आप में मचे घमासान से दिल्ली के उन लोगों की उम्मीदें बिखर सी गयी हैं, जिन्होंने केजरीवाल को मौजूदा राजनीती का विकल्प मानकर उन्हें अपना कीमती वोट दिया था. आप में मचे घमासान से देश के उस मेहनतकश और ईमानदार वर्ग की उम्मीदें दम तोड़ चुकी हैं जिसने केजरीवाल के अन्दर राजनीतिक परिवर्तन करने वाले लोहिया और अम्बेडकर की छवि देखने की कोशिश की थी.
राजधानी दिल्ली के निवासियों को अब हकीकत का सामना करना पड़ रहा है. उन्हें इस बात का एहसास हो रहा है कि जिस पार्टी को उन्होंने ऐतिहासिक समर्थन देकर सत्ता सौंपी थी, उसे अब उन्हीं वायदों को पूरा करने में पसीने छूट रहे हैं. अस्थायी सफाई कर्मचारियों को नियमित करने की बात हो, उन्हें समय पर उन्हें वेतन देने की बात हो या मेट्रो-शिक्षक मजदूरों के नियमित करने का चुनावी वायदा हो, आप सरकार हर मोर्चे पर विफल साबित हो रही है. अपनी उम्मीदों को पूरा ना होते देख जब ये वर्ग सड़क पर उतरता है, तो केजरीवाल सरकार के लिए स्थिति बड़ी ही असहज हो जाती है. शायद अब अरविंद केजरीवाल को ये समझ आ रहा होगा कि बिजली-पानी फ्री कर देने से ही सरकारें नहीं चला करतीं.
‘आप’ के पास अपनी गलतियों को ढकने का जाना- पहचाना पुराना तरीका है. अरविन्द केजरीवाल और उनके खास सिपहसलार मनीष सिसौदिया और आशुतोष हर कमी के लिए केंद्र सरकार को दोष देते रहते हैं. अपनी हर नाकामी के बाद उनके पास यही बहाना होता है कि चूँकि केंद्र की भाजपा सरकार उन्हें सहयोग नहीं कर रही है, उन्हें पैसे नहीं दे रही है और उनके हर काम में तकनीकि मदद नहीं मुहैया करा रही है, इसलिए वे अपने वायदों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं.
तो क्या दिल्ली की जनता ये मान ले कि जब तक आप को एमसीडी, दिल्ली राज्य और केंद्र तीनों स्तरों पर सरकार बनाने का मौका नहीं मिलेगा, तबतक दिल्ली का विकास कार्य ठप पड़ा रहेगा. क्या इसके पहले अन्य सरकारों ने विपरीत सरकारों के साथ तालमेल बिठाकर दिल्ली का विकास नहीं किया था? इसलिए आप का यह तर्क निहायत ही बचकाना है.
परन्तु दिल्ली वासियों का असली दर्द यहाँ नहीं है. उनका असली दर्द तो इस बात को लेकर है कि आप के पार्टी सुप्रीमो केजरीवाल के खिलाफ नित प्रतिदिन जो खुलासे हो रहे हैं, उससे जनता खासी निराश है. उन्हें अब ये देखकर बड़ी ही निराशा हो रही है कि अन्ना आन्दोलन से लेकर सरकार बनाने तक में जिस स्वच्छ राजनीती की उमीद में लोग केजरीवाल को मौजूदा भ्रष्ट व्यवस्था का विकल्प मान रहे थे, वो स्वयं हद स्तर की हिटलरशाही मानसिकता से ग्रस्त है. जो केजरीवाल दिल्ली सहित पूरे देश में कोई भी फैसला लेने के पहले जनता की राय लेने की बात कर रहे थे, वे सरकार बनाने के लिए, पार्टी में अपनी सर्वोच्चता बनाये रखने के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं.
उन्होंने अपनी ही पार्टी के उन सभी लोगों को एक एक कर किनारे लगा दिया जो किसी भी तरह उनकी राह में रोड़ा बन रहे थे या जो उनके फैसलों से संतुष्ट न होकर उनकी बातों की खिलाफत कर रहे थे. पूरे देश में लोकपाल की वकालत करने वाले व्यक्ति ने अपनी न मानने पर अपनी ही पार्टी के लोकपाल को चलता करने में मिनट भर की भी देर नहीं की.
