आरक्षण समानता और सुरक्षा के मन्त्र नहीं.

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नरेश भारतीय

चर्चा सर्वत्र लोकपाल विधेयक को संसद में पेश करने और पारित करवाने की चल रही थी और इस बीच राजनीतिक धुरंधरों की नज़रें विधान सभा चुनावों पर जम रहीं थीं. जनता को लुभाने के लिए हर पार्टी अपने अपने धनुष की प्रत्यंचा पर तरह तरह के तीर चढ़ाती दिखाई पड़ रहीं थीं. यही है देश का दुर्भाग्य कि चुनावों के समय वोटों के गणित का खेल सामजिक विभाजन के घिनौने दावपेंच पर केंद्रित होने लगता है. आजादी के बाद से यह खेल बेशर्मी के साथ खेला जा रहा है और इसका कहीं कोई अंत दिखाई नहीं देता. अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज के लिए आरक्षण के बह्मास्त्र को तरकश से निकाल कर उसकी शक्ति को आजमाने का पैंतरा पहले उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने फैंका. कांग्रेस जो राहुल गांधी की कमान में अपनी खोई हुई साख को उबारने के लिए दिनरात एक किए हुए है उसने केन्द्रीय मंत्रीमंडल में तत्संबंधी प्रस्ताव पारित करवा कर अपना तीर छोड़ दिया. पूर्व निर्धारित दलित कोटे में से साढ़े चार प्रतिशत मुस्लिम अल्पसंख्यकों में पिछड़ी जाति वालों के लिए आरक्षण का प्रावधान. इस प्रकार मुसलमानों की सहायता का प्रपंच रच कर उनके ही जातिविहीन मजहबी प्रावधान में सेंध का संदेश है. यह भारत के समस्त समाज को भारतीयता के बंधन में बाँधने का प्रयत्न नहीं बल्कि स्पष्ट हो रहा है कि इससे समाज के समरस और एकजुट होने के स्थान पर उसके दीर्घकालिक विभाजन और बिखराव की प्रक्रिया को ही बल मिलेगा.

कहने को तो एक बड़े टुकड़े में से एक छोटा टुकड़ा ही है इस अल्पसंख्यक आरक्षण की परिधि, लेकिन भारतीय लोकतंत्र में सामाजिक विभाजनों की परम्परा कायम करने वाली कांग्रेस को इसकी चिंता नहीं कि यह असंवैधानिक फैसला आगे और क्या क्या गुल खिलाएगा. कितने और ऐसे मजहब आधारित अल्पसंख्यक आरक्षण के दावेदार बन कर उठ खड़े होंगे? सिख, बौद्ध, जैन, और ईसाई. नज़र घुमा कर देखें तो और भी जाने कितने छोटे मोटे धार्मिक अल्पसंख्यक उभर कर खड़े होने लगेंगे जैसे जातियों के आरक्षणों में हुआ और फिर बने पिछड़े, अति पिछड़े और अति अति पिछड़े. ये रेत के ऐसे महल हैं जो खड़े तो किए जा रहे हैं लेकिन जब वे बिखरने लगेंगें तो घोर अनर्थ होगा. देश में सामाजिक सौहार्द्र का ढांचा, जिसका तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी ढोल पीटते चले आये हैं, उसे ही आज वोटों के लालच में देश के कथित अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज को उसके पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण देकर तोड़ने की प्रक्रिया उन्होंने शुरू कर दी है. यही मुस्लिम समाज में छोटे बड़े का विभाजन उत्पन्न करेगी जो उसे उसकी धार्मिक मान्यता के अनुसार स्वीकार्य नहीं होगा. परिणामत: वह बड़े आरक्षण के लिए मांग करेगा जिसके अंततः गंभीर परिणाम हो सकते हैं.

