हिन्दी मेरी संगिनी

डा. मीरा सिंह

हिन्दी भाषी प्रदेश में जन्म होने के कारण हिन्दी जन्म से ही मेरी
संगिनी रही है । जब मैंने जन्म लिया, संसार में आते ही मैंने रोना शुरू
कर दिया | मेरे रोने की आवाज को रोकने के लिए मेरे स्वजनों का जो
पहला प्यार भरा शब्द सबसे पहले मेरे कानों में सुनाई दिया. वह सरस
व सरल भाषा हिन्दी का था । ‘चुप- चुप, चुप हो जा बेटा!’ इस मधुर
शब्द को सुनकर मैंने रोना बन्द कर दिया. मेरे समझ में आ गया कि
मन की शान्ति होने पर रोना बंद हो जाता. जब रोना बंद हो जाता है.
तो परम आनन्द की प्राप्ति होती है. कहने का अभिप्राय यह है कि जब
व्यक्ति एक दूसरे की भावनाओं को समझने लगते हैं तो उसका क्रोध
शांत हो जाता है अर्थात् वह क्रोध पर विजय पा लेता है.
यह पढ़कर आप को शायद मज़ाक की बात लगेगी लेकिन न केवल मैं
बल्कि आप के साथ भी सच में यही हुआ है । आप ने ध्यान नहीं दिया
होगा इसलिए उसके महत्त्व को भुलते जा रहें हैं ।
यह सच है कि नवजात शिशु को बोलने नहीं आता है लेकिन यह भी
सच है कि सबसे पहले बच्चा रोता है और माँ के सानिध्य में रहकर वह
सुख का अनुभव करता है. भारत में माँ का महत्व सर्वोपरी है. आदिकाल
से आजतक अपने सुशील – सरल, कोमल व अर्पणमयी भावना के कारण
सदा माँ पूजनीय हर एक जीव के लिए रही है.

हिन्दी को मातृभाषा का दर्जा देने का भी यही कारण है कि वे सरल
गति से हिन्दुस्तान के हर एक प्रान्त की भाषाओं को आत्मसात कर
सबको एकता की डोर में पिरोकर सभी हिन्दुस्तानियों के विचारों के
आदान – प्रदान का सहज साधन बनी है. हिंदी भाषा हम भारतीयों की
पहचान है.
जिस हिंदी ने परतंत्र भारतीयों के जन – जन को जोडकर भारतीओं को
स्वतंत्रता का ताज दिलवाया, परतंत्रता से जकड़े सभी भारतीयों की
आवाज बनी. हमारी पहचान बनी. आज वह हमारे द्वारा ही तिरस्कृत
हो रही है .हिन्दी भाषा की अवहेलना कर हम भारतवासी अपनी पहचान
भूलते जा रहे हैं . विदेशी भाषा के प्रति अपनी रूझान दिखाकर
गौरान्वित हो रहे हैं. इस स्थिति को देखकर मन की आह इन पंक्तियों
में प्रस्फुटित हो उठती है-

अगर देश में इस तरह राजभाषा का अपमान हो,
तो १०० साल? इसके बाद भी न जन कल्याण हो.
इसलिए विनय है , आज सभी बुद्धिजीवी से ,
आगे आए और गहे , हिन्दी को घर कर ।

आज यह समस्या विकराल मुख फैलाकर हमारे सामने दिखाई दे रही है
आज इसके अस्तित्व को बचाने की नितान्त आवश्यकता है. ऐसा नहीं
होने पर यह हमारे भारतीयता के अस्तित्व को ही खा जाएगी और हम
पहचान विहिन रह जाएँगे. आज हम अपनी पोशाक और अपनी वाक्
दोनों ही दफनाने की तैयारी कर रहे हैं.

देखो ! चीर लूट रहा ,
अब तो चौराहे पर ।
हिन्दी बनी लाचार ,
बड़ी यह विवशता है ?

भारतीय सपूत ! क्यों ,
सो रहे गहरी नींद ?
उठो , बचाओ, देखो ,
देश लूटा जाता है ।

बचपन से ही हिन्दी मेरी संगिनी रही है . मुझे याद है कि जब मेरी
पहली शिक्षा शुरू हुई और घेली हुई पटरी पर सफेद दुधिया के दवात में
कलम डिबो कर हिन्दी लिखती थी और उस धवल अक्षरों को बड़े प्यार
से मैं माँ को दिखाती थी तो उसे देखकर माँ कितनी खुश होती थीं .
इस तरह दसवीं ,बारहवीं , स्नातक ,स्नातकोत्तर और फिर पीएच डी.
तक हिंदी मेरी सबसे श्रेष्ठ संगिनी के रूप में मुझे ज्ञान के उच्च शिखर
पर पहुँचने में जो योगदान दिया है वह अकथनीय है . मेरे मन में बसी
हिंदी की पावन निर्झरी से सब के ह्रृदय को सींचने की प्रबल इच्छा
होती रही है ,चाहे वे उत्त्तर भारत हो , दक्षिण भारत या अमेरिका जैसे
अंग्रेजी भाषीय राष्ट्र .

भारत का दक्षिण भाग जहां लोग हिन्दुस्तानी कहलाने का दम्भ तो भरते
है लेकिन परहेज हिंदी से करते हैं .यही कारण है कि वहां के लोग हिंदी
जानने के लिए तड़पते है .

मैं अपने बेटे के पास बंगलौर में रह रही थी शाम के समय जब सभी
लोग नीचे उद्यान के पास इकट्ठे होकर हिंदी में बातें करते . अपने
सुख – दुख बाँट कर आनन्द का अनुभव करते, उस समय कुछ अ हिंदी
भाषीय भारतीय महिलाएं हिंदी भाषा ठीक से समझ नहीं पाती . अपने
विचारों को न प्रकट करने के कारण बहुत ही उदासीन नजर आ रही थीं
. मूक दर्शक बनी उनकी अवस्था पर तरस आ रही थी .उनकी लाचारी
साफ – साफ झलक रही थी . उनकी मनोदशा को देखकर मेरा मन, मन
ही मन उन्हें हिंदी सिखाने के लिए निश्चय कर लिया . मैंने उनसे कहा,
“मैं आप लोगों को एक माह के अंदर ही हिंदी बोलना सीखा दूंगी .
केवल आप को अपना खाली समय देना होगा .”
यह सुनकर सभी का मन हर्षित हो उठा .वे आश्चर्य भरी दृष्टि से
मेरी ओर देखने लगी . मैंने आँखों से आँखें मिलाते हुए कहा –
“अगर आप लोग पूर्ण सहयोग देगी तो आप बहुत ही जल्दी हिंदी बोलना
व लिखना सीख जाएँगी . इसमें दो राय नहीं है .”
मेरी बातों को सुनकर सभी बहुत उत्साहित हुईं . मैंने उनसे पुनः कहा-
“अगर सीखने वाले में ललक हो तो वह कुछ भी बहुत जल्दी सीख जाते
है .”
यह सुनकर सब का चेहरा खिल उठा .उन लोगों ने एक साथ मिलकर
कहा ,