हमारी जनता आज की मौजूदा राजनीति से इसीलिए त्रस्त थी कि हमारे राजनेताओं की कथनी और करनी में ज़मीन आसमान का फर्क है. वे किसी भी तरह जनता के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करने में अक्षम साबित हुए हैं. केजरीवाल ने जनता के इसी दुखती रग को पहचाना और उसे वह देने का वायदा किया जो उसे चाहिए था. पर आज जब रोज-रोज स्टिंग के माध्यम से हो रहे खुलासे से उनकी पोल खुलती जा रही है, दिल्ली की जनता खुद को ठगी महसूस कर रही है.
सूबे की हुकूमत पर हाल ही में काबिज हुई आम आदमी पार्टी में मचा घमासान निश्चित रूप से पार्टी का आंतरिक मामला है। मतभेद हर राजनीतिक दल में होते हैं और वह इस पार्टी में भी दिखने लगे हैं। लेकिन यह देखना जरूर महत्वपूर्ण है कि पार्टी की आंतरिक उठापटक का असर दिल्ली के विकास और यहां के प्रशासन पर नहीं पड़ने पाए। आखिरकार शहर के लोगों ने दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीटें आप की झोली में इसीलिए तो डाली हैं कि एक नई सुबह होगी, शहर में बेहतर शासन व्यवस्था लागू होगी। नई सरकार को सत्ता संभाले डेढ़ महीने से अधिक हो चुके हैं और अरविंद केजरीवाल की अगुआई वाली सरकार ने आते ही बिजली और पानी की सब्सिडी देकर अपना चुनावी वादा निभाने का काम किया है। सरकार के इस फैसले से शहर के लाखों उपभोक्ताओं को राहत जरूर मिलेगी। परंतु यह भी देखना जरूरी है कि इसी आम आदमी पार्टी की सरकार द्वारा पिछली बार 49 दिन के शासन के बाद अचानक इस्तीफा दे दिए जाने से जो राजनीतिक अनिश्चितता कायम हुई, उसका असर यह हुआ है कि दिल्ली का राजस्व घाटा छह हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया है।
पहली बार दिल्ली के योजनागत बजट में कटौती करनी पड़ी है। जाहिर है कि इससे शहर का विकास प्रभावित होगा। सरकार के पास पैसे की कमी का असर दिल्ली नगर निगमों के कामकाज पर दिखने लगा है। आप को ये समझना होगा कि अपनी हर गलती के लिए वह मोदी को दोष देकर ज्यादा दिन तक बची नहीं रह सकती.
निगम प्रशासनों ने खजाना खाली होने की दुहाई देकर दिल्ली सरकार से पैसे की गुहार लगाई है तो सरकार खुद ही घाटे से परेशान है। परिणाम यह है कि निगम कर्मचारियों को वेतन नहीं मिल पा रहा है। शहर की सफाई व्यवस्था प्रभावित हो रही है। अस्पतालों में कामकाज प्रभावित हो रहा है। दिल्ली परिवहन निगम की हालत भी लगातार खराब हो रही है। नई बसें खरीदी नहीं जा रही हैं और राष्ट्रमंडल खेलों से पहले खरीदी गई लो फ्लोर बसों की हालत अब बिगड़ने लगी है। बसें डिपो से निकलती हैं और खराब हो जाने की वजह से सड़क किनारे खड़ी कर दी जाती हैं। नई बसों की खरीद हो नहीं पा रही है। मतलब यह है कि शहर की शासन व्यवस्था के सामने गंभीर चुनौतियां हैं और इनसे निपटने की जिम्मेदारी जाहिर तौर पर सूबे की सरकार की ही है। लिहाजाए आज वक्त का तकाजा यह है कि प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई नई सरकार शहर के विकास के लिए जमकर काम करे। सबसे बड़ा सवाल दिल्ली की बेहतरी का है।
–अमित शर्मा
इन पूतों के पाँव तो पालने में ही दिखाई दे रहे थे , पर भोली जनता मुफ्त खोरी के चक्र में जा फंसी और अब यही अपेक्षित हाल होना है , गम यही होगा कि निकट भविष्य में जनता ऐसे वायदे करने स्वच्छ शासन के सपने दिखाने वाले लोगों पर विश्वास नहीं करेंगे