“सभी मत-मतान्तरों का ईश्वर एक है और उसके विधान सबके लिये एक समान हैं”

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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

सृष्टि के आरम्भ से लेकर महाभारत युद्ध तक व उसके बाद कई शताब्दियों तक सारे विश्व में ईश्वर व उसके विधान
को जानने के लिए वेद ही पूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थ थे। इसका कारण यह है कि ईश्वर ने
ही सृष्टि के आरम्भ में वेदों का ज्ञान दिया है जिसमें सभी सत्य विद्याओं का
सूत्ररूप में उल्लेख है। वेदों के आधार पर ही ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप सहित
संसार के सभी पदार्थों के गुणों व स्वरूप आदि तथा मनुष्यों के कर्तव्यों व अकर्तव्यों
को जाना जाता है। वेदाध्ययन करने से अध्येता को ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा
उपासना की प्रेरणा मिलती है। ईश्वर की उपासना करने वाले मनुष्यों को योगी,
ध्यानी, मनस्वी, चिन्तक, विचारक, भक्त तथा स्तोता आदि अनेक नामों से
पुकारा जाता है। ईश्वर के वह उपासक जो संस्कृत व वेद विद्या में निपुण होते हैं
और साधना के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफल होते हैं, ऐसे उच्च कोटि
के तत्ववेत्ता विद्वानों को ही ऋषि कहा जाता है। ऋषियों की कठोर साधना व तप के कारण उन पर ईश्वर की महती कृपा होती
है जिसके परिणामस्वरूप वह ईश्वर व सृष्टि को यथार्थ व तात्विक रूप में जानते हैं। ऐसे ऋषि कोटि के विद्वानों द्वारा जो
ग्रन्थ लिखे जाते हैं वह सत्य की कसौटी पर खरे होते हैं। ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि ऋषियों की भी वही बातें माननीय होती
हैं जो पूर्णतः वेदानुकूल हैं। वेद विरुद्ध वचन व मत त्याज्य कोटि के होते हैं। सत्य वह होता है जो तर्क व युक्ति से भी सिद्ध
होता है। अतः वेद स्वतः प्रमाण हैं और उसके बाद ऋषियों व विद्वानों की बातें व कथन तभी सत्य व प्रामाणित होते हैं जबकि
वह वेदानुकूल हों। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि आदि अनेक ग्रन्थों का प्रणयन
किया है। उन पर भी यह नियम लागू होते हैं कि उनकी वही बातें सत्य स्वीकार की जा सकती हैं कि जो वेदों के सर्वथा वा पूर्णतः
अनुकूल हों। परीक्षा करने पर यह पाया गया है कि ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थों की सभी बातें वेदों के पूर्णतः अनुकूल हैं एवं
सत्य व प्रमाण कोटि में आती हैं।
इस संसार की रचना पर ध्यान दें तो ज्ञात होता है कि यह एक सार्वभौमिक चेतन, आनन्दस्वरूप, निराकार,
सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सृष्टि निर्माण का पूर्व अनुभव रखने वाली सत्ता से बना है। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने
अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को चार वेदों का ज्ञान दिया था जिससे मनुष्यों का
पूरी सृष्टि काल में कर्तव्य व अकर्तव्य सहित उपासना आदि कार्यों का मार्गदर्शन हो और वह सद्कर्मों को करके धर्म, अर्थ,
काम व मोक्ष को प्राप्त हों। वेदों में यह कहा गया है कि ईश्वर एक है, वह दो, तीन, चार व अधिक नहीं हैं। ईश्वर केवल एक है।
यह सिद्धान्त सर्वथा सत्य है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि एक ईश्वर का विधान भी एक ही होगा। उसके नियम सब मनुष्यों
व प्राणियों के लिये समान होंगे। सर्वव्यापक व न्यायकारी होने के कारण वह किसी के प्रति किंचित पक्षपात नहीं कर सकता।
मनुष्य अपने अज्ञान व अन्य कारणों से चाहे कितने भी मत व सम्प्रदाय बना लें व उनके लिये नियम निर्धारित कर लें, मनुष्य
व उसके अग्रणीय पुरुषों द्वारा बनाये गये वह नियम ईश्वर के लिये मान्य व स्वीकार्य नहीं हो सकते। ईश्वर के अपने नियम हैं
जो अनादि काल से अनन्त काल तक अपरिवर्तनीय रहते हैं। मनुष्य समझे या न समझे और अज्ञान व स्वार्थवश कुछ भी कहे
व प्रचार करे, ईश्वर के नियम स्थिर व सार्वकालिक रहते हैं। विचार करने पर परमात्मा के अपने नियम वेदों में दिये गये सभी
नियम व शिक्षायें हैं जिनमें किसी के प्रति किंचित पक्षपात नहीं है। जो मनुष्य व मत-सम्प्रदाय उन नियमों का पालन करते है,
उन्हें ईश्वर से सुख व सांसारिक अभ्युदय सहित मृत्यु होने पर मोक्ष का लाभ मिलता है। हम संसार में देखते हैं कि विभिन्न
मतों के लोगों में आपस में क्रीड़ा व अन्य प्रतिस्पर्धायें होती हैं। कभी एक मत का व्यक्ति विजयी होता है तो कभी दूसरे मत का।