अल्पसंख्यकवाद? सोचता हूँ क्या यह भारतीयों को ही भारतीयों के विरुद्ध खड़ा नहीं कर देता? एक को विशेष दर्जा देकर और शेष यानि कथित बहुसंख्यक वर्ग को अविशेष बना कर समानता की भावभूमि कैसे पुष्ट की जा सकती है? इसके स्थान पर कोई ‘एकात्म भारतीयत्व’ की चर्चा क्यों नहीं करता जिसमें एक कुटुम्ब की भावना के अंतर्गत सबकी आवश्यकता, विकास, स्थैर्य और सफलता सुनिश्चित करने की दिशा में साँझा समाधानों का प्रावधान हो. भारत का निर्विवाद सत्य यही है कि जिसने भारतभूमि पर जन्म लिया है वह उसका पुत्र या पुत्री है और भारतमाता के लिए इससे अधिक सुखकारी और क्या हो सकता है कि उसकी सब संतानें प्रेम के साथ उसकी छत्रछाया में रहें. वह सबको अपना स्नेह दे और वे सब उसका सम्मान करें. देश और देश के समाज को टुकड़ों में बाँट कर उन्हें समानता प्रदान नहीं की जा सकती. सबको एकसूत्र में पिरोने की आवश्यकता को १९४७ में आज़ादी प्राप्त होने के बाद से सत्ता राजनीति के खिलाड़ी अपनी थोक वोटों की खोज में निरंतर नकारते ही चले आये हैं. प्रलोभनों के प्रतीक आरक्षण की संस्कृति के बल पर सत्ता का खेल खेलने के दूरगामी परिणामों की किसी को कोई चिंता नहीं है. जब आरक्षण उपलब्ध हों तो समाज के अनेक लोग नए आरक्षणों के दावेदार बन कर खड़े हो जाते हैं. उस समय आवेश में वे इस सत्य को भी भूल जाते हैं कि वे सबसे पहले भारतीय हैं और उन्हें उसी के नाते समानता के आधार पर पूरे हक मिलने चाहिएं. अब समय आ गया है कि वे यह कहने का साहस करें कि छोटे बड़े घोषित करके उन्हें एक दूसरे से अलग थलग न किया जाये और उनकी भारतीय राष्ट्रीयता को कमजोर न बनाया जाए. वैयक्तिक स्तर पर जाति, धर्म और वर्ग के बिना आर्थिक स्तर और सबकी आवश्यकताओं का आकलन करते हुए अभावों को दूर करने और उनके भविष्य की बेहतरी के उपाय किए जाएँ.

वोटों के लिए संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए देश में ऐसी समानता लाने के स्थान पर समाज को छोटी बड़ी जातियों और वर्गों में विभाजित करके और अब आरक्षित मजहबी अल्पसंख्यक वर्ग की राह पर डाल कर सौहार्द्र को समाप्त करने का खुले आम अपराध किया जा रहा है. अंतत: देश को वैसे ही कालखंड में पुन: धकेला जा रहा है जब हम राजनीतिक दृष्टि से टुकड़ों में बंटे बिखरे हुए थे. उसी का लाभ उठा कर विदेशी आक्रांताओं ने हमें न सिर्फ राजनीतिक स्तर पर अपने जूतों के तले मसलने का दुस्साहस किया था अपितु सामाजिक धरातल पर भी जातियों के बने हुए तंग घेरों की जकडन में और कस दिया था. एक जाति को दूसरी पर प्रश्रय देकर और मुखरता से बांटा और एक दूसरे का दुश्मन बनाने की चेष्ठा की. उसके बाद धर्म परिवर्तन का ऐसा क्रूरतापूर्ण दौर चला जिसने सामजिक विभाजन को गहरा और घिनौना मोड़ देना शुरू किया. जो हिंदू से मुस्लिम बना लिए गए उनसे अपेक्षा की जाने लगी कि वे अपने मूल हिंदू समाज से दूर हट कर जीना सीखें. शासकों के साथ जुड़ने के लिए उन्हें प्रलोभन दिए जाने लगे. यही प्रक्रिया अंग्रेजों के जमाने में और आगे बढाई गई. और बांटा गया समाज को. अनेक विवश हो कर शासकों के सहायक बने या प्रलोभनों के शिकार हो कर शांत हो गए.

जब भी चुनाव आते हैं तो जातीय समीकरण बनने बिगड़ने के गणित को टेलीविजन के परदे पर पत्रकार मित्रों को प्रदर्शित करते देखता हूँ. राजनीतिक प्रवक्ताओं को बहसों में लड़ते झगड़ते देखता हूँ. बहुधा ऐसा लगता है कि हर कोई अपनी कहना चाहता है, दूसरे को सुनना नहीं चाहता. अपनी धुन में अपनी पार्टी की ही लकीर को पीटता चला जाता है. कहाँ है देश की जनता जो अपने दीर्घावधि हिताहित के प्रति सोचने तो लगी है लेकिन ऐसे नेतृत्व को उभरता नहीं देख पा रही जो उसके हित की रक्षा करे. देश का हर नागरिक भारतीय होने के नाते समानता का आधार पाए जातियों और अल्पसंख्यक माना जा कर मात्र आंशिक नहीं पूरा हक न पाए. यदि कुछ को आरक्षण देकर सुरक्षित कर दिया जाये और जो आरक्षण दूसरों के लिए असुरक्षा बन जाए, ऐसा आरक्षण जो समाज के एक वर्ग को मुख्य धारा से अलग कर डाले, पहले छोटा बनाए और फिर आरक्षण के बल पर बड़ा बनाने का दावा करे, ऐसा आरक्षण समानता नहीं सतत असमानता को ही जन्म देगा और देश को तबाह करेगा.

