर्य एवं व्यक्तिविशेष का प्रदर्शन करने के लिये देवी एवं देवों के मूल स्वरूप के विपरीत उनकी प्रतिमाओं को आपके द्वारा प्रतिष्ठित कर उनकी पूजा-अर्चना में भले कोई कमी न रखी जाये और पुरोहित के द्वारा पुजोपचार की त्रुटियों को भले ही मंत्रों के माध्यम से क्षमा मांग ले ओर माँ अपनी दयालुता के कारण आपको क्षमा भी कर दे परंतु उनके स्वरूपो की छेड़छाड़ उन्हे वर्दास्त नहीं है, जिसे स्वरूप दिये जाने हेतु मूर्तिकार के समक्ष अपनी मनमर्जी से आकार दिलवाना ही अनुचित ओर वैदिक विधान के अनुरूप अनुचित कृत्य ही है जो आपकी आराधना में, आपके अनुष्ठान में आप उसे मंगलाचार समझे किन्तु वह भगवती देवी के लिए आक्षेप वचन (गाली) होगा जिसके लिए देवी माँ क्रुद्ध होकर श्रापित करती है न कि कृपा करती है इसलिए इनसे बचने के लिए उन्हे जहा वे पूर्व से प्राणप्रतिष्ठित है, उन मंदिरों में उनके उसी रूप में पूजा- आराधना करना उचित है ।

भगवती कृपा प्राप्ति हेतु ’’देवी भागवत पुराण’’के सातवे स्कन्ध में पूजन की विधि के अर्न्तगत दो प्रकार की पूजा ब्राह एवं आभ्यन्तर बताई गयी है। ब्राह पूजा में एक वैदिकी और दूसरी तांत्रिकी कहीं गयी हैं। मूर्तियों के भेदानुसार वैदिकी पूजा वैदिक मंत्रों से सम्पन्न होती है तथा तांत्रिकी पूजा तंन्त्रोक्त मंत्रों से की जाती है। यहॉ कहा गया है कि जो मनुष्य पूजा रहस्य को नहीं समझता है वह अज्ञानी अपने तरीके से उल्टे ढंग से पूजा कर सदैव पतनोन्मुख होता है। वैदिक पूजा में मॉ नवदुर्गा के जिस स्वरूप की पूजा की जा रही है, उस स्वरूप के दर्शन कर मॉ के मस्तक, नेत्र और चरणों में पूजन, नमन, ध्यान और स्मरण करना चाहिये तथा माता के स्वरूप को जो सम्पूर्ण शक्तियों से सम्पन्न, सर्वश्रेष्ठ एवं परम दिव्य रूप है,उसका निरन्तर पूजन, नमन, ध्यान और स्मरण करना चाहिये,। जो साधक मॉ की आराधना कर रहा है उसे अपने चित्त को शांत करके सावधान होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार से शून्य होकर जप और ध्यान की श्रृंखला अटूट बनाये रखनी होगी तथी उसे मॉ की शरण के अलावा उनकी अनन्य भक्तिमय कृपा एवं मुक्ति प्राप्त होती है। जो सदा माता पर निर्भर है और उनका चित्त हरपल माता के चरणों में लगा है वे उत्तम भक्त की गिनती में आते है तथा कुछेक वैदिक आश्रय से वैदिक साधना अपनाकर ध्यानयोग, कर्मयोग एवं ज्ञानयोग से धर्मपरायण रहकर चित्त से अनुरक्त हो अपने प्राणों को मॉ के चरणों में लगाकर मुक्ति पा जाते है।