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इससे यह अनुमान लगता है कि जो व्यक्ति अधिक पुरुषार्थ करता है व जिसमें बुद्धि, ज्ञान व बल अधिक होता है उसकी
विजय होती है। यदि एक से अधिक ईश्वर व शक्तियां होती हैं तो वह अपने-अपने अनुयायी की पराजय क्योंकर होने देती?
ईश्वर एक है और वह सबका है, सब मनुष्यों, सब समुदायों एवं सब मतानुयायियों का है, इसलिये वह सबके साथ न्याय करता
हुआ दिखाई देता है।
हम समझते हैं कि यदि मत-मतान्तरों के लोगों ने इस व्यवहारिक स्थिति को समझ लिया होता तो फिर वह अपने-
अपने मत की प्रशंसा व दूसरों से श्रेष्ठता को प्रदर्शित नहीं करते। विचार व चिन्तन करने से संसार में केवल एक ईश्वर का होना
सिद्ध होता है तथा सब मनुष्य एवं इतर प्राणी उसी की प्रजा सिद्ध होते हैं। उस परमात्मा का एक ही विधान है जो कि वेद
सिद्ध होता है। ऋषि दयानन्द और आर्य विद्वानों ने वेदों के ईश्वरीय ज्ञान होने और वेद ही सब मनुष्यों के लिए ईश्वर का
विधान होने के पक्ष में अनेक प्रमाण, तर्क एवं युक्तियां दी हैं। ईश्वर का विधान वेद सर्वथा सत्य है, इस कारण सभी निष्पक्ष व
बुद्धिमान लोगों को वेदों का ही अनुसरण करना चाहिये। ऐसा करने से ही उनका कल्याण होगा। हम यह भी समझते हैं कि जो
मनुष्य ईश्वर के ज्ञान व विधान वेदों को स्वीकार कर उसके अनुसार आचरण नहीं करते वह अपनी और अपने अनुयायियों की
हानि करते हैं। किसी प्रकार से उनका वर्तमान जीवन तो व्यतीत हो जायेगा परन्तु मृत्यु के बाद उनकी अनादि व अविनाशी
आत्मा को किन-किन दुःखों व जटिल परिस्थितियों से होकर गुजरना होगा, इसका विचार वह नहीं कर सकते और न ही उनके
मत की मान्यताओं से उन्हें इन विषयों पर विचार करने की वैदिक ऋषियों व विद्वानों के समान बौद्धिक क्षमता ही प्राप्त
होती है। वैदिक मत में ऋषियों ने जीवन और कर्म-फल सिद्धान्त पर अनेक निर्देश दिये हैं। विद्वानों ने कर्म-फल सिद्धान्त
पर वेदों के सिद्धान्तों को दृष्टिगत कर विचार भी किया है जिससे हमारी आत्मा की मृत्यु के बाद गति पर प्रकाश पड़ता है।
हमारे इस जन्म के शुभ कर्मों का परिणाम सुखद और अशुभ व पाप कर्मों का परिणाम दुःखद होगा, यह विदित होता है। वेदों के
सभी सिद्धान्त तर्क एवं युक्तियां से सत्य सिद्ध होते हैं। इस कारण भी संसार के सभी मनुष्यों को वैदिक सिद्धान्त ही मानने
चाहियें। यह भी सुविदित है कि संसार के सभी मत-मतान्तरों को मानने वाले लोगों के पूर्वज वेदों को मानने वाले तथा आर्य कहे
जाने वाले लोग थे। इसका कारण यह है कि मनुष्यों की आदि वा प्रथम सृष्टि तिब्बत में हुई थी। सृष्टि के आरम्भ में ही तिब्बत
से लोगों ने नीचे आकर आर्यावर्त्त को बसाया था। यहीं से लोगों का पूरे विश्व में आव्रजन व भ्रमण हुआ और संसार के सभी
स्थानों पर जाकर लोगों ने निवास किया व वहां बस गये। जिन स्थानों पर जाकर लोग बसे वहां की जनसंख्या में वृद्धि होती
गई और बाद में नाना नाम वाले देश बन गये। वर्तमान के सभी लोग तिब्बत में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न और बाद में संसार में
फैले आर्य लोगों की सन्ततियां हैं। अपने पूर्वजों के सत्य धर्म, विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों को मानना हमारा व सभी
वशजों का कर्तव्य होता है। अतः विश्व के लोगों को सत्यार्थप्रकाश पढ़कर सत्य को जानना चाहिये और असत्य को छोड़कर
सत्य को स्वीकार करना चाहिये। इसी में मानवता का और प्रत्येक मनुष्य का हित है।
हम लोग किसी मत, सम्प्रदाय व विचारधारा को क्यों न मानें, परन्तु हमें सत्य मान्यताओं का ज्ञान अवश्य होना
चाहिये। सत्य यही है कि सृष्टि में केवल एक ही ईश्वर जिसका स्वरूप सत्य-चित्त-आनन्द स्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ,
सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, अजर,
अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। वह सभी जीवों को उनके पूर्वजन्मों व वर्तमान जन्म के कर्मों का फल प्रदाता,
कर्मानुसार जन्म-मृत्यु व सुख-दुःख देने वाला है। सृष्टि को बनाकर वह अमैथुनी सृष्टि में मनुष्यादि सभी प्राणियों को उत्पन्न
करता है और मनुष्यों को मार्गदर्शन व जीवनयापन के लिये अपना सत्य विद्याओं का ज्ञान वेद देता है। पशु-पक्षियों आदि
सभी प्राणियों को परमात्मा ने स्वाभाविक ज्ञान दिया है जिससे वह अपना जीवन निर्वाह करते हुए अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का
फल भोगते हैं। इस प्रकार से सृष्टि चल रही है व इसी प्रकार चलती रहेगी। जो मनुष्य जैसा कर्म करेगा उसको उसी के अनुसार
सुख व दुःख की प्राप्ति एकमात्र परमात्मा से होगी। मत-मतानतरों के लिये परमात्मा के नियम अलग-अलग न होकर एक ही
है। ईश्वर पक्षपातरहित होकर न्याय करता है। यदि एक मत के व्यक्ति ने किसी मनुष्य व प्राणी की हत्या आदि का अपराध

