होली के हुड़दंग में, छिपा वैज्ञानिक रंग

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होली के हुड़दंग में, छिपा वैज्ञानिक रंग
संजय सक्सेना,लखनऊ
कैसो है देश निगोड़ा, सबजन होली या ब्रज होरा।
मैं जमुना जल भरन जात ही देख रूप मेरा गोरा,
मोते कहे चलो कुन्जन में, तनक तनक से छोरा परे।
आंखिन में डोरा, कैसा ये देश निगोड़ा।
होली की खुमारी वसंत पंचमी से शुरू हो जाती है और फागुन की पूर्णिमा के दिन अपने शबाब पर आने के बाद ही रूकती है। उत्तर भारत का प्रमुख त्योहार होली वैसे तो सभी जगह खुशियां बिखेरता है लेकिन कुछ जगहों की होली का अपना ही मजा और महत्व होता है। विदेशों में बसे भारतीयों तक में इसकी धूम सुनाई देती है। कहीं इसने आधुनिकता का चोला पहन लिया है तो कहीं आज भी पारम्परिक तरीके से ही यह त्योहार मनाया जाता है।राधाकृष्ण की जन्म स्थली बृज में तो आज भी होली के रंग वैसे ही हवा में उड़ते हैं जैसे सदियों पहले उड़ा करते थे। सचमुच यह देश निगोड़ा है जहां बसन्त पंचमी के आते ही होली के डांडे ग़ जाते हैं और यह होली का आयोजन फागुन पूर्णिमा तक चलता ही रहता है। दाऊजी के हुरंगे के बाद भी समूचे ब्रज मण्डल में होली का उल्लास सिर च़ कर बोलता है। यहां कि ग्वालिनें समूचे वर्ष भर जब मर्यादा, शालीनता, सभ्यता और संस्कृति के विभिन्न आयामों को संजोय हुए परम्परागत परिधान में दिखाई देती है, वहीं होली के मौके पर उनमें उल्लास, उमंग, उत्साह और ठिठोरी करने की नई भागभंगिमाएं देखने को मिलती हैं।बृज की होली का मजा लेने के लिए देशविदेश तक से पयर्टक यहां आते हैं। आने वाले दर्शनार्थी यहां होली का अलग ही रंग देखकर भौंचक्के रह जाते हैं। बरसाने की लठामार होली तो और भी देखते ही बनती है जब वहां गोपियां हुरियार ग्वालों पर लठ बरसाने से भी नहीं कतरातीं और ग्वालों की सहनशीलता का चरमोत्कर्ष जहां दिखाई देने लगता है जब लठ पड़ने से कभीकभी ग्वालबाल लहूलुहान हो जाते हैं, लेकिन कभी किसी पर रन्ज नहीं करते। इसे देखकर यहां की संस्कृति की वह विलक्षणता चरितार्थ होने लगती है जब श्रीकृष्ण के जमाने में कभी देखने को मिलती थी।
रंगों और मेलमिलाप के त्योहार होली की धूम उत्तर भारत में तो रहती ही है, विदेशों में भी इसकी छटा देखती बनती है। अपने देश से कोसों दूर रह रहे भारतीयों को यह पर्व अपनी जमीन और अपनी संस्कृति से जुड़ाव का अहसास दिलाता है। यह बात अलग है कि ये लोग उन देशों के तौर तरीकों के अनुरूप होली मनाते हैं जिन देशों में वे रह रहे हैं। कनाडा में भारतीय समुदाय के लोग बड़ी संख्या में हैं। यहां बसे लोग सप्ताहांत में मंदिर जाते हैं। वहीं होली उत्सव आयोजित होता है। कनाडा में बसे भारतीय पूजा के बाद सूखे रंगों से होली खेलते हैं और फिर प्रीतिभोज होता है। कनाडा में मार्च के महीने में बहुत सर्दी और कभीकभी तो हिमपात भी हो रहा होता है।इसलिए यहां पानी वाली होली खेलने का सवाल ही नहीं उठता।कनाडा के सुरक्षा और प्रदूषण संबंधी नियमों के चलते होली जलाने की छूट नहीं मिलती है।फिर भी यहां के कई मंदिरों में होलिका दहन होता है।जहांत तक बात पड़ोसी देश नेपाल की है तो यहां का यह विशेष पर्व माना जाता है। यहां पूरे धूमधाम से एक सप्ताह तक होली मनाई जाती है। पहले दिन एक खंभा गाड़ा जाता है जिसे चीर कहते हैं। यह बांस का खंभा होता है। लोग मन्नत मांगते हुए इसमें रंगीन कपड़े की पट्टियां लपेटते हैं। जहां होली जलाई जाती है उसके पास पूरे सात दिन तक यह खंभा गड़ा रहता है। सातवें दिन होलिका दहन के साथ ही चीर को भी अग्नि को समर्पित कर दिया जाता है। होलिका दहन को वहां भी भारत की तरह ही बुराई की प्रतीक होलिका का दहन माना जाता है। लेकिन यहां इसे पूतना की प्रतीक के तौर पर भी जलाया जाता है। पौराणिक मान्यता है कि पूतना ने कंस के कहने पर भगवान कृष्ण को मारने के लिए उन्हें अपना जहरीला दूध पिलाने का प्रयास किया था। होली पर कुछ व्यापारी विशेष आफर देते हैं। यहां होली के काफी पहले से ही रेडियो के जरिए होली उत्सव के आयोजन की घोषणा की जाती है जिससे पता चल जाता है कि कहांकहां होली उत्सव हो रहे हैं। लोग टिकट ले कर वहां जाते हैं। कई बार इन उत्सवों में बॉलीवुड के कलाकार भी आते हैं।