“आंटी कल से हम सभी आप के घर हिंदी सीखने आएंगे . कब आए
आप समय बता दीजिए .”
उनकी इस बात को सुनकर मैंने कहा –
“मैं तो खाली रहती हूँ .आप लोगों को जब समय मिले एक पेन ,एक
पेंसिल और एक नोटबुक लेकर आ जाइएगा .”
यह सुनकर ३५ से ४० वर्ष के उम्र की स्त्रियों का एक समूह दूसरे दिन
से खाली समय में मेरे घर आने के लिए हामी भर दी .उनकी हामी
भरने से मुझे सुखद अनुभूति हुई .
उन्हें तमिल , तेलुगु , कन्नड़ के अलावा अंग्रेजी का व्याकरण आता था
.दूसरी बात मैं भी अध्यापिका और तीसरी हिंदी मेरी प्रिय संगिनी .
इसलिए छोटे – छोटे वाक्यों द्वारा उन्हें हिंदी सिखाने व सीखने में कोई
असुविधा नहीं हुई .
मैंने उन्हें उनके बच्चों की प्राथमिक शिक्षा की किताबों का सहारा लेकर
उनको हिंदी के सरल शब्दों से अवगत कराया . पुन: उनका वाक्यों में
प्रयोग करवा कर उन्हें वाक्य बनाने व बोलने का अभ्यास करवाया .
शुरू में बोलने में उन्हें थोड़ी असुविधा हुई लेकिन बाद में वे धीरे – धीरे
हिंदी बोलने के अभ्यस्त हो गईं . मैं जब तक वहां रही वे और उनके
बच्चे लगातार हिंदी सीखने आते रहे . मैं उन्हें उनके बच्चों की किताबें
पढ़ने की सलाह देती .वे मेरे कथनानुसार किताब पढ़कर आती ,जो
समझ में नहीं आता उन्हें वे लिखकर लाती और मैं उसे अन्य भाषा का
सहारा लेकर उन्हें समझाती . उनके उच्चारण की अशुद्धियों को वर्ण

उच्चारण संबंधी ज्ञान देकर उनका उच्चारण शुद्ध करने में सहयोग कर
संगिनी हिंदी की महत्ता को गरिमामय बनाती .
मैं वहां से कुछ दिनों के लिए अमेरिका अपनी बेटी के यहाँ फिलाडे
ल्फिया चली आई . वहां अपने बच्चों को हिंदी सिखाने के इच्छुक लोगों
को पता चल गया कि हिंदी मेरी संगिनी है .
“मैं हिंदी की अध्यापिका हूँ. हिंदी में पीएच डी हूँ .” यह जानकर उन्हें
बहुत ख़ुशी हुई.”
आज देश में बसे लोग जहाँ हिंदी की जगह अंग्रेजी का प्रयोग कर
ज्ञानवान बनने का खोटा ढ़ोंग रचते हैं वहीं अमेरिका में बसे
हिंदुस्तानियों को अपनी भाषा की महत्ता समझ में आ गई है . वे जान
गए हैं कि बिना हिंदी के ज्ञान के वे अपने सभ्यता व संस्कृति को अपने
बच्चों में हस्तांतरण नहीं कर पाएंगे .हिन्दी मेरी संगिनी

हिन्दी भाषी प्रदेश में जन्म होने के कारण हिन्दी जन्म से ही मेरी
संगिनी रही है । जब मैंने जन्म लिया, संसार में आते ही मैंने रोना शुरू
कर दिया | मेरे रोने की आवाज को रोकने के लिए मेरे स्वजनों का जो
पहला प्यार भरा शब्द सबसे पहले मेरे कानों में सुनाई दिया. वह सरस
व सरल भाषा हिन्दी का था । ‘चुप- चुप, चुप हो जा बेटा!’ इस मधुर
शब्द को सुनकर मैंने रोना बन्द कर दिया. मेरे समझ में आ गया कि
मन की शान्ति होने पर रोना बंद हो जाता. जब रोना बंद हो जाता है.
तो परम आनन्द की प्राप्ति होती है. कहने का अभिप्राय यह है कि जब
व्यक्ति एक दूसरे की भावनाओं को समझने लगते हैं तो उसका क्रोध
शांत हो जाता है अर्थात् वह क्रोध पर विजय पा लेता है.
यह पढ़कर आप को शायद मज़ाक की बात लगेगी लेकिन न केवल मैं
बल्कि आप के साथ भी सच में यही हुआ है । आप ने ध्यान नहीं दिया
होगा इसलिए उसके महत्त्व को भुलते जा रहें हैं ।
यह सच है कि नवजात शिशु को बोलने नहीं आता है लेकिन यह भी
सच है कि सबसे पहले बच्चा रोता है और माँ के सानिध्य में रहकर वह
सुख का अनुभव करता है. भारत में माँ का महत्व सर्वोपरी है. आदिकाल
से आजतक अपने सुशील – सरल, कोमल व अर्पणमयी भावना के कारण
सदा माँ पूजनीय हर एक जीव के लिए रही है.

हिन्दी को मातृभाषा का दर्जा देने का भी यही कारण है कि वे सरल
गति से हिन्दुस्तान के हर एक प्रान्त की भाषाओं को आत्मसात कर
सबको एकता की डोर में पिरोकर सभी हिन्दुस्तानियों के विचारों के
आदान – प्रदान का सहज साधन बनी है. हिंदी भाषा हम भारतीयों की
पहचान है.
जिस हिंदी ने परतंत्र भारतीयों के जन – जन को जोडकर भारतीओं को
स्वतंत्रता का ताज दिलवाया, परतंत्रता से जकड़े सभी भारतीयों की
आवाज बनी. हमारी पहचान बनी. आज वह हमारे द्वारा ही तिरस्कृत
हो रही है .हिन्दी भाषा की अवहेलना कर हम भारतवासी अपनी पहचान
भूलते जा रहे हैं . विदेशी भाषा के प्रति अपनी रूझान दिखाकर
गौरान्वित हो रहे हैं. इस स्थिति को देखकर मन की आह इन पंक्तियों
में प्रस्फुटित हो उठती है-

अगर देश में इस तरह राजभाषा का अपमान हो,
तो १०० साल? इसके बाद भी न जन कल्याण हो.
इसलिए विनय है , आज सभी बुद्धिजीवी से ,
आगे आए और गहे , हिन्दी को घर कर ।

आज यह समस्या विकराल मुख फैलाकर हमारे सामने दिखाई दे रही है
आज इसके अस्तित्व को बचाने की नितान्त आवश्यकता है. ऐसा नहीं
होने पर यह हमारे भारतीयता के अस्तित्व को ही खा जाएगी और हम
पहचान विहिन रह जाएँगे. आज हम अपनी पोशाक और अपनी वाक्
दोनों ही दफनाने की तैयारी कर रहे हैं.

