कश्मीर की नदियों के पानी से बनेगी बिजली

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संदर्भः- किशनगंगा-रातले नदियों में ऊर्जा संयंत्र लगाने का रास्ता खुला

 

सिंधु जल संधि पर विश्व बैंक ने पाकिस्तान को करारा झटका दिया है। विश्व बैंक ने इस बाबत तथ्यात्मक दस्तावेज जारी कर स्पष्ट किया है कि इस संधि के तहत भारत जम्मू-कश्मीर में बहने वाली  पश्चिमी नदियों पर हाइड्रोपावर परियोजनाएं लगा सकता है। दरअसल जम्मू-कश्मीर में प्रस्तावित किशनगंगा और रातले पर निर्माणाधीन हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट के आकार व रूप पर पाकिस्तान को आपत्ति थी। इसे लेकर पाक ने पिछले साल विश्व बैंक में शिकायत की थी। उसकी मांग थी कि 57 वर्ष पुरानी जल संधि में मध्यस्थ विश्व बैंक इस विवाद का हल निकाले। इस मांग के आधार पर जब संधि के 57 साल पुराने कागज खंगाले गए, तब साफ हुआ कि संधि में झेलम और चिनाब के साथ सिंधु नदियों को पश्चिमी नदियों के तौर पर परिभाषित किया गया है। पाकिस्तान पर इनके पानी के इस्तेमाल को लेकर कोई बंदिश नहीं है। वहीं, भारत जिन रूपों में भी चाहे इन नदियों का पानी इस्तेमाल कर सकता है। इन पर हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट भी लगा सकता है। इस सफाई के बाद सिंधु जल संधि की सीमाओं के तहत भारत इन नदियों का अधिकतम पानी अपने तरीके से दोहन करने को स्वतंत्र है।

सिंधु जल-संधि दुनिया की अंतरदेशीय ऐसी उदार जल संधि है, जिसके तहत भारत को अपनी भूमि पर नदियों का जल ग्रहण क्षेत्र होने के बावजूद 60,000 करोड़ रुपए की वार्षिक हानि उठानी पड़ रही है। बावजूद पाकिस्तान ने किशनगंगा विद्युत परियोजना पर आपत्ति दर्ज करके अपनी कुंठा प्रगट की थी। भारत में ढाई दशक से चले आ रहे पाक प्रायोजित छाया युद्ध के बरखिलाफ 1960 में हुए सिंधु जल समझौते को रद्द करने का कठोर कूटनीतिक संदेश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाक को पिछले साल दिया था। मालूम हो, विश्व बैंक की मध्यस्थता में 19 सितंबर 1960 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान ने सिंधु जल-संधि पर हस्ताक्षर किए थे। इसके अंतर्गत पाकिस्तान से पूर्वी क्षेत्र की तीन नदियों व्यास, रावी व सतलज की जल राशि पर नियंत्रण भारत के सुपुर्द किया गया था और पश्चिमी नदियों सिंधु, चिनाब व झेलम पर नियंत्रण की जिम्मेबारी पाक को सौंपी थी। इसके तहत भारत के ऊपरी हिस्से में बहने वाली इन छह नदियों का 80.52 यानी 167.2 अरब घन मीटर पानी पाकिस्तान को हर साल दिया जाता है। जबकि भारत के हिस्से में महज 19.48 प्रतिषत पानी ही शेष रहता है। नदियों की ऊपरी धारा ( भारत में बहने वाला पानी) के जल-बंटवारे में उदारता की ऐसी अनूठी मिसाल दुनिया के किसी भी अन्य जल-समझौते में देखने में नहीं आई है। इसीलिए अमेरिकी सीनेट की विदेशी मामलों से संबंधित समिति ने 2011 में दावा किया था कि यह संधि दुनिया की सफलतम संधियों में से एक है। लेकिन यह संधि केवल इसलिए सफल है, क्योंकि भारत संधियों की शर्तों को निभाने के प्रति अब तक उदार एवं प्रतिबद्ध बना हुआ है। जबकि जम्मू-कश्मीर को हर साल इस संधि के पालन में 60 हजार करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ता है। भारत की भूमि पर इन नदियों का अकूत जल भंडार होने के बावजूद इस संधि के चलते इस राज्य को बिजली नहीं मिल पा रही है।

