
–शैलेन्द्र चौहान-
भूकम्प पृथ्वी का उपपठारीय चट्टानों के टूटने या खिसकने से अचानक होने वाला तीव्र कंपन है। भूगर्भशास्ित्रयों का मानना है कि भारतीय टैक्टोनिक प्लेट के यूरेशियन टैक्टोनिक प्लेट (मध्य एशियाई) के नीचे दबते जाने के कारण हिमालय बना है। पृथ्वी की सतह की ये दो बड़ी प्लेटें करीब चार से पांच सेंटीमीटर प्रति वर्ष की गति से एक दूसरे की ओर आ रही हैं। भारतीय टैक्टोनिक प्लेट 1.6 सेमी प्रतिवर्ष ऊपर जा रही है। इन प्लेटों की गति के कारण पैदा होने वाले भूकम्प की वजह से ही एवरेस्ट और इसके साथ के पहाड़ ऊंचे होते गए। हिमालय के पहाड़ हर साल करीब पांच मिमी ऊपर उठते जा रहे हैं। भूगर्भवेत्ताओं का कहना है कि भारतीय प्लेट के ऊपर हिमालय का दबाव बढ़ रहा है। मुख्यत: इस तरह के दो या तीन फॉल्ट हैं। इन्हीं में किसी प्लेट के खिसकने से यह ताजा भूकम्प आया है। वैज्ञानिकों का मानना है कि 7.9 तीव्रता का भूकम्प बड़ा भूकम्प है और वैज्ञानिक ऐसे किसी बडे भूकम्प का पहले से ही अनुमान लगा रहे थे लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि यह कब आएगा।
सिंगापुर स्थित नानयांग टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी की अर्थ ऑब्जरवेटरी से जुड़े पॉल टाप्पिओनियर के अध्ययन के मुताबिक, काठमांडू में 1255 और 1934 में आए भूकम्प अभूतपूर्व यानी ऐसे थे जिनसे भूमि की ऊपरी परत फट गई थी। ऐसे में दबी हुई ऊर्जा भूकम्प के रुप में उभरती है। 1934 में नेपाल के भूकम्प स्थल के पश्चिम या पूर्व में भूमि फटने के कारण भूकम्प आने सम्बन्धी रिकॉर्ड नहीं मिले हैं। इस इलाके में पिछले पांच सौ सालों से प्लेटों के बीच तनाव बढ़ रहा था। वैज्ञानिक आठ से अधिक तीव्रता के भूकंप की आशंका जता रहे थे। अगर इसकी तीव्रता आठ तक होती तो इसका असर दिल्ली तक होता। बड़े से बड़े भूकम्प में भी नुकसान के शुरुआती आंकड़े बहुत कम होते हैं और बाद में ये बढ़ते जाते हैं। आशंका इस बात की है कि इस भूकम्प के मामले में भी मरने वालों की संख्या बहुत ज्यादा होगी। कारण यह है कि इस भूकम्प का केंद्र बहुत उथला यानी केवल 10 से 15 किलोमीटर नीचे था। इसके कारण सतह पर कंपन और गंभीर महसूस होता है। विनाशकारी भूकम्प के बाद दो दिनों में कम से कम 40 हल्के झटके आए हैं। ऐसा होना स्वाभाविक ही है। इनमें से अधिकांश चार से पांच की तीव्रता के थे। इसमें एक 6.6 तीव्रता का भी झटका शामिल है। रिक्टर स्केल पर तीव्रता में हर एक अंक की कमी का मतलब है, बड़े भूकम्प की तुलना में 30 फीसदी कम उर्जा का बाहर आना। नेपाल के उदाहरण से समझा जा सकता है कि जब इमारतें पहले से ही जर्जर होती हैं तो एक छोटे से छोटा झटका भी किसी ढांचे को जमींदोज करने के लिए पर्याप्त होता है। इस इलाके की अधिकांश आबादी ऐसे घरों में रह रही है, जो किसी भी भूकम्प के लिए सबसे खतरनाक हैं। भूकम्प के बाद एक और बड़ी आशंका भूस्खलन की होती है। यह संभव है कि इस पहाड़ी क्षेत्र में कोई गांव मुख्य आबादी से कट गया हो या ऊपर से गिरने वाले पत्थरों या कीचड़ में दफन हो गया हो। इससे मृतकों और घायलों की संख्या में बढ़ोत्तरी होना आम बात है। हिमालयी क्षेत्र में 1934 में बिहार में 8.1 तीव्रता का भूकम्प आया था। वर्ष 1905 में 7.5 तीव्रता का भूकम्प कांगडा (हिप्र) में आया और वर्ष 2005 में 7.6 तीव्रता का भूकम्प कश्मीर में आया था। नेपाल में शनिवार को आए 7.9 तीव्रता वाले विनाशकारी भूकंप के बाद विशेषज्ञों का मानना है कि अब उत्तर भारत में भी समान तीव्रता का भूकंप आ सकता है। अहमदाबाद स्थित भूकंप अनुसंधान संस्थान के महानिदेशक बी.के. रस्तोगी ने कहा कि समान तीव्रता का एक भूकंप आ सकता है। कश्मीर, हिमाचल, पंजाब और उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में यह भूकंप आज या आज से 50 साल बाद भी आ सकता है। इन क्षेत्रों में सिस्मिक गैप की पहचान की गई है। लंबी अवधि के दौरान टेक्टॉनिक प्लेटों के स्थान बदलने से तनाव बनता है और धरती की सतह पर उसकी प्रतिक्रिया में चट्टानें फट जाती हैं। दबाव बढ़ने के बाद 2000 किलोमीटर लंबी हिमालय श्रृंखला के हर 100 किलोमीटर के क्षेत्र में उच्च तीव्रता वाला भूकंप आ सकता है। हमारी धरती मुख्य तौर पर चार परतों से बनी हुई है जिन्हें क्रमश: इनर कोर, आउटर कोर, मैन्टल और क्रस्ट कहा जाता है। क्रस्ट और ऊपरी मैन्टल को लिथोस्फेयर कहते हैं। पृथ्वी के ऊपर की ये 50 किलोमीटर की मोटी परत, कई वर्गों में बंटी हुई है, जिन्हें टैक्टोनिक प्लेट्स कहा जाता है। ये टैक्टोनिक प्लेट्स अपनी जगह से हिलती रहती हैं लेकिन जब ये बहुत ज्यादा हिल जाती हैं, तो भूकम्प आ जाता है।