देखो ! चीर लूट रहा ,
अब तो चौराहे पर ।
हिन्दी बनी लाचार ,
बड़ी यह विवशता है ?

भारतीय सपूत ! क्यों ,
सो रहे गहरी नींद ?
उठो , बचाओ, देखो ,
देश लूटा जाता है ।

बचपन से ही हिन्दी मेरी संगिनी रही है . मुझे याद है कि जब मेरी
पहली शिक्षा शुरू हुई और घेली हुई पटरी पर सफेद दुधिया के दवात में
कलम डिबो कर हिन्दी लिखती थी और उस धवल अक्षरों को बड़े प्यार
से मैं माँ को दिखाती थी तो उसे देखकर माँ कितनी खुश होती थीं .
इस तरह दसवीं ,बारहवीं , स्नातक ,स्नातकोत्तर और फिर पीएच डी.
तक हिंदी मेरी सबसे श्रेष्ठ संगिनी के रूप में मुझे ज्ञान के उच्च शिखर
पर पहुँचने में जो योगदान दिया है वह अकथनीय है . मेरे मन में बसी
हिंदी की पावन निर्झरी से सब के ह्रृदय को सींचने की प्रबल इच्छा
होती रही है ,चाहे वे उत्त्तर भारत हो , दक्षिण भारत या अमेरिका जैसे
अंग्रेजी भाषीय राष्ट्र .

भारत का दक्षिण भाग जहां लोग हिन्दुस्तानी कहलाने का दम्भ तो भरते
है लेकिन परहेज हिंदी से करते हैं .यही कारण है कि वहां के लोग हिंदी
जानने के लिए तड़पते है .

मैं अपने बेटे के पास बंगलौर में रह रही थी शाम के समय जब सभी
लोग नीचे उद्यान के पास इकट्ठे होकर हिंदी में बातें करते . अपने
सुख – दुख बाँट कर आनन्द का अनुभव करते, उस समय कुछ अ हिंदी
भाषीय भारतीय महिलाएं हिंदी भाषा ठीक से समझ नहीं पाती . अपने
विचारों को न प्रकट करने के कारण बहुत ही उदासीन नजर आ रही थीं
. मूक दर्शक बनी उनकी अवस्था पर तरस आ रही थी .उनकी लाचारी
साफ – साफ झलक रही थी . उनकी मनोदशा को देखकर मेरा मन, मन
ही मन उन्हें हिंदी सिखाने के लिए निश्चय कर लिया . मैंने उनसे कहा,
“मैं आप लोगों को एक माह के अंदर ही हिंदी बोलना सीखा दूंगी .
केवल आप को अपना खाली समय देना होगा .”
यह सुनकर सभी का मन हर्षित हो उठा .वे आश्चर्य भरी दृष्टि से
मेरी ओर देखने लगी . मैंने आँखों से आँखें मिलाते हुए कहा –
“अगर आप लोग पूर्ण सहयोग देगी तो आप बहुत ही जल्दी हिंदी बोलना
व लिखना सीख जाएँगी . इसमें दो राय नहीं है .”
मेरी बातों को सुनकर सभी बहुत उत्साहित हुईं . मैंने उनसे पुनः कहा-
“अगर सीखने वाले में ललक हो तो वह कुछ भी बहुत जल्दी सीख जाते
है .”
यह सुनकर सब का चेहरा खिल उठा .उन लोगों ने एक साथ मिलकर
कहा ,

“आंटी कल से हम सभी आप के घर हिंदी सीखने आएंगे . कब आए
आप समय बता दीजिए .”
उनकी इस बात को सुनकर मैंने कहा –
“मैं तो खाली रहती हूँ .आप लोगों को जब समय मिले एक पेन ,एक
पेंसिल और एक नोटबुक लेकर आ जाइएगा .”
यह सुनकर ३५ से ४० वर्ष के उम्र की स्त्रियों का एक समूह दूसरे दिन
से खाली समय में मेरे घर आने के लिए हामी भर दी .उनकी हामी
भरने से मुझे सुखद अनुभूति हुई .
उन्हें तमिल , तेलुगु , कन्नड़ के अलावा अंग्रेजी का व्याकरण आता था
.दूसरी बात मैं भी अध्यापिका और तीसरी हिंदी मेरी प्रिय संगिनी .
इसलिए छोटे – छोटे वाक्यों द्वारा उन्हें हिंदी सिखाने व सीखने में कोई
असुविधा नहीं हुई .
मैंने उन्हें उनके बच्चों की प्राथमिक शिक्षा की किताबों का सहारा लेकर
उनको हिंदी के सरल शब्दों से अवगत कराया . पुन: उनका वाक्यों में
प्रयोग करवा कर उन्हें वाक्य बनाने व बोलने का अभ्यास करवाया .
शुरू में बोलने में उन्हें थोड़ी असुविधा हुई लेकिन बाद में वे धीरे – धीरे
हिंदी बोलने के अभ्यस्त हो गईं . मैं जब तक वहां रही वे और उनके
बच्चे लगातार हिंदी सीखने आते रहे . मैं उन्हें उनके बच्चों की किताबें
पढ़ने की सलाह देती .वे मेरे कथनानुसार किताब पढ़कर आती ,जो
समझ में नहीं आता उन्हें वे लिखकर लाती और मैं उसे अन्य भाषा का
सहारा लेकर उन्हें समझाती . उनके उच्चारण की अशुद्धियों को वर्ण