दरअसल सिंधु-संधि के तहत उत्तर से दक्षिण को बांटने वाली एक रेखा सुनिष्चित की गई है। इसके तहत सिंधु क्षेत्र में आने वाली तीन नदियां सिंधु, चिनाब और झेलम पूरी तरह पाकिस्तान को उपहार में दे दी गई हैं। इसके उलट भारतीय संप्रभुता क्षेत्र में आने वाली व्यास, रावी व सतलज नदियों के बचे हुए हिस्से में ही जल सीमित रह गया है। इस लिहाज से यह संधि दुनिया की ऐसी इकलौती अंतरदेशीय जल संधि है, जिसमें सीमित संप्रभुता का सिद्धांत लागू होता है। और संधि की असमान षर्तों के चलते ऊपरी जलधारा वाला देश नीचे की ओर प्रवाहित होने वाली जलधारा वाले देश पाकिस्तान के लिए अपने हितों की न केवल अनदेखी करता है, वरन बालिदान कर देता है।

इतनी बेजोड़ और पाक हितकारी संधि होने के बावजूद पाक ने भारत की उदार शालीनता का उत्तर पूरे जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में आतंकी हमलों के रूप में तो दिया ही, अब इनका विस्तार भारतीय सेना व पुलिस के सुरक्षित ठिकानों तक भी हो गया है। बावजूद हैरानी इस बात पर है कि इस संधि को तोड़ने की हिम्मत न तो 1965 में भारत-पाक युद्ध के बाद दिखाई गई और न ही 1971 में। हालांकि 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को दो टुकड़ों में विभाजित कर नए राष्ट्र बांग्लादेश को अस्तित्व में लाने की बड़ी कूट व रणनीतिक सफलता हासिल की थी। कारगिल युद्ध के समय भी हम इस संधि को तोड़ने से हम चूक कर गए हैं।

दरअसल पाकिस्तान की प्रकृति में ही अहसानफरोशी शुमार है। इसीलिए भारत ने जब झेलम की सहायक नदी किशनगंगा पर बनने वाली ‘किशन गंगा जल विद्युत परियोजना‘ की बुनियाद रखी तो पाकिस्तान ने बुनियाद रखते ही नीदरलैंड में स्थित ‘अंतरराष्ट्रिय मध्यस्थता न्यायालय‘ में 2010 में ही आपात्ति दर्ज करा दी थी। जम्मू-कश्मीर के बारामूला जिले में झेलम की सहायक किशनगंगा नदी पर 330 मेगावाट और चिनाब की सहायक नदी रातले पर 850 मेगावाट की जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। हालांकि 20 दिसंबर 2013 को इसका फैसला भी हो गया। भारत द्वारा ठीक से अपने पक्ष की पैरवी नहीं करने के कारण यह निर्णय भारत के व्यापक हित साधे रखने में असफल रहा है। न्यायालय ने भारत को परियोजना निर्माण की अनुमति तो दे दी, लेकिन भारत को बाध्य किया गया कि वह ‘रन आॅफ दि रिवर‘ प्रणाली के तहत नदियों का प्रवाह निरंतर जारी रखे। फैसले के मुताबिक किशनगंगा नदी में पूरे साल हर समय 9 क्यूसिक मीटर प्रति सेंकेड का न्यूनतम जल प्रवाह जारी रहेगा। हालांकि पाकिस्तान ने अपील में 100 क्यूसिक मीटर प्रति सेकेंड पानी के प्राकृतिक प्रवाह की मांग की थी, जिसे न्यायालय ने नहीं माना। पाकिस्तान ने सिंधु जल-समझौते का उल्लघंन मानते हुए भारत के खिलाफ यह अपील दायर की थी। इसके पहले पाकिस्तान ने बगलिहार जल विद्युत परियोजना पर भी आपत्ति दर्ज कराई थी। जिसे विश्व बैंक ने निरस्त कर दिया था।

