बनते भारत के बिगड़ते हालात.

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पिछले कुछ महीने से जिस तरह के हालात हमारे देश में बने हुए है उसको लेकर कई तरह की चिंता और आशंकाएँ पनप रही है. भारत को दुनिया के सबसे बड़े और मजबूत लोकतांत्रिक देश होने का गौरव हासिल है. इस स्थिति में देश में करीब एक साल से लगातार विभिन्न मुद्दों पर राजनीति और राजनीतिक पार्टियों ने जनहित को दरकिनार करते हुए कभी अपना बचाव करती नज़र आ रही है तो कभी सियासी उथल-पुथल और स्वार्थ की राजनीति में दिलचस्पी लेने में व्यस्त है. इन सब के बीच आम जनता एक मूक दर्शक व श्रोता बनकर जीने को मजबूर है. अगर इनमे से भी कुछ लोग सियासत के रंगे सियारों के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं या उठाने का प्रयास कर रहे हैं तो उनको प्रशासन के डंडे और शासन के क्रूरतापूर्ण रवैये का शिकार होना पड़ रहा है.

ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि आख़िर इस देश को चलाने का जिम्मा जिनके हाथों में है क्या वो वाकई मौजदा स्थिति को काबू करने में असक्षम है? या फिर उनके उपर किसी खास तबके या समूह का दवाब है? अगर ऐसा कुछ है तो उन्हे सत्ता में रहने का कोई औचित्य नहीं है. मगर सवाल केवल सरकार द्वारा इस्तीफ़ा देने का नहीं है बल्कि वापस सत्ता और देश को सकारात्मक और सही दिशा में चलाने का भी है. केंद्र में प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के अंदर भी पिछले कुछ महीनों से आंतरिक कलह और आपसी विवाद साफ-साफ दिखाई दे रहा है. सरकार केवल लालकृष्ण आडवाणी के प्रधान मंत्री बन जाने मात्र से नहीं चल सकता बल्कि सरकार में शामिल सभी मंत्रियों व नेताओं के आपसी तालमेल और निर्विवाद रूप से फैंसले लेने पर भी निर्भर करता है.

बात अगर वर्तमान परिपेक्ष में करें तो एक तरफ भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर सरकार पूरे देश की जनता की नज़रों में भ्रष्ट और लाचार साबित हो रही है वहीं लगातार बढ़ती मंहगाई सरकार की नाकामी और लापरवाही को प्रस्तुत कर रहा है. चारों तरफ से घिर चुकी कांग्रेस की सरकार के पास ऐसी समस्याओं से बाहर निकलने का कोई तरकीब नहीं सूझ रहा है.

ऐसे में सरकार की ओर से झूठे आश्वासन और अपनी विफलता को प्रस्तुत करने के अलावा कुछ नहीं बचा है. इन सब के बीच आम जनता को सियासी दाँव-पेंच और भ्रमित कर झूठे दलील के दलदल में फँसाकर रखना विकासशील भारत के लिए ख़तरा साबित हो सकता है. बार-बार अपने बयानों से सुर्ख़ियों में रहने वाले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह और अपने को बौद्धिक व अनुशासित नेता(मंत्री) मानने वाले कपिल सिब्बल मंहगाई, भ्रष्टाचार,बेरोज़गारी, ग़रीबी आदि के मुद्दों पर चुप क्यों हो जाते हैं? खुद को कांग्रेस का करामाती नेता कहे जाने वाले ये लोग ऐसे समय में खुलकर जनहित की बात क्यों नहीं करते?

हमलोगों के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि जिस सदन में देश के सभी राज्यों के विकास व स्थिति पर विचार-विमर्श कर उचित योजना और सहायता दी जाती है, जिस सदन में आम आदमी की आवश्यकताओं और समृद्धि के लिए नई-नई परियोजनाओं को आकर देने पर विचार होता है, उस सदन की कार्यवाही मुश्किल से शुरू होती है और आसानी से बंद हो जाती है. जब तक सदन में सांसदों द्वारा समस्याओं को नहीं रखा जाएगा तब तक उसका निदान संभव नहीं है. यह ज़रूरी नहीं है की केवल भ्रष्टाचार,लोकपाल,मंहगाई, घोटाले आदि जैसे कुछ बड़े मुद्दे को शामिल कर संसद को चलने ना दिया जाए या फिर स्थगित करवा दिया जाए. इन सभी मुद्दों के अलावा भी बहुत सारी लंबित और आवश्यक विधेयक पर भी विचार होने चाहिए. इसके लिए प्रमुख विपक्षी दल को भी धैर्य रखते हुए और गरिमा में रहते हुए जनहित से जुड़ी आवश्यक सभी मुद्दों को संसद के भीतर उठाना चाहिए. जिससे न केवल शहरी बल्कि गाँव में रह रहे लोगों तक भी लाभ पहुँच सके.

आख़िर में कहना चाहूँगा कि मौजदा स्थिति को देश पर आये भारी संकट से जोड़ते हुए सरकार के साथ-साथ हम सभी को भी उचित दिशा में कदम बढ़ाने की ज़रूरत है, जिससे वर्तमान के इस हालत को मिटाकर सपनों का भारत बनाया जा सके.

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विकास कुमार
मेरा नाम विकास कुमार है. गाँव-घर में लोग विक्की भी कहते है. मूलत: बिहार से हूँ. बारहवीं तक की पढ़ाई बिहार से करने के बाद दिल्ली में छलाँग लगाया. आरंभ में कुछ दिन पढ़ाया और फिर खूब मन लगाकर पढ़ाई किया. पत्रकार बन गया. आगे की भी पढ़ाई जारी है, बिना किसी ब्रेक के. भावुक हूँ और मेहनती भी. जो मन करता है लिख देता हूँ और जिसमे मन नहीं लगता उसे भी पढ़ना पड़ता है. रिपोर्ट लिखता हूँ. मगर अभी टीवी पर नहीं दिखता हूँ. बहुत उत्सुक हूँ टेलीविज़न पर दिखने को. विश्वास है जल्दी दिखूंगा. अपने बारे में व्यक्ति खुद से बहुत कुछ लिख सकता है, मगर शायद इतना काफ़ी है, मुझे जानने .के लिए! धन्यवाद!

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