चुनाव अभियानों में और मुस्लिम अल्पसंख्यक आरक्षण के ध्वजवाहक नेताओं के भाषण मंचों से वोट बैंक राजनीति के चित्र उभरने शुरू हो चुके हैं. उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव राज्य की राजनीति के अतिरिक्त राष्ट्रीय राजनीति की दिशा निर्धारण के रूप में देखे जा रहे हैं. कांग्रेस को उम्मीद है कि वह अपने कदम आगे बढाएगी और फिर राष्ट्रीय राजनीति में अपना सिक्का और मजबूती से जमाएगी. लोकपाल विधेयक पर संसद में बहस भ्रष्टाचार की रोकथाम पर इतना केंद्रित नहीं थी जितना इस बात पर कि अल्पसंख्यक आरक्षण लोकपाल पद के लिए भी होना चाहिए. जिन्हें लोकपाल विधेयक से कोई सरोकार नहीं था, वे अपने अपने कारणों से लोकपाल नहीं चाहते थे, परन्तु यदि लोकपाल का पद निर्मित होता है तो अल्पसंख्यक आरक्षण के तहत वे यह पद किसी अल्पसंख्यक को मिलते देखना चाहते हैं. कैसी प्रवंचना है यह जिसमें देश की जनता को अनेक दशकों से मूर्ख बनाया जाता रहा है.

यदि देश की जनता भ्रष्टाचार और उन्हें संत्रस्त करने वाले आतंकवाद और असुरक्षा जैसे मुद्दों के समाधान देखना चाहती है तो उसे सुनिश्चित करना होगा कि वह देश के वर्तमान और भावी कर्णधारों को उन्हें बांटने न दे, जाति, वर्ण, वर्ग विहीन आधार पर एकजुट हो कर अपने प्रतिनिधियों को उनकी योग्यता, क्षमता और उनके और राष्ट्र हित के चिन्तन में काम करने की उनकी प्रतिबद्धता का साँझा आकलन करते हुए चुनें. वोट बैंक की उनकी इस विभाजीय मृगमरीचिका से उन्हें अब परिचित कराए और खुद को उनकी सत्ता शतरंज का एक मोहरा मात्र न बनाए.

जो काम जातीय भेदभाव को समाप्त करने की आवश्यकता की पूर्ति यदि न्यायिक प्रक्रिया को मजबूत बनाने के साथ साथ सामाजिक प्रयासों को प्रोत्साहन समर्थन देकर किया गया होता तो निश्चय ही अधिक कारगर सिद्ध होता. वर्गीकरण से समाज और बंटा है जुड़ा नहीं. ध्यान देने योग्य है कि अनेक संगठनों ने जातीय घृणा को को खत्म करने की दिशा में काम किया है. उन पर ध्यान देने दिए जाने की आवश्यकता है. उदाहरणार्थ, संघ की शाखाओं में कोई किसी से यह नहीं पूछता कि कौन किस जाति का है. सब प्रेम से एक साथ मिलते बैठते हैं, व्यायाम करते हैं, एक साथ पंगत में बैठ कर अन्न जल ग्रहण करते हैं. समानता की ये राहें हैं जिन्हें आज ईमानदारी से समझने समझाने और व्यवहार में उतारे जाने की आवश्यकता है. राजनीतिक धरातल पर खड़े हो कर दिए जाने वाले आरक्षण सुरक्षा नहीं, अपितु असुरक्षा के यन्त्र हैं समानता और सुरक्षा के मन्त्र नहीं.

5 COMMENTS

  1. एक पठनीय लेख. दर असल आजकल राजनीतिक दल, खासकर सेकुलर बिरादरी आरक्षण के शोर्ट कट के जरिये सत्ता हासिल करना चाहता है. इन्हें मालूम ही नहीं कि, विकास, सुशासन, ईमानदार प्रशासन आदि किस चिड़िया का नाम है.
    आरक्षण के कारण भारतीय समाज में एक दूसरे के प्रति वैर भाव बढ़ा है. कुछ कथित सवर्ण जातिया तो दूसरे दर्जे की नागरिक बनकर रह गयी हैं. प्रतिभाओं को सही अवसर नहीं मिल रहे हैं. और अब पिछडो का आरक्षण छीनकर कोंग्रेस उनका हिस्सा मुस्लिमो को थमा रहा है. इससे धर्मांतरण को बढ़ावा मिलेगा और देश का आर्थिक ही नहीं, सामाजिक ताना-बाना भी गर्त में चला जाएगा.

  2. AApka pradirgh lekhh ne meri dil ki bat chedi hain . Dharma ke aadhar per aarakshan yane dubara desh ko todane ki bath hain. Desh me lokshai hain , jaha dharma koi aadhar nahi hain , nidhrami bolte ho , school me dakila karte samay , jat puchte ho, nokari ka form bharte wakta jat puchate ho . Ye kainsa nidharmi rashtra hain. Chan voto ke liye desh koa batawara karana chahate hain, agar ahi hona hain to hame nhi chahiye LOKASHAI .

