प्रमोद भार्गव
#नोटबंदी के दौर में चार #लोकसभा और आठ #विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों के नतीजों ने भाजपा और उसके सहयोगी दलों को राहत देने का काम किया है। जिस नोटबंदी को अब तक विपक्ष एक शासक की सनक मानकर संसद को ठप करने की हद तक अड़ा हुआ है, वहीं आम मतदाता ने संदेश दे दिया है कि कतार में लगे रह कर वह कुछ समय के लिए परेशानी भले ही भुगत ले, लेकिन अंततः वह कालेधन से मुक्ती के उपाय के पक्ष में ही है। हालांकि इन परिणामों की खास बात यह रही है कि सभी प्रमुख दल अपनी-अपनी लाच बचाने में सफल रहे हैं, लेकिन इन नतीजों का आकलन राष्ट्रिय परिप्रेक्ष्य में करें, तो भाजपा सभी राज्यों में बढ़त में रही जबकि कांग्रेस राहुल गांधी के नेतृत्व में उभरती दिखाई नहीं दे रही है।
ये चुनाव पांच राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश पुड्डुचेरी में हुए थे। नोटबंदी के आरंभ में लगभग सभी विपक्षी दलों ने नरेंद्र मोदी के इस फैसले का स्वागत किया, लेकिन आम जनता की बैंकों के सामने कतारें और उन्हें आ रही परेशानी देखकर ममता बनर्जी, मायावती और अरबिंद केजरीवाल ने जब नोटबंदी से उत्पन्न हो रही परेशानियों की खिलाफत शरू की तो विपक्ष ने एकजुटता दिखाकर संसद ही ठप कर दी। नोटबंदी आठ नवंबर को की गई थी, जबकि मतदान 11 दिन बाद 19 नवंबर को हुआ। इस बीच पूरे देश में बैंकों के आगे कतार में लगी जनता ने परेशानियों से रूबरू होते हुए पुलिस के डंडे भी खाए और कई लोग समय पर नए नोटों की व्यवस्था नहीं होने के कारण मौत की नींद भी सो गए। इन वजहों से ये सवाल खड़े होने लगे थे कि जिस विशाल जन-समूह ने नरेंद्र मोदी को देश का चक्रवर्ती सम्राट बनाया उस सम्राट के सनकभरे एक निर्णय ने सवा सौ करोड़ जनता को आर्थिक परेशानी में डाल दिया। उसे तत्काल भिखारी के रूप में बैंक और एटीएम की लाइन में अपना ही धन लेने के लिए लगा दिया। इस वजह से विपक्ष को यह उम्मीद थी कि जनता इन उपचुनावों में मोदी को सबक सिखाएगी। लेकिन भाजपा समेत उसके सभी सहयोगी दलों के लिए ये परिणाम खुशखबरी लेकर आए हैं। नोटबंदी का असर मतदाता पर निष्प्रभावी रहा है।
कुल चार लोकसभा सीटों पर चुनाव हुए थे। इनमें से मध्यप्रदेश की शहडोल सीट पर भाजपा के ही सांसद दलपत सिंह परस्ते की मौत के कारण चुनाव हुआ था। यह सीट भाजपा ने अपने उम्मीदवार ज्ञान सिंह की जीत के साथ बकरार रखी है, साथ ही असम में लखीमपुर लोकसभा सीट जीतकर भाजपा ने जता दिया है कि राष्ट्रिय स्तर पर उसका जनाधार बरकरार है। ये दोनों सीटें 2014 के आम चुनाव में भी भाजपा के खाते में थीं। इनमें से यदि कोई एक सीट भाजपा की मुट्ठी से फिसल जाती तो यह माना जाता कि नोटबंदी का असर मतदाता पर है नतीजतन जनता ने नोटबंदी के खिलाफ अपना फैसला सुनाया है। लोकसभा की अन्य दो सीटें पश्चिम बंगाल में खाली हुई थीं। इन दोनों सीटों पर तृणमूल कांग्रेस के प्रत्याशी विजयी रहे हैं। इन जीतों का संकेत है कि बंगाल की जनता सत्तारूढ़ ममता बनर्जी की तृणमूल सरकार से खुश है। यहां एक विधानसभा सीट पर भी चुनाव हुआ था। यह सीट भी तृणमूल की झोली में गई है। इससे पता चलता है कि पश्चिम बंगाल में सीपीएम फिलहाल पुनर्जीवन पाने की स्थिती में नहीं है और न ही भाजपा अभी ममता बनर्जी से मुकाबला करने में सक्षम हो पाई है।
शहडोल लोकसभा सीट के साथ मध्यप्रदेश में बुरहानपुर जिले की नेपानगर सीट पर विधानसभा उपचुनाव हुआ था। यहां पर भाजपा की मंजू दादू ने 42,000 से भी ज्यादा मतों से जीत हासिल करके प्रदेश के मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को जता दिया है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान की जनहितैशी नीतियों के चलते कांग्रेस के सभी दिग्गज बौने हैं। क्योंकि यहां कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी पूरी ताकत बाजी पलटने के लिए झोंकी थी। नेपानगर सीट राजेंद्र दादू की मौत से खाली हुई थी। भाजपा ने उनकी