उच्चारण संबंधी ज्ञान देकर उनका उच्चारण शुद्ध करने में सहयोग कर
संगिनी हिंदी की महत्ता को गरिमामय बनाती .
मैं वहां से कुछ दिनों के लिए अमेरिका अपनी बेटी के यहाँ फिलाडे
ल्फिया चली आई . वहां अपने बच्चों को हिंदी सिखाने के इच्छुक लोगों
को पता चल गया कि हिंदी मेरी संगिनी है .
“मैं हिंदी की अध्यापिका हूँ. हिंदी में पीएच डी हूँ .” यह जानकर उन्हें
बहुत ख़ुशी हुई.”
आज देश में बसे लोग जहाँ हिंदी की जगह अंग्रेजी का प्रयोग कर
ज्ञानवान बनने का खोटा ढ़ोंग रचते हैं वहीं अमेरिका में बसे
हिंदुस्तानियों को अपनी भाषा की महत्ता समझ में आ गई है . वे जान
गए हैं कि बिना हिंदी के ज्ञान के वे अपने सभ्यता व संस्कृति को अपने
बच्चों में हस्तांतरण नहीं कर पाएंगे .हिन्दी मेरी संगिनी

हिन्दी भाषी प्रदेश में जन्म होने के कारण हिन्दी जन्म से ही मेरी
संगिनी रही है । जब मैंने जन्म लिया, संसार में आते ही मैंने रोना शुरू
कर दिया | मेरे रोने की आवाज को रोकने के लिए मेरे स्वजनों का जो
पहला प्यार भरा शब्द सबसे पहले मेरे कानों में सुनाई दिया. वह सरस
व सरल भाषा हिन्दी का था । ‘चुप- चुप, चुप हो जा बेटा!’ इस मधुर
शब्द को सुनकर मैंने रोना बन्द कर दिया. मेरे समझ में आ गया कि
मन की शान्ति होने पर रोना बंद हो जाता. जब रोना बंद हो जाता है.
तो परम आनन्द की प्राप्ति होती है. कहने का अभिप्राय यह है कि जब
व्यक्ति एक दूसरे की भावनाओं को समझने लगते हैं तो उसका क्रोध
शांत हो जाता है अर्थात् वह क्रोध पर विजय पा लेता है.
यह पढ़कर आप को शायद मज़ाक की बात लगेगी लेकिन न केवल मैं
बल्कि आप के साथ भी सच में यही हुआ है । आप ने ध्यान नहीं दिया
होगा इसलिए उसके महत्त्व को भुलते जा रहें हैं ।
यह सच है कि नवजात शिशु को बोलने नहीं आता है लेकिन यह भी
सच है कि सबसे पहले बच्चा रोता है और माँ के सानिध्य में रहकर वह
सुख का अनुभव करता है. भारत में माँ का महत्व सर्वोपरी है. आदिकाल
से आजतक अपने सुशील – सरल, कोमल व अर्पणमयी भावना के कारण
सदा माँ पूजनीय हर एक जीव के लिए रही है.

हिन्दी को मातृभाषा का दर्जा देने का भी यही कारण है कि वे सरल
गति से हिन्दुस्तान के हर एक प्रान्त की भाषाओं को आत्मसात कर
सबको एकता की डोर में पिरोकर सभी हिन्दुस्तानियों के विचारों के
आदान – प्रदान का सहज साधन बनी है. हिंदी भाषा हम भारतीयों की
पहचान है.
जिस हिंदी ने परतंत्र भारतीयों के जन – जन को जोडकर भारतीओं को
स्वतंत्रता का ताज दिलवाया, परतंत्रता से जकड़े सभी भारतीयों की
आवाज बनी. हमारी पहचान बनी. आज वह हमारे द्वारा ही तिरस्कृत
हो रही है .हिन्दी भाषा की अवहेलना कर हम भारतवासी अपनी पहचान
भूलते जा रहे हैं . विदेशी भाषा के प्रति अपनी रूझान दिखाकर
गौरान्वित हो रहे हैं. इस स्थिति को देखकर मन की आह इन पंक्तियों
में प्रस्फुटित हो उठती है-

अगर देश में इस तरह राजभाषा का अपमान हो,
तो १०० साल? इसके बाद भी न जन कल्याण हो.
इसलिए विनय है , आज सभी बुद्धिजीवी से ,
आगे आए और गहे , हिन्दी को घर कर ।

आज यह समस्या विकराल मुख फैलाकर हमारे सामने दिखाई दे रही है
आज इसके अस्तित्व को बचाने की नितान्त आवश्यकता है. ऐसा नहीं
होने पर यह हमारे भारतीयता के अस्तित्व को ही खा जाएगी और हम
पहचान विहिन रह जाएँगे. आज हम अपनी पोशाक और अपनी वाक्
दोनों ही दफनाने की तैयारी कर रहे हैं.

देखो ! चीर लूट रहा ,
अब तो चौराहे पर ।
हिन्दी बनी लाचार ,
बड़ी यह विवशता है ?

भारतीय सपूत ! क्यों ,
सो रहे गहरी नींद ?
उठो , बचाओ, देखो ,
देश लूटा जाता है ।

बचपन से ही हिन्दी मेरी संगिनी रही है . मुझे याद है कि जब मेरी
पहली शिक्षा शुरू हुई और घेली हुई पटरी पर सफेद दुधिया के दवात में
कलम डिबो कर हिन्दी लिखती थी और उस धवल अक्षरों को बड़े प्यार
से मैं माँ को दिखाती थी तो उसे देखकर माँ कितनी खुश होती थीं .
इस तरह दसवीं ,बारहवीं , स्नातक ,स्नातकोत्तर और फिर पीएच डी.
तक हिंदी मेरी सबसे श्रेष्ठ संगिनी के रूप में मुझे ज्ञान के उच्च शिखर
पर पहुँचने में जो योगदान दिया है वह अकथनीय है . मेरे मन में बसी
हिंदी की पावन निर्झरी से सब के ह्रृदय को सींचने की प्रबल इच्छा
होती रही है ,चाहे वे उत्त्तर भारत हो , दक्षिण भारत या अमेरिका जैसे
अंग्रेजी भाषीय राष्ट्र .

भारत का दक्षिण भाग जहां लोग हिन्दुस्तानी कहलाने का दम्भ तो भरते
है लेकिन परहेज हिंदी से करते हैं .यही कारण है कि वहां के लोग हिंदी
जानने के लिए तड़पते है .