होली का त्यौहार न केवल मौज मस्ती, सामुदायिक सद्भाव और मेल मिलाप का त्यौहार है बल्कि इस त्यौहार को मनाने के पीछे कई वैज्ञानिक कारण भी हैं जो न केवल पर्यावरण बल्कि मानवीय सेहत के लिए भी गुणकारी हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि हमें अपने पूर्वजों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टि से बेहद उचित समय पर होली का त्यौहार मनाने की शुरुआत की। लेकिन होली के त्यौहार की मस्ती इतनी अधिक होती है कि लोग इसके वैज्ञानिक कारणों से अंजान रहते हैं। होली का त्यौहार साल में ऐसे समय पर आता है जब मौसम में बदलाव के कारण लोग उनींदे और आलसी से होते हैं। ठंडे मौसम के गर्म रुख अख्तियार करने के कारण शरीर का कुछ थकान और सुस्ती महसूस करना प्राकृतिक है। शरीर की इस सुस्ती को दूर भगाने के लिए ही लोग फाग के इस मौसम में न केवल जोर से गाते हैं बल्कि बोलते भी थोड़ा जोर से हैं। इस मौसम में बजाया जाने वाला संगीत भी बेहद तेज होता है। ये सभी बातें मानवीय शरीर को नई ऊर्जा प्रदान करती हैं। इसके अतिरिक्त रंग और अबीर (शुद्ध रूप में) जब शरीर पर डाला जाता है तो इसका उस पर अनोखा प्रभाव होता है।
होली पर शरीर पर ाक के फूलों से तैयार किया गया रंगीन पानी, विशुद्ध रूप में अबीर और गुलाल डालने से शरीर पर इसका सुकून देने वाला प्रभाव पड़ता है और यह शरीर को ताजगी प्रदान करता है। जीव वैज्ञानिकों का मानना है कि गुलाल या अबीर शरीर की त्वचा को उत्तेजित करते हैं और पोरों में समा जाते हैं और शरीर के आयन मंडल को मजबूती प्रदान करने के साथ ही स्वास्थ्य को बेहतर करते हैं और उसकी सुदंरता में निखार लाते हैं। होली का त्यौहार मनाने का एक और वैज्ञानिक कारण है। हालांकि यह होलिका दहन की परंपरा से जुड़ा है। शरद ऋतु की समाप्ति और बसंत ऋतु के आगमन का यह काल पर्यावरण और शरीर में बैक्टीरिया की वृद्धि को ब़ा देता है लेकिन जब होलिका जलाई जाती है तो उससे करीब 145 डिग्री फारेनहाइट तक तापमान ब़ता है। परंपरा के अनुसार जब लोग जलती होलिका की परिक्रमा करते हैं तो होलिका से निकलता ताप शरीर और आसपास के पर्यावरण में मौजूद बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है। और इस प्रकार यह शरीर तथा पर्यावरण को स्वच्छ करता है। दक्षिण भारत में जिस प्रकार होली मनाई जाती है, उससे यह अच्छे स्वास्थ्य को प्रोत्साहित करती है। होलिका दहन के बाद इस क्षेत्र में लोग होलिका की बुझी आग की राख को माथे पर विभूति के तौर पर लगाते हैं और अच्छे स्वास्थ्य के लिए वे चंदन तथा हरी कोंपलों और आम के वृक्ष के बोर को मिलाकर उसका सेवन करते हैं। कुछ वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि रंगों से खेलने से स्वास्थ्य पर इनका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है क्योंकि रंग हमारे शरीर तथा मानसिक स्वास्थ्य पर कई तरीके से असर डालते हैं। पश्चिमी फीजिशियन और डॉक्टरों का मानना है कि एक स्वस्थ शरीर के लिए रंगों का महत्वपूर्ण स्थान है। हमारे शरीर में किसी रंग विशेष की कमी कई बीमारियों को जन्म देती है और जिनका इलाज केवल उस रंग विशेष की आपूर्ति करके ही किया जा सकता है। होली के मौके पर घरों में पकवान बनाने की पुरानी परम्परा आज भी कायम है।सचमुच मेलमिलाप का यह त्योहार अपने अंदर कई खुबियां छुपाए रहता है।
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मूल रूप से उत्तर प्रदेश के लखनऊ निवासी संजय कुमार सक्सेना ने पत्रकारिता में परास्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद मिशन के रूप में पत्रकारिता की शुरूआत 1990 में लखनऊ से ही प्रकाशित हिन्दी समाचार पत्र 'नवजीवन' से की।यह सफर आगे बढ़ा तो 'दैनिक जागरण' बरेली और मुरादाबाद में बतौर उप-संपादक/रिपोर्टर अगले पड़ाव पर पहुंचा। इसके पश्चात एक बार फिर लेखक को अपनी जन्मस्थली लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र 'स्वतंत्र चेतना' और 'राष्ट्रीय स्वरूप' में काम करने का मौका मिला। इस दौरान विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे दैनिक 'आज' 'पंजाब केसरी' 'मिलाप' 'सहारा समय' ' इंडिया न्यूज''नई सदी' 'प्रवक्ता' आदि में समय-समय पर राजनीतिक लेखों के अलावा क्राइम रिपोर्ट पर आधारित पत्रिकाओं 'सत्यकथा ' 'मनोहर कहानियां' 'महानगर कहानियां' में भी स्वतंत्र लेखन का कार्य करता रहा तो ई न्यूज पोर्टल 'प्रभासाक्षी' से जुड़ने का अवसर भी मिला।

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