किशनगंगा को पाकिस्तान में नीलम नदी के नाम से जाना जाता है। इसके तहत इस नदी पर 37 मीटर यानी 121 फीट ऊंचा बांध बनाया जाना है। बांध की गहराई 103 मीटर होगी। यह स्थल गुरेज घाटी में है। इसका निर्माण पूरा होने के अंतिम चरण में है। 2017 के अंत में इसका काम पूरा हो जाने की उम्मीद है। बांध बनने के बाद किशनगंगा के पानी को बोनार मदमती नाले में प्रवाहित किया जाएगा। भारत ने इस परियोजना की शुरूआत 2007 में 3642.04 करोड़ की लागत से की थी। न्यायालय के फैसले के परिप्रेक्ष्य में प्रश्न यह खड़ा होता है कि यदि किसी साल पानी कम बरसता है और किशनगंगा नदी के बांध में पानी छोड़ने के लायक रह ही नहीं जाता है तो ‘रन आॅफ दी रीवर‘ प्रणाली का सिद्धांत अमल में कैसे लाया जाएगा ? इस दृष्टि से यह फैसला सिंधु जल-संधि की संकीर्ण व्याख्या है। कालांतर में पाकिस्तान को यदि इस फैसले के मुताबिक पानी नहीं मिलता है तो उसे यह कहने का मौका मिलेगा कि भारत अंतरराष्ट्रिय मध्यस्थता न्यायालय के फरमान का सम्मान नहीं कर रहा है। इसलिए भारत को सिंधु जल-बंटवारे पर पुनर्विचार की जरूरत है।

दरअसल द्विपक्षीय वार्ता के बाद शिमला समझौते में स्पष्ट उल्लेख है कि पाकिस्तान अपनी जमीन से भारत के खिलाफ आतंकवाद को फैलाने की इजाजत नहीं देगा। किंतु पाकिस्तान इस समझौते के लागू होने के बाद से ही, इसका खुला उल्लघंन कर रहा है। लिहाजा पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देने के नजरिए से भारत को सिंधु जल-संधि को ठुकराकर पानी को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की जरूरत है। पाकिस्तान की 2.6 लाख एकड़ कृषि भूमि इन्हीं नदियों के जल से सिंचित होती है। पेयजल का भी यही नदियां प्रमुख संसाधन हैं। यदि भारत कूटनीतिक पहल करते हुए इन नदियों का जल अवरुद्ध कर दे तो पाकिस्तान की कमर टूट जाएगी। पाक को सबक सिखाने का यह सबसे सरल और श्रेष्ठ उपाय है। नदियों के प्रवाह को बाधित करना इसलिए भी अनुचित नहीं है, क्योंकि यह संधि भारत के अपने राज्य जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के न केवल औद्योगिक व कृषि उत्पादन हेतु पानी के दोहन में बाधा बन रही है, बल्कि पेयजल के लिए नए संसाधन निर्माण में भी बाधा है। इस संधि के चलते यहां की जनता को पानी के उपयोग के मौलिक अधिकार से भी वंचित होना पड़ रहा है। हैरानी की बात है कि यहां सत्तारूढ़ रहने वाली सरकारों और अलगाववादी जमातों ने इस बुनियादी मुद्दे को उछालकर पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कभी नहीं की ? इसलिए आतंक का माकूल जबाव देने के लिए भारत सरकार को सिंधु जल को कूटनीतिक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करने की जरूरत है।

प्रमोद भार्गव

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