मैं अपने बेटे के पास बंगलौर में रह रही थी शाम के समय जब सभी
लोग नीचे उद्यान के पास इकट्ठे होकर हिंदी में बातें करते . अपने
सुख – दुख बाँट कर आनन्द का अनुभव करते, उस समय कुछ अ हिंदी
भाषीय भारतीय महिलाएं हिंदी भाषा ठीक से समझ नहीं पाती . अपने
विचारों को न प्रकट करने के कारण बहुत ही उदासीन नजर आ रही थीं
. मूक दर्शक बनी उनकी अवस्था पर तरस आ रही थी .उनकी लाचारी
साफ – साफ झलक रही थी . उनकी मनोदशा को देखकर मेरा मन, मन
ही मन उन्हें हिंदी सिखाने के लिए निश्चय कर लिया . मैंने उनसे कहा,
“मैं आप लोगों को एक माह के अंदर ही हिंदी बोलना सीखा दूंगी .
केवल आप को अपना खाली समय देना होगा .”
यह सुनकर सभी का मन हर्षित हो उठा .वे आश्चर्य भरी दृष्टि से
मेरी ओर देखने लगी . मैंने आँखों से आँखें मिलाते हुए कहा –
“अगर आप लोग पूर्ण सहयोग देगी तो आप बहुत ही जल्दी हिंदी बोलना
व लिखना सीख जाएँगी . इसमें दो राय नहीं है .”
मेरी बातों को सुनकर सभी बहुत उत्साहित हुईं . मैंने उनसे पुनः कहा-
“अगर सीखने वाले में ललक हो तो वह कुछ भी बहुत जल्दी सीख जाते
है .”
यह सुनकर सब का चेहरा खिल उठा .उन लोगों ने एक साथ मिलकर
कहा ,

“आंटी कल से हम सभी आप के घर हिंदी सीखने आएंगे . कब आए
आप समय बता दीजिए .”
उनकी इस बात को सुनकर मैंने कहा –
“मैं तो खाली रहती हूँ .आप लोगों को जब समय मिले एक पेन ,एक
पेंसिल और एक नोटबुक लेकर आ जाइएगा .”
यह सुनकर ३५ से ४० वर्ष के उम्र की स्त्रियों का एक समूह दूसरे दिन
से खाली समय में मेरे घर आने के लिए हामी भर दी .उनकी हामी
भरने से मुझे सुखद अनुभूति हुई .
उन्हें तमिल , तेलुगु , कन्नड़ के अलावा अंग्रेजी का व्याकरण आता था
.दूसरी बात मैं भी अध्यापिका और तीसरी हिंदी मेरी प्रिय संगिनी .
इसलिए छोटे – छोटे वाक्यों द्वारा उन्हें हिंदी सिखाने व सीखने में कोई
असुविधा नहीं हुई .
मैंने उन्हें उनके बच्चों की प्राथमिक शिक्षा की किताबों का सहारा लेकर
उनको हिंदी के सरल शब्दों से अवगत कराया . पुन: उनका वाक्यों में
प्रयोग करवा कर उन्हें वाक्य बनाने व बोलने का अभ्यास करवाया .
शुरू में बोलने में उन्हें थोड़ी असुविधा हुई लेकिन बाद में वे धीरे – धीरे
हिंदी बोलने के अभ्यस्त हो गईं . मैं जब तक वहां रही वे और उनके
बच्चे लगातार हिंदी सीखने आते रहे . मैं उन्हें उनके बच्चों की किताबें
पढ़ने की सलाह देती .वे मेरे कथनानुसार किताब पढ़कर आती ,जो
समझ में नहीं आता उन्हें वे लिखकर लाती और मैं उसे अन्य भाषा का
सहारा लेकर उन्हें समझाती . उनके उच्चारण की अशुद्धियों को वर्ण

उच्चारण संबंधी ज्ञान देकर उनका उच्चारण शुद्ध करने में सहयोग कर
संगिनी हिंदी की महत्ता को गरिमामय बनाती .
मैं वहां से कुछ दिनों के लिए अमेरिका अपनी बेटी के यहाँ फिलाडे
ल्फिया चली आई . वहां अपने बच्चों को हिंदी सिखाने के इच्छुक लोगों
को पता चल गया कि हिंदी मेरी संगिनी है .
“मैं हिंदी की अध्यापिका हूँ. हिंदी में पीएच डी हूँ .” यह जानकर उन्हें
बहुत ख़ुशी हुई.”
आज देश में बसे लोग जहाँ हिंदी की जगह अंग्रेजी का प्रयोग कर
ज्ञानवान बनने का खोटा ढ़ोंग रचते हैं वहीं अमेरिका में बसे
हिंदुस्तानियों को अपनी भाषा की महत्ता समझ में आ गई है . वे जान
गए हैं कि बिना हिंदी के ज्ञान के वे अपने सभ्यता व संस्कृति को अपने
बच्चों में हस्तांतरण नहीं कर पाएंगे .हिन्दी मेरी संगिनी

हिन्दी भाषी प्रदेश में जन्म होने के कारण हिन्दी जन्म से ही मेरी
संगिनी रही है । जब मैंने जन्म लिया, संसार में आते ही मैंने रोना शुरू
कर दिया | मेरे रोने की आवाज को रोकने के लिए मेरे स्वजनों का जो
पहला प्यार भरा शब्द सबसे पहले मेरे कानों में सुनाई दिया. वह सरस
व सरल भाषा हिन्दी का था । ‘चुप- चुप, चुप हो जा बेटा!’ इस मधुर
शब्द को सुनकर मैंने रोना बन्द कर दिया. मेरे समझ में आ गया कि
मन की शान्ति होने पर रोना बंद हो जाता. जब रोना बंद हो जाता है.
तो परम आनन्द की प्राप्ति होती है. कहने का अभिप्राय यह है कि जब
व्यक्ति एक दूसरे की भावनाओं को समझने लगते हैं तो उसका क्रोध
शांत हो जाता है अर्थात् वह क्रोध पर विजय पा लेता है.
यह पढ़कर आप को शायद मज़ाक की बात लगेगी लेकिन न केवल मैं
बल्कि आप के साथ भी सच में यही हुआ है । आप ने ध्यान नहीं दिया
होगा इसलिए उसके महत्त्व को भुलते जा रहें हैं ।
यह सच है कि नवजात शिशु को बोलने नहीं आता है लेकिन यह भी
सच है कि सबसे पहले बच्चा रोता है और माँ के सानिध्य में रहकर वह
सुख का अनुभव करता है. भारत में माँ का महत्व सर्वोपरी है. आदिकाल
से आजतक अपने सुशील – सरल, कोमल व अर्पणमयी भावना के कारण
सदा माँ पूजनीय हर एक जीव के लिए रही है.