  3. अरे रे !
    एक बार, अंग्रेज़ भारत को निगल गया था।
    अब आरक्षण निगल जाएगा।
    कई दशकों से निगल रहा है।
    आरक्षण एक अजगर है, हमें बेचेगा,निगलेगा।
    जैसे गहरी नीन्द में सोया व्यक्ति नीन्द में ही मर जाए, वैसे देश भी नष्ट हो सकता है।
    इस देशको सुधारना पागल को दवाई पिलाने जैसा है।
    पागल दवा तो पीता नहीं, जो उसे पिलाने का प्रयास करता है, उसे ही थप्पड मारता है।
    धन्यवाद नरेश जी।
    आप लेखनी चलाते रहिए।

  4. लेखक महोदय ने एम लम्बा लेख लिखकर इस बात का परिचय देने का प्रयास किया है कि वे और संघ ही इस देश के सबसे बड़े शुभचिन्तक हैं| आरक्षण को जबरन लागू करवाने वाले मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी, आरक्षण को संविधान सम्मत और सामाजिक न्याय के लिये अत्यन्त जरूरी मानने वाली इस देश की न्यायपालिका सब मूर्ख हैं| लेख को पढकर ऐसा लगता है मानो केवल लेखक और संघी ही इस देश के सबसे बड़े विद्वान और देशभक्त हैं|
    लेखक इस देश को फिर से मुनवादी विचारधारा के पोषक दो फीसदी लोगों के हाथों गिरवी रखना चहते हैं| शर्म आती है ऐसे लोगों के घृणित विचारों पर जो इतना भी नहीं समझते कि आखिर इस देश में बहुसंख्यक लोगों को आरक्षण की जरूरत ही क्यों पड़ी? कौन लोग जिम्मेदार रहे हैं, इस स्थिति के लिये? यदि दो फीसदी लोग देश की सत्ता, सम्पत्ति और संसाधनों पर हजारों वर्ष तक जबरन और गैर-कानूनी कब्जा जमाकर नहीं बैठते तो इस देश के लोगों को क्यों आरक्षण मांगना पड़ता?
    हालांकि व्यक्तिगत तौर पर मैं आरक्षण को उचित नहीं मानता, लेकिन इस देश के दमित तबकों के उत्थान के लिये, किये गये सच्चे प्रयासों को कुचलकर गॉंधी ने जबरन आरक्षण थौपा है तो अब इससे उन दो फीसदी लोगों को पीड़ा होना तो लाजिमी है, जो अठ्यानवें फीसदी लोगों के उत्थान को राष्ट्रविरोधी कृत्य मानते हैं और दो फीसदी लोगों के कुकर्मों और जुल्मों की दास्तओं को राष्ट्र की अस्मिता के लिये जरूरी मानते हैं| लेकिन खेद का विषय है कि अब संघियों की इस रुग्ण विचारधारा को भाजपा भी इस देश में लागू नहीं कर सकती! पिछली अटल सरकार ने भी आरक्षण को लोकर संविधान में आरक्षितों के पक्ष में संशोधन किये थे| नरेन्द्र मोदी जी या आडवाणी जी को भी प्रधानमन्त्री बना दें तो भी संघी इस देश पर फिर से दुराग्रही और मानवता के हत्यारों को सत्ता में पूर्ण हक नहीं दिला सकते| अब लोकतान्त्रिक मसमाज में अमानवीय सामन्ती और मनुवादी व्यवस्था सम्भव नहीं है| ऐसे में इस प्रकार के दुराग्रही राग अलापने से कुछ नहीं हो सकता| लेख की विषयवस्तु भारत के अठ्यानवें फीसदी लोगों के प्रति पूर्वाग्रही वमन के सिवा कुछ भी नहीं है!-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
    सम्पादक-प्रेसपालिका (पाक्षिक), जयपुर
    ०१४१-२२२२२२५, ९८२८५-०२६६६

  5. नरेश भारतीय जी आपका यह लेख नहीं चाटुकारों के मुह पर जूता है जो देश को जाती धर्म आर्य अनार्य मनुवादी आदि आदि ना जाने क्या क्या में विभाजित कर अपने राजनितिक स्वार्थ की पूर्ति करते है या दूसरो की आकांक्षा की पूर्ति करा कर दलाली खाते है . देश की जनता को ऐसे गद्दारों भेडियो से सावधान रहना रहना चाहिए जो अपनी दूषित मनोवृत्तियो को पूरा करने के लिए स्वजनों को दूसरो के प्रति भड़काते बरगलाते है.

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