गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-89

राकेश कुमार आर्य



गीता का सत्रहवां अध्याय
अपनी चर्चा को निरंतर आगे बढ़ाते हुए श्रीकृष्णजी कहने लगे कि जो दान, ‘देना उचित है’-ऐसा समझकर अपने ऊपर प्रत्युपकार न करने वाले को, देश, काल तथा पात्र का विचार करके दिया जाता है उस दान को सात्विक दान माना गया है। इस प्रकार का दान सर्वोत्तम होता है, क्योंकि इस प्रकार के दान से संसार का कल्याण होता है। मानो जगत की जड़ में अच्छाई का खाद पानी दिया जा रहा है-जिससे जगत रूपी वृक्ष हरा-भरा हो रहा है। हमारे देहात में कहा जाता है कि ‘पुण्य की जड़ हरी होती है’-उसका यही अभिप्राय है। अच्छे कार्यों का अच्छा परिणाम आता है और उससे हमें अच्छा परिवेश बनाने में सहायता मिलती है।

जो दान किसी उपकार के बदले में प्रत्युपकार की आशा से या भविष्य में किसी लाभ की आशा से किसी लाभ की आशा से दिया जाता है, या जिसे देते हुए दान करने वाला अपने मन में किसी प्रकार का कष्ट अनुभव करता है, अर्थात वह देना तो नहीं चाहता, पर परिस्थितियोंवश उसे देना पड़ रहा होता है-उस दान को राजसिक दान माना गया है। इस प्रकार के दान की स्थिति सात्विक दान की अपेक्षा कुछ कम मूल्यवान है। इस प्रकार के दान में दाता मन से प्रसन्न होकर दान नहीं करता, इसलिए उसके दान की महत्ता घट जाती है।
दान के विषय में श्रीकृष्णजी आगे कहते हैं कि जो दान देश, काल तथा पात्र का विचार किये बिना, अर्थात बिना यह देखे कि दान किस देश में, किस काल में और किस पात्र को दिया जा रहा है-दे दिया जाता है वह दान तामस दान कहा जाता है। इस प्रकार बिना उचित सत्कार के और तिरस्कारपूर्वक भी यह दान दे दिया जाता है। तामस दान की स्थिति राजसिक यज्ञ से भी कमतर है। इसमें दानदाता को और दानग्रहीता दोनों को ही पवित्रता का बोध नहीं होता। दानदाता दान दे देता है पर उसे यह नहीं पता होता कि वह दान किस व्यक्ति को किस पवित्र उद्देश्य के लिए और किस स्थान पर दे रहा है? लोग विवाहादि के कार्यक्रमों में नट-भांड आदि नचाकर उनको इस प्रकार का दान देते हैं। इस प्रकार के दान के अन्य अनेकों उदाहरण हैं। जिनमें दान दिया हुआ माना जा रहा है परंतु उसका कोई फल सही नही मिल रहा।
त्रिविध मंत्र-ओ३म् तत् सत्
ओ३म् को परमपिता परमेश्वर का निज नाम माना गया है। हमारे वेदादि शास्त्रों ने ओ३म् की महिमा इसी प्रकार बखान की है। ‘ओ३म् तत् सत्’ का अभिप्राय है कि वह परमपिता परमात्मा ही सत् है। वह दिखाई नहीं देता, पर वह न दीखने वाला होकर भी सत् है। इसके अतिरिक्त हमें जो कुछ दिखाई दे रहा है-वह क्षणभंगुर होने के कारण नाशवान है और इसीलिए वह असत् है।
ओ३म् तत् सत्-इसमें ब्रह्म का तीन प्रकार से निर्देश अर्थात संकेत श्रीकृष्णजी द्वारा माना गया है। श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि प्राचीनकाल में ब्रह्म से ही ब्राह्मण ग्रन्थ, वेद तथा यज्ञ निर्मित हुए। इन ग्रन्थों ने मानवता का सृष्टि प्रारम्भ से लेकर आजतक मार्ग दर्शन किया है। इन ग्रन्थों के कारण संसार में मानवता को प्रचारित-प्रसारित करने में सहायता मिली है।
