विचारों पर अमल

इ. राजेश पाठक 

 १९ वीं सदी के उत्तरार्ध में महाराष्ट्र में नारी-जागरण को लेकर एक संस्था नें खूब ख्याति प्राप्त करी थी, जिसका नाम था ‘शारदा-सदन’.इसकी स्थापना करने वालीं विदुषी, पंडिता रामाबाई के नाम से आगे चलकर विख्यात हुईं.अपने कार्य को करते-करते वे बंगाल पहुँचीं, और वहां उन्होंने अपनी पसंद से शादी भी कर ली. लेकिन भाग्य में वैवाहिक- जीवन की आयु अत्याल्प निकली और परिणामस्वरूप वे विधवा हो गईं. जीवन में फिर ऐसा भी मोड़ भी आया कि उनका ईसाई मिशनरीज के संपर्क में आना हुआ और उनसे प्रेरित हो इंग्लैंड से होते हुए अमेरिका चली गईं. फिर जब वे भारत लौटीं तो वे ईसाई बन चुकी थी. अब उनका एकमेव लक्ष्य दीन-दुखी नारियों को ईसाइयत की राह पर ले जाना हो चुका था. दुनिया वालों को दिखने के लिए उन्होंने इसको नाम दिया ‘मानव-सेवा’ का. और इस छल से अनभिज्ञ कि उनके ही पैसे से उनके धर्म में सेंध लगाने का काम चल रहा है, हिन्दू-धनाड्य वर्ग शारदा-सदन को दान देने में कोई कसर नहीं छोड़ता था. पर इस कुटील चाल की ओर जिस व्यक्ति ने सर्वप्रथम जनमानस का ध्यान खींचा वो थे अंग्रेजों के विरुद्ध देश में  ‘स्वराज्य जन्म सिद्ध आधिकार है’ के नारे को बुलंद करने वाले लोकमान्य बालगंगाधर तिलक. लेकिन लोगों को आज की ही तरह उस समय भी समझाना आसान न था. अपनी दोनों बेटियों को आधुनिक वातावरण में शिक्षित करने वाले लोकमान्य तिलक नारी-उत्थान के प्रबल पक्षधर थे, पर इसकी आड़ में हिन्दू-समाज को हानि पहचाने वाले किसी भी प्रकार के उपक्रम उन्हें मंजूर नहीं थे.  अपनी बात को पुष्ट करने के उद्देश्य से उन्होंने कुछ प्रमाण एकत्रित किये; और जब उन्हें सबके समक्ष प्रस्तुत किया तो ईसाई मिशनरीयों से सहानुभूति रखने वाले आख़िरकार अपने कदम खींचने के लिए मजबूर हुए. 
                    वैचारिक रूप से उदार, धार्मिक सहिष्णुता के प्रबल पक्षधर और साथ ही सब को अपने अन्दर समाहित करके चलने वाली कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के महत्वपूर्ण अंग होने के वावजूद वे धर्मान्तरण के किसी भी प्रकार के प्रयास को धर्मनिरपेक्षता को कमजोर करने वाला मानते थे. १८९३-९४ में मुंबई और पुणे में हुए भीषण हिन्दू-मुस्लिम दंगे  इतिहास में दर्ज हैं. बहुसंख्यक पर मत-पंथ-जातियों में विभाजित हिन्दुओं को दंगों में भारी जान-माल का नुकसान उठाना पड़ा. भविष्य में ऐसी घटनायें पुन: न हों उसके लिए तिलक नें महाराष्ट्र में गणेश उत्सव और शिवाजी उत्सव मनाने की परंपरा डाली. धीरे-धीरे अपने सारे भेदों को भुला कर लोग इन उत्सवों में शामिल होने लगे. इससे उनके बीच संगठन की भावना प्रबल होने लगी. इस प्रकार  विचारों की प्रखर अभिव्यक्ति  के साथ-साथ  उस पर अमल हो उसके  उन्होंने पुरजोर उपाय भी किये. इस बात के लिए लोकमान्य तिलक को  सदा याद किया जाता रहेगा.  
               [सन्दर्भ- संस्कृति के चार अध्याय’-रामधारी सिंह दिनकरपृ-५४९]

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