आनन्दमय रूप से शोभित मॉ जगदम्बा का ध्यान चित्त में रखकर ब्राहय पूजा करें तथा अन्तःपूजा तब तक न करें जब तक इसके अधिकारी न हो जाये। ध्यान रहे मॉ सर्वसाक्षिणी एवं आत्मस्वरूपिणी है इसलिये विधि    विधान से पूजा कर प्रतिदिन न्यास करें एवं मूलाधार में इकार, हृदय में रकार, भ्रू के मध्य में इैर्कार तथा मस्तक में हींकार का न्यास करें ।  द्वितीय पक्ष में प्रसंग मिलता है कि देव-देवी की मूर्ति, वेदी, सूर्य, चन्द्रमा, जल, नवगृह चिन्ह, यंत्र चित्र आदि का ध्यान कर पूजन किया जाता है। धर्म से भक्ति का प्रादुर्भाव होता है और भक्ति परब्रम्ह के ज्ञान में साधन है एवं श्रुति और स्मृति में प्रतिपादित सत्कर्म को धर्म कहा गया है,  
पूजा की दूसरी विधि में शक्ति स्वरूपा मॉ के दिव्य स्वरूप  मॉ की हवनवेदी, जलक्लश, यंत्र, मॉ की मनोरम छवि को हृदयरूपी कमल पर धारणकर परमेश्वरी मॉ का ध्यान करें व पूजन करें। जगदम्बा का ध्यान करते समय इन चर्मचक्षुओं से न देखी जाने वाली अलौकिक दिव्यमूर्ति के ममतामयी-करूणामयी स्वरूप, तरूणी के देदीप्यमान सौन्दर्य को ऐसे देखें जैसे संध्या की लालिमा उनके मुखारबिन्द पर ललितवर्ण में शोभा पा रही हो। उनका वह श्रीविग्रह स्वरूप अत्यन्त मनोरम है ,उनका परम श्रृंगार कोटिशः सूर्यरश्मियों की आभा लिये है उनके मुखमण्डल पर आनन्द एवं प्रसन्नता का सागर लहलहा रहा है उनके सम्पूर्ण अंग परम मनोहर है। मुकुट पर बाल चन्द्रमा शोभा पा रहा है और उनके पाश, अंकुश, वरदान देने के लालायित उनके करकमल, अभय प्रदान कर रहे है, इस भाव से मॉ का ध्यान अपने मन-मस्तिष्क चित्त में धारण कर पूजा की शुरूआत करें।   देवी भागवत पुराण में पूजा विधि एवं फलश्रुति-जगदम्बा का चिन्मय रूप अव्यक्त है और वे पंचमहाभूतों में पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश तथा पंच अव्यवस्था जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय एवं अतीत इनसे सर्वथा परे है व शक्तितंत्र में स्वयं ब्रम्ह है। उनका निरन्तर ध्यान करके मानसिक भोग-सामग्रियों से पूजा और जप सम्पन्न करने व उन्हें जप-अर्पण करके अर्ध्य देने का विधान हैं , जिसे सम्पन्न कर मॉ की पूजा के लिये सभी पात्र सामने रखना लें। पूजा में आने वाली वस्तुओं को अस्त्रमंत्र अर्थात ’’ऊॅ फट’’ मंत्र का उच्चारण कर शुद्ध करें, दिगबन्ध भी इसी मंत्र से करें, यह सब कृत्य समाप्त कर गुरूदेव को प्रणाम करें फिर उनकी आज्ञा से बाह्य पूजा की तैयारी करें। साधक के हृदय में जगदम्बा मॉ की मनोहर मूर्ति बसी हो, उसी का बाह्यपीठ पर आवाहन करें, फिर वेदमंत्र द्वारा प्राणप्रतिष्ठा करना आवश्यक हैं आसन, आवाहन, अर्ध्य, पाद्य, आचमन, स्नान और वस्त्रदान, ये विधिॅया क्रंमशः सम्पन्न करें। दो वस्त्र अर्पण किये जाये, आभूषणों से मूर्ति का श्रृगांर करें, सब प्रकार की गंध, पुष्प आदि यथायोग्य वस्ततुये अपनी भक्ति के अनुसार देवी मॉ को अर्पण करें। इसके बाद मंत्र में लिखित आवरण देवताओं का सविधि पूजन किया जाना चाहिये, जो प्रतिदिन पूजा न कर सकते हो, वे शुक्रवार को पूजा करने का अनिवार्य नियम बना ले।  बाह्य पूजा करने वाले साधक  अधिकारी होते ही बाह्य पूजा छोड़ अन्तःपूजा में लग जाये, जो थोड़े समय बाद ज्ञान में लीन हो जाते है, उपाधिशून्य ज्ञान ही मॉ का परम रूप है। मॉ के ज्ञानमय रूप में जब साधक का चित्त लग जाता है तब उसे यह संसार असार लगने लगता है और वह जन्म मृत्यु से परे मॉ का चिन्तन कर मॉ के सर्वसाक्षिणी एवं आत्मस्वरूपिणी रूप में समाविष्ट हो मुक्ति प्राप्त करता
है।