जो व्यक्ति ब्राह्मण ग्रंथों का और वेदादि शास्त्रों का नित्य पठन-पाठन करता है और यज्ञ करता है वह उस सत् स्वरूप परमपिता परमेश्वर के निकट रहता है। इसलिए ब्रह्मवादी लोगों की शास्त्रों के विधान द्वारा बतलायी गयी यज्ञ, दान, तप रूपी क्रियाएं सदा ओ३म् का उच्चारण करके प्रारम्भ की जाती हैं। जब परमपिता परमेश्वर इस सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है और वह इस चराचर जगत को धारण भी कर रहा है तो मनुष्य की प्रत्येक क्रिया का उस परमपिता परमेश्वर के नाम से ही प्रारम्भ कराया जाना उचित है। श्रीकृष्णजी आगे कहते हैं कि मनुष्य को इसी भावना को हृदयंगम करके अपना कार्य करना चाहिए। अर्थात उस परमपिता परमेश्वर को ही सब कुछ मानकर उसी को अपना हृदय सौंप देना चाहिए और उसी के सामने समर्पण कर देना चाहिए। उस ब्रह्म के समक्ष सब कुछ तुच्छ और नगण्य है। हमें फल की आशा न रखकर अपने कार्यों को और यज्ञ, दान, तप आदि नाना प्रकार की क्रियाओं को मोक्ष की चाह रखते हुए करना चाहिए। जब हमारी क्रियाएं इस प्रकार से होने लगती हैं तो ‘ओ३म् तत् सत्’ की सार्थकता का बोध हमें होने लगता है।
‘तत्’ शब्द का प्रयोग ‘वास्तविकता’ तथा भलाई के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि हे पार्थ! ‘प्रशंसनीय’ कार्य के लिए भी ‘तत्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। यज्ञ, तप और दान में दृढ़ता से स्थिर रहना भी ‘सत्’ कहलाता है। श्रीकृष्ण जी के इस ‘सत्’ शब्द को भारतवर्ष के देहात में लोग आज भी इसी अर्थ और संदर्भ में प्रयोग करते देखे जाते हैं-जब वे कहते हैं कि ये धरती किसी बड़ी शक्ति के ‘सत्’ पर टिकी है, तो इसका अभिप्राय यही है कि यह धरती उस परमपिता परमेश्वर के यज्ञ, तप और दान में दृढ़ता से स्थिर रहने के कारण ही अर्थात उसके ‘सत्’ पर ही टिकी है। ‘तत्’ अर्थात इन प्रयोजनों को लेकर किया गया कर्म भी ‘सत्’ कहलाता है।
असत्य  क्या है
अश्रद्घा से जो यज्ञ किया जाता है, जो दान अश्रद्घा से दिया जाता है, जो तप अश्रद्घा से किया जाता है, हे पार्थ! वह असत्य  कहा जाता है, तत् वह न मरने पर लाभ देता है और न ही यहां जीते जी कोई लाभ पहुंचाता है।
विनोबा जी कहते हैं कि सृष्टि से हम रोज काम लेते हैं। जहां हम रहते हैं उसे हम दूषित करते रहते हैं। हवा से हम सांस लेते हैं, परन्तु फेफड़ों में भरकर उसे बाहर फेंकते हैं। कुएं से पानी भरते हैं, परन्तु कुएं के आसपास कीचड़ कर देते हैं। सृष्टि को जो हम रोज-रोज खराब करते रहते हैं, उस क्षति को पूरा कर देना यज्ञ कहलाता है।
मां-बाप, गुरू, मित्र ये सब हमारे लिए मेहनत करते हैं। समाज का हमारे ऊपर जो ऋण चढ़ता जाता है-उसे चुकाने के लिए दान की व्यवस्था की गयी है। दान का अर्थ परोपकार नहीं, दान का अर्थ समाज का ऋण चुकाने का प्रयोग है।
समाज से मैंने अपार सेवा ली है। जब मैं संसार में आया तो दुर्बल और असहाय था। इस समाज ने मुझे छोटे से बड़ा किया, इसलिए मुझे समाज की सेवा करनी चाहिए। परोपकार कहते हैं दूसरे से कुछ न लेकर की हुई सेवा को, परन्तु यहां तो हम समाज से पहले ही भरपूर ले चुके हैं। समाज के इस ऋण से मुक्त होने के लिए जो सेवा की जाए-वही दान कहलाता है।
शरीर को भी हम दिनों दिन क्षीण करते रहते हैं। मन, बुद्घि, इन्द्रियों से काम लेेते हैं, इनमें विकार उत्पन्न करते रहते हैं। शरीर के विकारों की शुद्घि का साधन है-तप।

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