भारत की राजनीति में गहमा गहमी मची हुई है. किसी को आने वाले मौसम की मार से निपटने की चिंता नहीं है. प्राकृतिक आपदाओं में हर वर्ष हजारों जानें चली जाती हैं लेकिन हमारे नेताओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बाढ़, तूफ़ान, गर्मी, सुनामी, भूकंप, फ्लू, डेंगू और बुखार से हर वर्ष लोग मरते रहते हैं यह एक सामान्य घटना भर होती है. लोग पहले घोटाले करने में व्यस्त रहते हैं फिर एक दूसरे की पोल खोलने में. सवाल यह है कि क्या भारत प्राकृतिक आपदाओं से निपटने और अपने नागरिकों को सुरक्षा मुहैया करवाने में पूरी तरह सक्षम है? इस वर्ष मार्च के महीने में बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि के कारण उत्तरी भारत में कई राज्यों के किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। उत्तराखंड में 2013 में हुई भीषण बारिश और भूस्खलन के कारण मची तबाही ने एक बार फिर से आपदा प्रबंधन को लेकर बड़े सवाल खड़े कर दिए हैं. राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग के अधिकारियों ने स्वीकार किया कि इतनी बड़ी आपदा से निपटने के लिए तुरंत उपाय करने में चूक हो गई. राहत पहुँचाने वाले विभागों में आपसी तालमेल की कमी के उदाहरण सामने आए. शुरुआती कई दिनों तक तो अधिकारियों को तबाही की व्यापकता का अंदाज़ा ही नहीं था. उत्तराखंड में बारिश फिर शुरू हो चुकी है और मजेदार बात यह है कि गुजरे वित्तीय वर्ष 2014-15 में राज्य आपदा प्रबंधन महकमा बजट खर्च में सबसे पीछे रहा है. महकमे ने 1556.95 करोड़ बजट प्रावधान की धनराशि में से महज 2.31 करोड़ यानी एक फीसद से कम 0.54 फीसद बजट का इस्तेमाल किया। वहींं मुंबई महानगर में हुई बारिश ने फिर एक बार आपदा प्रबंधन की पोल खोल दी. रेलवे लाइनों पर भारी जलभराव के कारण मुंबई शहर की जीवनरेखा कहलाने वाली उपनगरीय रेल सेवा बुरी तरह प्रभावित हुई है. इस वजह से नौकरीपेशा लोगों को समय से दफ्तर पहुंचने में खासा परेशानी उठानी पड़ी. कुछ ही दिन पहले चिलचिलाती गर्मी और लू के थपेड़ों से देश के विभिन्न भागों में करीब 2200 से अधिक लोगों की मौत हो गई। जिसमें आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में करीब 1800 लोगों की मौत हुई थी. नेपाल में आए भूकंप ने नेपाल में तो तबाही मचाई ही भारत के निकटवर्ती राज्य बिहार और बंगाल भी उसकी चपेट में आ गये.
एक दिलचस्प वाकया है सवा सौ साल पुराना। उत्तराखंड के चमोली ज़िले में अलकनंदा नदी की एक सहायक नदी है विरही गंगा। सवा सौ साल पहले जुलाई 1893 में इस नदी में क़रीब की एक पहाड़ी टूटकर जा गिरी। बरसात के दिन थे और इस भूस्खलन ने तेज़ रफ़्तार से बहती नदी का रास्ता रोक दिया। ये घटना जैसे ही क़रीब के ग्रामीणों ने अंग्रेज़ अधिकारियों को दी तो वो हरकत में आ गए। क़रीब पौने दो सौ किलोमीटर दूर हरिद्वार के रायवाला में सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर लेफ्टिनेंट कर्नल पुलफोर्ड ने फौरन अपने इंजीनियर को मौके पर भेजा। स्थिति का जायज़ा लेने के बाद ये अनुमान लगाया गया कि इस झील को भरने में एक साल लग सकता है, लेकिन उसके बाद अगर झील फटी तो भयानक नतीजे हो सकते हैं। इस झील को गौना ताल नाम दिया गया। ले. कर्नल पुलफोर्ड ने अपने स्टाफ़ के तकनीशियनों को झील पर ही तैनात कर दिया। इस झील से नीचे रायवाला तक पौने दो सौ किलोमीटर लंबी टेलीग्राफ़ की लाइन बिछाई गई। वो टेलीग्राफ़ यानी तार जो पिछले साल दम तोड़ चुका है। इस टेलीग्राफ़ लाइन के तारों को पहाड़ों के जंगलों में पेड़ों पर ठोक-ठोक कर लगाया गया। लगातार झील की मॉनीटरिंग चलती रही। इस बीच झील तीन किलोमीटर लंबी हो गई। अंग्रेज़ों ने पास ही एक गेस्ट हाउस बना दिया, जहां से पूरी झील का नज़ारा दिखता था. झील में बोटिंग और फिशिंग भी शुरू हो गई. ये झील भूवैज्ञानिकों के लिए भी कुतूहल का विषय रही। उस दौर के सबसे बड़े अंग्रेज़ भूवैज्ञानिक हालात का जायज़ा लेने पहुंचे। साल भर बाद 15 अगस्त, 1894 के आसपास इस झील के फटने का अनुमान लगाया गया। समय रहते ही अंग्रेज़ों ने निचले इलाके से लोगों को हटाना शुरू कर दिया। लोगों को सुरक्षित जगहों पर भेज दिया गया. रास्ते में अलकनंदा नदी पर बने कुछ पुल हटा दिए गए। भारी बरसात के बीच 27 अगस्त 1894 को ये बड़ी झील फूटी और वो चमोली, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर में तबाही मचाती हुई ऋषिकेश, हरिद्वार की ओर बढ़ी। रुड़की तक अपर गंगा कैनाल सिल्ट से भर गई। इस तबाही को कोई नहीं रोक सकता था, लेकिन ख़ास बात ये रही कि इस तबाही में एक भी इंसान की मौत नहीं हुई। 85 साल बाद 1970 में यही झील जब दोबारा फूटी तो जनधन की भारी तबाही हुई. तो साफ़ हो जाता है कि सवा सौ साल पहले 1894 में अंग्रेज़ों के दौर में हुई वो कवायद अपने आप में आपदा प्रबंधन की कितनी बड़ी औऱ ऐतिहासिक मिसाल है. देश-विदेश के भूवैज्ञानिक और आपदा प्रबंधन गुरु आज भी उस प्रयास को बड़े ही सम्मान के साथ याद करते हैं, लेकिन हमारी सरकारों के लिए ये घटना फाइलों में दबा एक उल्लेख भर मात्र है, जिसकी धूल झाड़कर उससे सबक लेने की सुध किसी को नहीं है.