हिन्दी को मातृभाषा का दर्जा देने का भी यही कारण है कि वे सरल
गति से हिन्दुस्तान के हर एक प्रान्त की भाषाओं को आत्मसात कर
सबको एकता की डोर में पिरोकर सभी हिन्दुस्तानियों के विचारों के
आदान – प्रदान का सहज साधन बनी है. हिंदी भाषा हम भारतीयों की
पहचान है.
जिस हिंदी ने परतंत्र भारतीयों के जन – जन को जोडकर भारतीओं को
स्वतंत्रता का ताज दिलवाया, परतंत्रता से जकड़े सभी भारतीयों की
आवाज बनी. हमारी पहचान बनी. आज वह हमारे द्वारा ही तिरस्कृत
हो रही है .हिन्दी भाषा की अवहेलना कर हम भारतवासी अपनी पहचान
भूलते जा रहे हैं . विदेशी भाषा के प्रति अपनी रूझान दिखाकर
गौरान्वित हो रहे हैं. इस स्थिति को देखकर मन की आह इन पंक्तियों
में प्रस्फुटित हो उठती है-

अगर देश में इस तरह राजभाषा का अपमान हो,
तो १०० साल? इसके बाद भी न जन कल्याण हो.
इसलिए विनय है , आज सभी बुद्धिजीवी से ,
आगे आए और गहे , हिन्दी को घर कर ।

आज यह समस्या विकराल मुख फैलाकर हमारे सामने दिखाई दे रही है
आज इसके अस्तित्व को बचाने की नितान्त आवश्यकता है. ऐसा नहीं
होने पर यह हमारे भारतीयता के अस्तित्व को ही खा जाएगी और हम
पहचान विहिन रह जाएँगे. आज हम अपनी पोशाक और अपनी वाक्
दोनों ही दफनाने की तैयारी कर रहे हैं.

देखो ! चीर लूट रहा ,
अब तो चौराहे पर ।
हिन्दी बनी लाचार ,
बड़ी यह विवशता है ?

भारतीय सपूत ! क्यों ,
सो रहे गहरी नींद ?
उठो , बचाओ, देखो ,
देश लूटा जाता है ।

बचपन से ही हिन्दी मेरी संगिनी रही है . मुझे याद है कि जब मेरी
पहली शिक्षा शुरू हुई और घेली हुई पटरी पर सफेद दुधिया के दवात में
कलम डिबो कर हिन्दी लिखती थी और उस धवल अक्षरों को बड़े प्यार
से मैं माँ को दिखाती थी तो उसे देखकर माँ कितनी खुश होती थीं .
इस तरह दसवीं ,बारहवीं , स्नातक ,स्नातकोत्तर और फिर पीएच डी.
तक हिंदी मेरी सबसे श्रेष्ठ संगिनी के रूप में मुझे ज्ञान के उच्च शिखर
पर पहुँचने में जो योगदान दिया है वह अकथनीय है . मेरे मन में बसी
हिंदी की पावन निर्झरी से सब के ह्रृदय को सींचने की प्रबल इच्छा
होती रही है ,चाहे वे उत्त्तर भारत हो , दक्षिण भारत या अमेरिका जैसे
अंग्रेजी भाषीय राष्ट्र .

भारत का दक्षिण भाग जहां लोग हिन्दुस्तानी कहलाने का दम्भ तो भरते
है लेकिन परहेज हिंदी से करते हैं .यही कारण है कि वहां के लोग हिंदी
जानने के लिए तड़पते है .

मैं अपने बेटे के पास बंगलौर में रह रही थी शाम के समय जब सभी
लोग नीचे उद्यान के पास इकट्ठे होकर हिंदी में बातें करते . अपने
सुख – दुख बाँट कर आनन्द का अनुभव करते, उस समय कुछ अ हिंदी
भाषीय भारतीय महिलाएं हिंदी भाषा ठीक से समझ नहीं पाती . अपने
विचारों को न प्रकट करने के कारण बहुत ही उदासीन नजर आ रही थीं
. मूक दर्शक बनी उनकी अवस्था पर तरस आ रही थी .उनकी लाचारी
साफ – साफ झलक रही थी . उनकी मनोदशा को देखकर मेरा मन, मन
ही मन उन्हें हिंदी सिखाने के लिए निश्चय कर लिया . मैंने उनसे कहा,
“मैं आप लोगों को एक माह के अंदर ही हिंदी बोलना सीखा दूंगी .
केवल आप को अपना खाली समय देना होगा .”
यह सुनकर सभी का मन हर्षित हो उठा .वे आश्चर्य भरी दृष्टि से
मेरी ओर देखने लगी . मैंने आँखों से आँखें मिलाते हुए कहा –
“अगर आप लोग पूर्ण सहयोग देगी तो आप बहुत ही जल्दी हिंदी बोलना
व लिखना सीख जाएँगी . इसमें दो राय नहीं है .”
मेरी बातों को सुनकर सभी बहुत उत्साहित हुईं . मैंने उनसे पुनः कहा-
“अगर सीखने वाले में ललक हो तो वह कुछ भी बहुत जल्दी सीख जाते
है .”
यह सुनकर सब का चेहरा खिल उठा .उन लोगों ने एक साथ मिलकर
कहा ,

“आंटी कल से हम सभी आप के घर हिंदी सीखने आएंगे . कब आए
आप समय बता दीजिए .”
उनकी इस बात को सुनकर मैंने कहा –
“मैं तो खाली रहती हूँ .आप लोगों को जब समय मिले एक पेन ,एक
पेंसिल और एक नोटबुक लेकर आ जाइएगा .”
यह सुनकर ३५ से ४० वर्ष के उम्र की स्त्रियों का एक समूह दूसरे दिन
से खाली समय में मेरे घर आने के लिए हामी भर दी .उनकी हामी
भरने से मुझे सुखद अनुभूति हुई .
उन्हें तमिल , तेलुगु , कन्नड़ के अलावा अंग्रेजी का व्याकरण आता था
.दूसरी बात मैं भी अध्यापिका और तीसरी हिंदी मेरी प्रिय संगिनी .
इसलिए छोटे – छोटे वाक्यों द्वारा उन्हें हिंदी सिखाने व सीखने में कोई
असुविधा नहीं हुई .
मैंने उन्हें उनके बच्चों की प्राथमिक शिक्षा की किताबों का सहारा लेकर
उनको हिंदी के सरल शब्दों से अवगत कराया . पुन: उनका वाक्यों में
प्रयोग करवा कर उन्हें वाक्य बनाने व बोलने का अभ्यास करवाया .
शुरू में बोलने में उन्हें थोड़ी असुविधा हुई लेकिन बाद में वे धीरे – धीरे
हिंदी बोलने के अभ्यस्त हो गईं . मैं जब तक वहां रही वे और उनके
बच्चे लगातार हिंदी सीखने आते रहे . मैं उन्हें उनके बच्चों की किताबें
पढ़ने की सलाह देती .वे मेरे कथनानुसार किताब पढ़कर आती ,जो
समझ में नहीं आता उन्हें वे लिखकर लाती और मैं उसे अन्य भाषा का
सहारा लेकर उन्हें समझाती . उनके उच्चारण की अशुद्धियों को वर्ण