देवीपूजन के विविध प्रसंगों का संक्षिप्त वर्णन में -सहस्त्रनाम से मॉ जगदम्बा का जल्द प्रसन्न होना बताया है वहीं कवच तथा ’अहंम रूद्रेभिः’’ इस सूक्त से एवं ’देव्यथर्वशीष’ के मंत्रों और महाविद्या-संज्ञक प्रधान मंत्रों से प्रसन्न करने का उल्लेख किया गया है। पुरूषों के र्विषय में कहा गया है कि वे अपने हृदय में प्रेमरस से स्निग्ध हो जगदम्बा के प्रति अपराध क्षमा होने की इस प्रकार प्रार्थना करें कि उनके सम्पूर्ण अंग पुलकित हो जाये तथा ऑखों मेंं ऑसू आ जाये और उनका कण्ठ अवरूद्ध हो जाये। वे बार-बार नाचे और गाकर मॉ को प्रसन्न करें। अपना सर्वस्य मॉ को अर्पित करें, तदनन्तर नित्य होम करें। ब्राम्हणों-सुहागिनी स्त्रियों, छोटे-छोटे बालक-बालिकाओं को देवी  का रूप मानकर भोजन कराना मॉ त्रिभुनसुन्दरी देवीकी उपासना करना बताया है जिससे मॉ प्रसन्न होती है और साधक के लिये कभी भी कोई वस्तु दुर्लभ नहीं होती है। आयु समाप्त होने पर वह साधक सीधे मणिद्वीप में पहुचॅता है, ऐसे साधक को देवी का स्वरूप समझ देवता भी नित्य प्रणाम करते है, यह मॉ जगदम्बा की भक्ति का महत्व को व्यक्त करता है।  

अतएव शक्ति कि भक्ति के लिए देवी माँ की वर्ष में आने वाली दोनों नवरात्रि ओर गुप्तनवरात्रि पर उनके वास्तविक स्वरूप को विधि विधान से जो भी भक्त-साधक पूजा भक्ति करता है तो उस भक्त पर माँ प्रसन्न रहकर वरदानों-आशीर्वादों की बरसात कर उनका जीवन आनंद से पूर्ण कर सभी प्रकार के विघ्नो का नाश करती है ओर जो अपनी संतुष्टि के लिए अनुचित रीति-मार्गो का अनुसरण कर धनोपार्जन हेतु यथाविधि रीति से उनके स्वरूपों के विपरीत स्वरूप में दर्शन कर भक्ति करने की चूक करता है और समाज में इन अनुचित साधनों से सफलता की सीढ़िया चढ़ता हुआ कुबेरपति बन जाये,  राजनीति के शिखर को पा जाये, परन्तु उसके जीवन में सुख-शांति नदारत होते है, उनकी संतति अवगुणी निकलती है, उनके परिवार में बहिन-भाईयों में वैमनस्यता चरम पर होती है, उनका धन उन जैसे मार्गो के लोगों को फलित होता है, वे सभी जगह से अपने और अपनों के लिये तबाही की फसलें बोते और काटते है, अनर्थ उनका आज और कल बिगाड़ देता है, जिसे वे स्वयं आमंत्रित करते है, इसलिये शक्ति की उपासना में ऐसे भक्तों की बहुतायता देखने को मिलती है पर वे जिस तत्परता से शिखर पर होते है, उसी तेजी से वे गुमनामी में धॅस जाते है। मॉ की भक्ति में अनुचित मार्गो से बचना चाहिये और ऐसी भक्ति करना चाहिये कि विरक्ति के मार्ग से सभी से मुक्त हो सके, यही मार्ग धर्मस्थापना के साथ-साथ देवी माँ की अनन्य कृपा देने वाला है, यही अनन्य कृपादृष्टि कुबेरपति बनने -राजसिंहासन जैसी तुच्छताओं से कहीं उच्चतम शिखर पर सहज ही अष्टसिद्धि नवनिधि प्रदान करने के साथ जीवनमरण से मुक्त करने कर मॉ की प्रिय बना सकती है।

आत्‍माराम यादव पीव 

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