मिथ्या ही सोचा करता हूँ
अपने को कोसा करता हूँ
कुछ है बेचैनी, कुछ तो दर्द छुपा है
ना जाने क्यूँ अब सपने बुनने से डरता हूँ ……………………
पथ की गोलाई मैं जैसे भटक गया हूँ
अपनी परछाई का ही पीछा करता हूँ
समझ नहीं है बाहर कैसे आऊँ, ये हाल किसे बतलाऊँ
खुद को जीवन के समीकरणों मैं उलझा पाता हूँ …………………..
दुनिया की चालाकी से, कुछ परेशान सा हूँ
अपनों के बीच में भी गुमनाम सा हूँ
भीड़ क्या देगी सहारा बस अंजान सा हो गया मैं
रोज़ नए तथ्यों के जबाब ढूँढता रह रह जाता हूँ …………………………
कल की चिंता में आज भुला बैठा हूँ
सपनों की दौड़ में वो नींद लुटा बैठा हूँ
कोटियों की भीड़ को भागते देखता हूँ, भ्रमित सा हूँ
अब तो बस इस उठा -पटक से दूर तनहा रहना चाहता हूँ ………………………………….
मिथ्या ही सोचा करता हूँ
अपने को कोसा करता हूँ