बेटी मंजू दादू को टिकट देकर सहानुभूति लहर बटोरने की कोशिश की थी। वहीं कांग्रेस ने हिमाद्री सिंह को टिकट दिया था। हिमाद्री प्रदेश कांग्रेस में कद्दावर नेता रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री दनवीर सिंह की बेटी हैं। ये दोनों ही प्रत्याशी युवा होने के साथ अपने दिवंगत पिताओं की विरासत पर उत्तराधिकार के लिए पहला चुनाव लड़े थे। मतदाताओं ने सत्तारूढ़ दल पर भरोसा जताते हुए मंजू दादू को जीत दिला दी। इसका बहुत कुछ श्रेय सहानुभूति को तो है, लेकिन मुख्यमंत्री चैहान के नेतृत्व को कहीं ज्यादा है। इन चुनाव परिणामों से स्पष्ट संकेत मिल रहा है कि प्रदेश कांग्रेस में फिलहाल ऐसा कोई कुष्ल नेता दिखाई नहीं दे रहा है, जिसका नेतृत्व मतदाता स्वीकारने को तैयार हो ? ज्योतिरादित्य सिंधिया इस चुनाव के जरिए इस कोशिश में थे कि यदि शहडोल और नेपानगर कांग्रेस जीत लेती है तो इन जीतों का श्रेय कांग्रेस आलाकमान को जताकर वे भावी मुख्यमंत्री की हैसियत से प्रदेश कांग्रेस के नेतृत्व के लिए अपने नुमाइंदों से पैरवी कराते। फिलहाल उनके मंसूबों पर पानी फिर गया है। दरअसल कांग्रेस संगठन के स्तर पर बिखरी हुई तो है ही, उसके नेतृत्व की क्षमता रखने वाले नेताओं और उनके गुटों के बीच एकजुटता भी दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रही है। जबकि शिवराज के नेतृत्व के साथ सरकार तो है ही संगठन भी है। इसलिए आम चुनाव से लेकर उपचुनाव तक प्रदेश में भाजपा हर दौड़ में कांग्रेस से आगे दिखाई दी है।
पश्चिम बंगाल में तृणमूल दो लोकसभा सीटों के साथ एक विधानसभा सीट जीतने में भी सफल रही है। लेकिन अंततः यहां के उपचुनाव की खूबी यह रही कि तीनों उपचुनावों में भाजपा दूसरे नंबर की पार्टी रही है। करीब 34 साल बंगाल में राज करने वाली वाममोर्चा खिसक कर तीसरे स्थान पर आ गई है। यह स्थिति जहां वाममोर्चे के लिए बड़ा झटका है, वहीं तृणमूल को भी यह आशंका सता रही होगी कि भाजपा की इस बढ़त को कैसे रोका जाए ? भाजपा का बंगाल और असम समेत पूरे पूर्वोत्तर में जनाधार स्पष्ट रूप से बढ़ता दिखाई दे रहा है। त्रिपुरा में भी भाजपा ने अपना वोट प्रतिशत बढ़या है। हालांकि यहां बरजाला और खोबाई सीटों पर विधानसभा चुनाव हुए थे, इन दोनों पर ही सीपीएम ने जीत हासिल की है। अरुणाचल में भी भाजपा ने अपना खता खोलकर जता दिया है कि अब वह वास्तव में अखिल भारतीय रूप ले रही है। यहां हायुलिआंग सीट पर चुनाव लड़ा गया था। भाजपा ने यहां पूर्व मुख्यमंत्री कलिखो पुल की पत्नी देसिंगु पुल को उम्मीदवार बनाया था, वह चुनाव जीत गई हैं। जाहिर है, असम में लखीमपुर और अरुणाचल में हायुलिआंग सीटों पर जीत दर्ज कराकर भाजपा ने कांग्रेस के अखिल भारतीय स्वरूप को बड़ी चुनौति पेश कर दी है।
इधर तमिलनाडू में जयललिता की लंबी बीमारी और चुनाव प्रचार में अनुपस्थित रहने के बावजूद वे बीमारी की सहानुभूति लहर बटोरने में कामयाब रही हैं। उनकी पार्टी एआईएडीएमके तंजोर और तिरूपरंकुंदरम जीतने में सफल रही है। पुड्डुचेरी में जरूर मुख्यमंत्री वी नारायण स्वामी चुनाव जीत गए हैं। उन्होंने मई 2016 में जब विधानसभा चुनाव हुए थे तब चुनाव नहीं लड़ा था। कांग्रेस महज इसी जीत पर संतोष कर सकती है। कुल मिलाकर इन चुनावों ने यह संकेत दिए हैं कि फिलहाल कांग्रेस भाजपा को चुनौती देने लायक शक्ति हासिल नहीं कर पाई है। आम चुनाव के बाद जितने भी उपचुनाव हुए है, कांग्रेस को शिकस्त झेलनी पड़ी है। नोटबंदी के चलते इन उपचुनावों में बाजी पलटने की उम्मीद कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों को थी, लेकिन कोई चमत्कार हुआ नहीं। अलबत्ता इन चुनावों ने यह जरूर तय कर दिया है कि क्षेत्रीय दल अपने-अपने क्षेत्रों में मजबूत हैं, इसी का परिणाम रहा कि उनका जिन-जिन राज्यों में शासन है, वे वहां-वहां सफल रहे। इन उपचुनावों से ये संदेश भी मिल गया है कि नोटबंदी के तात्कालिक असर को जनता झेलने को तैयार है।