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किया तो इस प्रकार के अपराध के लिये ईश्वर का न्याय सभी मतों के लोगों वा अपराधियों के लिये समान होगा, उसमें
न्यूनाधिक नहीं होगा। किसी मत का धर्मगुरु व आचार्य अपने मत के अनुयायियों को ईश्वर के दण्ड से बचा किंचित नहीं
सकता। ईश्वर के समक्ष किसी धर्मगुरु, मृत व जीवित, की सिफारिश नहीं चलती। यदि कोई इसके विपरीत दावा करता है तो
वह दावा सत्य नहीं होगा। ईश्वर का दण्ड विधान शत-प्रतिशत मनुष्यों के लिए एक ही है। ईश्वर का न्याय कदापि किसी
व्यक्ति के मत व सम्प्रदाय को देखकर नहीं होगा। यदि कोई ऐसा समझता है तो वह घोर अविद्या से ग्रस्त है। वह अपने दावे
को प्रमाणित नहीं कर सकता। अतः हमें अपने इस जन्म के सुखों सहित अपने पुनर्जन्म वा परजन्म के सुखों को भी महत्व
देना चाहिये। इसके पीछे वही भावना होनी चाहिये जो वर्तमान में किसी व्यक्ति द्वारा अपने भावी बुरे समय को ध्यान में
रखकर धन सम्पत्ति के संचय के पीछे होती है। हम यदि इस जन्म में ईश्वर की उपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ, माता-पिता-आचार्य
तथा विद्वान अतिथियों की सेवा करेंगे, पशु व पक्षियों को मित्र की दृष्टि से देखेंगे और उनके प्रति सदभाव रखेंगे तो हमें
संचित धन की तरह अगले जन्म में न केवल अच्छी योनि की प्राप्ति होगी अपितु हम वहां भी सुखों व उन्नति को प्राप्त होंगे।
ऐसा न करके हमें दुःखों की प्राप्ति होगी। यह चेतावनी वैदिक साहित्य को पढ़कर मिलती है। इसका प्रचार करना वैदिक आर्य
विद्वानों का कर्तव्य है। ऋषि दयानन्द ओर हमारे ऋषियों ने भी यही कार्य किया था। हमने भी उनका अनुसरण किया है।
ओ३म् शान्ति।

-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121

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