उच्चारण संबंधी ज्ञान देकर उनका उच्चारण शुद्ध करने में सहयोग कर
संगिनी हिंदी की महत्ता को गरिमामय बनाती .
मैं वहां से कुछ दिनों के लिए अमेरिका अपनी बेटी के यहाँ फिलाडे
ल्फिया चली आई . वहां अपने बच्चों को हिंदी सिखाने के इच्छुक लोगों
को पता चल गया कि हिंदी मेरी संगिनी है .
“मैं हिंदी की अध्यापिका हूँ. हिंदी में पीएच डी हूँ .” यह जानकर उन्हें
बहुत ख़ुशी हुई.”
आज देश में बसे लोग जहाँ हिंदी की जगह अंग्रेजी का प्रयोग कर
ज्ञानवान बनने का खोटा ढ़ोंग रचते हैं वहीं अमेरिका में बसे
हिंदुस्तानियों को अपनी भाषा की महत्ता समझ में आ गई है . वे जान
गए हैं कि बिना हिंदी के ज्ञान के वे अपने सभ्यता व संस्कृति को अपने
बच्चों में हस्तांतरण नहीं कर पाएंगे .

अमेरिका के सियाटल के गुरुकुल में हिंदी शिक्षण लेने वाले बच्चे

श्री अजय कुमार और उनकी पत्नी रूपा तथा अन्य कई भारतीय परिवार
डा . अनीता सिंह एसोसिएट प्रोफेसर व कुर्सी बायोमेडिकल अभियांत्रिकी
विधुत विश्वविद्यालय वाइडनर यूनिवर्सिटी चेस्टर प , डा. सुषमा चौबे
प्रोफेसर एवं अन्य हिंदी प्रेमियों ने मिलकर बाकायदा न्यूयार्क हिंदी
विद्यालय जिसमें पहली कक्षा से दसवीं कक्षा के लगभग ५००० विद्यार्थी
पढ़ते हैं . उनसे सहयोग लेकर उन लोगों ने यहाँ भी अपने आपसी
सहयोग के बल पर एक स्कूल में रविवार को बच्चों को हिंदी पढ़ने के
लिए इजाजत ले रखी है .

जहाँ उन्होंने पहली से आठवीं कक्षा तक की किताबें व पर्चा उनसे
मँगवाते हैं और परीक्षा दिलवाकर बच्चों को अगली कक्षा में प्रवेश देते
हैं.
विशेष आग्रह कर मुझे उन लोगों ने हिंदी पढ़ाने के लिए कहा, उनके
इस आग्रह को अस्वीकार करने का सवाल ही कहाँ था? “हिंदी मेरी
संगिनी थी इसलिए बेझिझक मैं हिंदी सिखाने के लिए हामी भर दी .
अक्टूबर माह, कड़ाके की सर्दी, चारों ओर बर्फ और बारिश जैसे तूफानी
माहौल में भी वे आकर रविवार की सुबह मुझे स्कूल ले जाते और मैं
वहां जाकर उन्हें हिंदी सिखाती और हिंदी के महत्व पर प्रकाश डालती.
यह कार्य मुझे सर्दी में भी (आनंद ) सुखद गर्मी का अहसास दिला रहा
था क्योंकि हिंदी मेरी संगिनी थी . उसकी गरिमा का अहसास भारतीय
मूल के बच्चों को अमेरिका में कराना मेरे लिए गौरव की बात थी . मैं
पहली कक्षा के बच्चों को वर्णमाला का ज्ञान खेल – खेल में वर्णों में
उनके मन पसंद रंग भरवा कर सिखाती . वे भी बहुत लगन से रंग
भरते और आसानी से वर्णों की पहचान कर शब्द निर्माण कर बहुत खुश
होते .उनके मिश्रित उच्चारण सुनकर मन में सुखद अनुभूति होती और
मुख से हंसी फूटती पर बच्चों को बुरा न लगे इसलिए अपनी हँसी छिपा
लेती .
ये अभिभावक अपने जरूर विदेश में बस गए हैं पर इनके अन्दर
भारतीय व अपनी राजभाषा की मधुरता की चमक उन्हें आकर्षित करती
है. वे अपने बच्चों को अपनी राजभाषा व अपने संस्कृति से वंचित नहीं

करना चाहते हैं . उन्हें पता है कि अगर वे अपने बच्चों को भारतीय
संस्कृति व सभ्यता का ज्ञान नहीं कराए तो बच्चे कल अमरीकी संस्कृति
सभ्यता के रंग में रंग जाएंगे और तेरह वर्ष से ही मनमानी करने लगेंगे
. इस कच्ची उम्र में लिया गया निर्णय सही नहीं होगा .
मैं २००८ से लगभग हर वर्ष छ: माह तक वहां रहती हूँ उन लोगों के
बच्चों का मार्गदर्शन हिंदी में करती रही हूँ . इस दरमियान जब भी उन्हें
जरूरत होती है, मैं उनका सहर्ष सहयोग करती रही हूँ . ख़ुशी इस बात
की है कि ये लोग बिना वेतन यह कार्य ख़ुशी – ख़ुशी करते हैं .
उन लोगों को मेरे द्वारा रचित बाल कविता “प्रेरणा” जो नारी
अस्मिता बडौदा गुजरात द्वारा सम्मानित हो चुकी है , उन्हें बहुत
अच्छी लगी. मैंने अपनी पुस्तक की कुछ प्रतियाँ उन्हें दी जिसकी
कविताएँ बच्चों में नैतिकता की भावना जगाती हैं और हिंदी सीखने हेतु
प्रोत्साहित करती हैं .
ये लोग स्कूल में बच्चों के साथ वहाँ पन्द्रह अगस्त व छब्बीस
जनवरी जैसे राष्ट्रीय त्योहार मनाकर अमेरिका में भारत का राष्ट्रीय
ध्वज फहराते हैं .