उल्लेखनीय है कि ये प्लेट्स क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर, दोनों ही तरह से अपनी जगह से हिल सकती हैं। इसके बाद वे अपनी जगह तलाशती हैं और ऐसे में एक प्लेट दूसरी के नीचे आ जाती हैं। इन प्लेट्स में होने वाली हलचल के भूगर्भीय परिणामों को भूकम्प कहा जाता है। भूकम्प की तीव्रता मापने के लिए रिक्टर स्केल या पैमाना इस्तेमाल किया जाता है। इसे रिक्टर मैग्नीट्यूड टेस्ट स्केल कहा जाता है। भूकम्प की तरंगों को रिक्टर स्केल 1 से 9 अंकों की तीव्रता तक के आधार पर मापता है। रिक्टर स्केल को सन 1935 में कैलिफॉर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में कार्यरत वैज्ञानिक चार्ल्स रिक्टर ने बेनो गुटेनबर्ग के सहयोग से बनाया था। इस स्केल के अंतर्गत प्रति स्केल भूकम्प की तीव्रता 10 गुना बढ़ जाती है और भूकंप के दौरान जो ऊर्जा निकलती है वह प्रति स्केल 32 गुना बढ़ जाती है। इसका अर्थ यह है कि 3 रिक्टर स्केल पर भूकम्प की जो तीव्रता होती है, वह 4 स्केल पर 3 रिक्टर स्केल की 10 गुणा बढ़ जाएगी। रिक्टर स्केल पर भूकम्प की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 8 रिक्टर पैमाने पर आया भूकम्प 60 लाख टन विस्फोटक से निकलने वाली ऊर्जा उत्पन्न कर सकता है। भूकम्प को मापने के लिए रिक्टर के अलावा मरकेली स्केल का भी इस्तेमाल किया जाता है। पर इसमें भूकम्प को तीव्रता की बजाय ताकत के आधार पर मापते हैं। इसका प्रचलन कम है क्योंकि इसे रिक्टर के मुकाबले कम वैज्ञानिक माना जाता है। भूकम्प से होने वाले नुकसान के लिए कई कारण जिम्मेदार हो सकते हैं, जैसे घरों की खराब बनावट, खराब संरचना, भूमि का प्रकार, जनसंख्या की बसावट आदि। भारतीय उपमहाद्वीप में भूकम्प का खतरा हर जगह अलग-अलग है। भारत को भूकम्प के क्षेत्र के आधार पर चार हिस्सों, जोन-2, जोन-3, जोन-4 तथा जोन-5 में बांटा गया है।जोन 2 सबसे कम खतरे वाला जोन है तथा जोन-5 को सर्वाधिक खतनाक जोन माना जाता है। उत्तर-पूर्व के सभी राज्य, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड तथा हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्से जोन-5 में ही आते हैं। उत्तराखंड के कम ऊंचाई वाले हिस्सों से लेकर उत्तर प्रदेश के ज्यादातर हिस्से तथा दिल्ली जोन-4 में आते हैं। मध्य भारत अपेक्षाकृत कम खतरे वाले हिस्से जोन-3 में आता है, जबकि दक्षिण के ज्यादातर हिस्से सीमित खतरे वाले जोन-2 में आते हैं।
हालांकि राजधानी दिल्ली में ऐसे कई इलाके हैं जो जोन-5 की तरह खतरे वाले हो सकते हैं। इस प्रकार दक्षिण राज्यों में कई स्थान ऐसे हो सकते हैं जो जोन-4 या जोन-5 जैसे खतरे वाले हो सकते हैं। दूसरे जोन-5 में भी कुछ इलाके हो सकते हैं जहां भूकम्प का खतरा बहुत कम हो और वे जोन-2 की तरह कम खतरे वाले हों। भारत में लातूर (महाराष्ट्र), कच्छ (गुजरात) जम्मू-कश्मीर में बेहद भयानक भूकम्प आ चुके हैं। इसी तरह इंडोनेशिया और फिलीपींस के समुद्र में आए भयानक भूकम्प से उठी सुनामी भारत, श्रीलंका और अफ्रीका तक लाखों लोगों की जान ले चुकी है। भूकम्प की तीव्रता का अंदाजा उसके केंद्र (एपीसेंटर) से निकलने वाली ऊर्जा की तरंगों से लगाया जाता है। सैकड़ों किलोमीटर तक फैली इस लहर से कम्पन होता है और धरती में दरारें पड़ जाती है। अगर भूकम्प की गहराई उथली हो तो इससे बाहर निकलने वाली ऊर्जा सतह के काफी करीब होती है जिससे भयानक तबाही होती है। लेकिन जो भूकम्प धरती की गहराई में आते हैं उनसे सतह पर ज्यादा नुकसान नहीं होता। समुद्र में भूकम्प आने पर सुनामी पैदा होती है।