मेरी दूसरी बेटी अमेरिका के सियटल में रहती है .वह माइक्रोसॉफ्ट में
काम करती है . भारतीयता नस – नस में समाई है . “उत्सव”
समाजसेवी सामाजिक संस्था की अध्यक्षा है . वे अकसर भारतीय
सांस्कृतिक एवं साहित्यिक कार्यक्रमों को विराट रूप में अमेरिका में
करवाती है . इन कार्यक्रमों को सार्थक बनाने के लिए वे भारत के
प्रसिद्ध रचनाकार विराट हास्य कवि श्रीमान अशोक चक्रधर जी ,को
भारत से निमंत्रित कर वहां के भारतीय युवक व बच्चों को हिंदी के
मधुर भावों से अवगत कराती ,उनमें हिंदी भाषा के प्रति रुझान की
भावना को जागृत करती है .
इतना ही नहीं नवरात्रि के समय प्रसिद्ध गरवा गायिका फागुनी पाठक
को आमंत्रित कर अमेरिका से कनाडा तक बसे भारतीयों के साथ नवरात्रि

में अद्भुत गरवा महोत्सव का आयोजन करती है जिसमें लगभग ३०००
तक भारतीय एकत्रित होकर भारतीय अध्यात्म की महानता व भारतीय
मंत्र एकता का परिचय देते हैं .वे हर एक सामाजिक ,सांस्कृतिक व
राष्ट्रीय त्योहारों को बड़े ही उत्साह के साथ मनाते हैं . कभी – कभी तो
वे अपने – अपने घरों से भोजन बनाकर लाते हैं और साथ में मिल जुल
कर खाते है. मैं भी अकसर उनके हर एक कार्यक्रम की हिस्सेदार रहती
हूँ . खाने के बाद उनके बच्चों का गायन शुरु होता हैं .छोटे – छोटे
बच्चों के मुख से इतना मधुर शास्त्रीय संगीत गायन व स्पष्ट हिंदी के
शब्द सुनकर मन को बहुत ही सकुन मिलता .
संगीत में रूचि होने के कारण एक दिन मैं बच्चों के साथ संगीत
अध्यापिका के घर गई .संगीत समाप्त होने पर उनसे मिलकर कहा कि
मैं हिंदी की अध्यापिका हूँ और हिंदी मेरी संगिनी है . वे भी दक्षिण
भारत की रहने वाली हैं . लगभग ३० वर्ष से अमेरिका में रह रहीं हैं
इसलिए मैंने उनसे कहा,” जब भी मेरी जरूरत हो मुझे आप फोन कर
सकती हैं .
दूसरे दिन किसी काम के कारण मैं नहीं जा सकी .उन्होंने मेरी नातिन
से पूछा, आप की नानी जी क्यों नहीं आईं ?मैं समझ गई कि जरूर
उन्हें हिंदी मेरी संगिनी की जरूरत होगी .इसलिए दूसरे दिन मैं उनके
घर गई उन्हें मुझे देख कर बहुत राहत मिला .दरअसल उन्हें एक देशज
हिंदी शब्द का अर्थ समझ में नहीं आ रहा था . संगीत कक्षा समाप्त
होते ही वह मेरे पास आई और बोली,” एक गाने में केवड़िया खटकाए

शब्द है जिसका मतलब समझ में नहीं आ रहा है . मैं उन्हें दरवाजे के
पास ले गई और किवाड़ की कुण्डी खटका कर उन्हें उस शब्द के भाव
को विस्तार से समझाया . वह इस शब्द के व्यापक अर्थ को जानकर
अबाक रह गईं . उन्होंने मेरी व संगिनी हिंदी की सराहना की और थेंक्यु
कहते हुए कहा “आप हरदम आया कीजिए .”
बच्चों को स्कूल से घर ले आने के लिए केस्डी नाम की एक बीस
वर्षीय अमेरिकन लडकी को काम पर रखा था . हमें हिंदी बोलते देखकर
उसे हिंदी सीखने की प्रबल इच्छा हुई .वह बच्चों की देख रेख करती और
समय निकाल कर मोबाइल की सहायता से अंग्रेजी के शब्दों को हिंदी में
परिवर्तित करके हिंदी सीखने की कोशिश कर रही थी . उसे यह पता
नहीं था कि हिंदी मेरी संगिनी है और मैं हिंदी की अध्यापिका हूँ इसलिए
वह इन्टरनेट के द्वारा कठिन परिश्रम कर हिंदी सीख रही थी .
हिंदी सीखने की उसकी ललक और परिश्रम को देख कर मेरी संगिनी
हिंदी खिलखिला उठी. उसने मेरे मन को निर्देश दिया कि उसे हिंदी
सीखने में सहयोग करो. मैं भी उसके हिंदी सीखने की ललक से अभिभूत
हो गई थी. निर्देश पाते ही मैंने कैस्डी से कहा, “कल से हम सभी एक
घंटा हिंदी सीखेंगे.” यह सुनकर वह बहुत ही खुश हुई और उछलते हुए
अपनी खुशी का इजहार करने लगी . बच्चों को वह बहुत अच्छी लगती
है इसलिए वे भी उनके साथ हिंदी सीखने के लिए समय देने लगे . इस
प्रकार हिंदी मेरी संगिनी ‘एक पंथ दो काज’ करने लगी . केस्ड़ी अब
आसानी से हिंदी सिखाने से बहुत खुश रहने लगी . मेरे बच्चों के साथ

वह भी मुझे नानी समझने लगी . मैं रोज उसे गृहकार्य देती थी और वह
पूरी निष्ठा से उसे पूरा करके लाती ,मुझे शौक से दिखाती और मगन हो
आगे का पाठ सीखने में जुट जाती . वह पढ़ी -लिखी थी .इसके अलावा
उसे बुनाई का भी बहुत शौक था .वह रोज बच्चों को कुछ पढ़ने के लिए
देकर वहीं बैठकर अलग – अलग रंग के मोफलर बनाती . वह अपने घर
पर मेरे लिए तिरंगे झंडे के ( केसरिया ,सफेद और धानी) रंग का सुन्दर
मोफलर बनाकर जब मैं भारत आ रही थी .उसने मुझे यादगार के रूप
में दिया जो भारत के प्रति ,भारत की राजभाषा के प्रति अमेरिकन के
प्यार का प्रतीक है .
अमेरिका में कवि गोष्ठी रामचरितमानस – पाठ

भारतीय मूल के लोगों में राजभाषा हिंदी के प्रति रुझान जागृत करना.

डा. मीरा सिंह
B1, 7:2 गोकुल को. सो.
से. 19A नेरूल नयी मुम्बई (महाराष्ट्र)

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