पूर्णत: सजग भारत की सजग विदेश नीति

राकेश कुमार आर्य


भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने बृहस्पतिवार को राज्यसभा में भारत की विदेशनीति पर उठाये गये विपक्ष के प्रश्नों का जिस प्रकार उत्तर दिया-उससे विपक्ष की बोलती बंद हो गयी। उसके पास कोई प्रति प्रश्न नहीं था। विदेशमंत्री के स्पष्टीकरण से लगा कि भारत की वर्तमान विदेशनीति सचमुच ‘विश्व विजयी विदेश नीति’ है। जिसे पढ़-समझकर हृदय में गौरव की अनुभूति होती है। सपा के प्रो. रामगोपाल ने चीन या किसी भी पड़ोसी देश के प्रति सरकार द्वारा युद्घ पर विचार करने का विषय उठाया तो विदेशमंत्री ने बड़ी सावधानी से प्रो. रामगोपाल को उत्तर दे दिया कि-‘प्रो. साहब सेना युद्घ के लिए ही होती है। पर हम युद्घ को अंतिम विकल्प मानते हैं, क्योंकि युद्घ से भारी विनाश कराने के उपरांत भी लोग वात्र्ता की मेज पर ही आते हैं। ऐसे में उचित यही होगा कि चीन समय रहते वार्ता की मेज पर आये।’

इस प्रकार सुषमा स्वराज ने अपने इस सधे हुए उत्तर में चीन को वार्ता की मेज पर बुलाने का निमंत्रण देकर उसे कूटनीतिक रूप से विश्व समुदाय के समक्ष घेरने का प्रयास किया। वह विश्व समुदाय को यह बताने में सफल रहीं कि भारत युद्घ को अंतिम विकल्प मानता है और वह चीन की ओर से सीमा पर बढ़ रही सैन्य गतिविधियों के दृष्टिगत यदि अपनी सीमाओं की रक्षा के दृष्टिगत अपनी सैन्य तैयारियां कर भी रहा है तो इसका अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि हम युद्घ के लिए उतावले हैं या हम युद्घ के माध्यम से बड़े विनाश की तैयारी कर रहे हैं। विदेशमंत्री ने विश्व समुदाय को भारत का राष्ट्रधर्म समझा दिया कि भारत युद्घ को सदा से अंतिम विकल्प मानता आया है और आज भी मान रहा है।
कुछ लोगों को ऐसी भ्रांति रह सकती है कि हम नेहरूजी की उस नीति के विरोधी हैं, जिसमें वह युद्घ को अनिवार्य नहीं मानते थे और विश्वशांति के प्रति स्वयं को संकल्पबद्घ रखते थे। ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि युद्घ को अंतिम विकल्प मानने और युद्घ की अनिवार्यता ही न मानने में अंतर है। जब हमारी विदेश नीति युद्घ को अंतिम विकल्प मानेगी-तब वह एक जागरूक विदेशनीति मानी जाएगी, जो यह जानती और मानती है कि शत्रु कभी भी हमारी अखण्डता को चूर-चूर कर सकता है। अत: उसे अपने किसी भी उद्देश्य में सफल होने से रोकने के लिए ‘घर में हथियार और सीमा पर होशियार’ रहना आवश्यक है। ऐसी जागरूक विदेशनीति अपने राष्ट्रीय हितों के प्रति सावधान रहती है और वह अंतर्राष्ट्रवाद के आदर्श को अपनाकर भी आंखें खोलकर चलती हैं। इसके विपरीत जब विदेश नीति युद्घ की अनिवार्यता को ही नकारने लगती है तब वह एक ‘असावधान विदेशनीति’ कही जाती है। जिसमें नायक भावुक विवेकशील होता है-उसकी देशभक्ति असंदिग्ध होती है-परंतु वह अपने राष्ट्रधर्म के प्रति असावधान होता है, जिसे शत्रु चांटा मार कर जगाता है। पर जब तक वह जागता है-तब तक शत्रु बहुत कुछ कर चुका होता है। नेहरूजी की विदेशनीति का दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यही था कि वह ‘असावधान विदेशनीति’ को अपनाकर चल रही थी।
आज हमने अपनी विदेशनीति में व्यापक परिवर्तन किया है और यह सत्य है कि इस परिवर्तन का शुभारम्भ इंदिरा गांधी के शासनकाल से ही हो गया था। जब हमने ‘असावधान विदेशनीति’ की नेहरूवादी सोच व परम्परा को त्यागकर पूर्णत: जागरूक विदेशनीति की ओर कदम बढ़ाया था। वर्तमान सरकार ने चीनी सीमा पर अपने सैनिकों के लिए आधुनिकतम अस्त्र-शस्त्र पहुंचाकर और उनके आवागमन के लिए सडक़ों का जाल बिछाने की नीति को अपनाकर ‘जागरूक विदेशनीति’ को और भी अधिक धार दी है। इसे सारा देश स्वीकार कर रहा है।
जहां तक चीन का प्रश्न है तो वह भारत को अपना शत्रु दो कारणों से मानता है-एक तो वह विश्व और एशिया में भारत की उभरती नेतृत्व शक्ति से बेचैन है। वह नेतृत्व पर अपना अधिकार मानता है और स्वयं को महाशक्ति के रूप में स्थापित कर भारत को पीछे धकेलना चाहता है। उसे यह पता है कि यदि भारत उभरकर सामने आता है तो इसका लाभ चीन के अधिकांश वे पड़ोसी लेंगे जिन्हें वह तंग करता रहता है। उस परिस्थिति में ये सारे चीनी पड़ोसी भारत को अपना नेता मानेंगे और उसके नेतृत्व में जाकर चीन के लिए समस्याएं खड़ी करेंगे। प्रधानमंत्री श्री मोदी के वैश्विक व्यक्तित्व के चुम्बकीय आकर्षण ने चीन के पड़ोसियों को भारत के प्रति आकर्षित कर भी दिया है। इससे चीन की आशंका और भी अधिक बलवती हो गयी है और वह समझने लगा है कि उसके पड़ोसियों का भारत के प्रति आकर्षण उसके लिए खतरनाक सिद्घ होगा। यही कारण है कि उसने भारत को डरा-धमकाने के लिए ‘डोकलाम’ को मुद्दा बनाया है। यदि भारत ‘डोकलाम’ से पीछे हट गया तो बड़ी कठिनता से जिन चीनी पड़ोसी देशों का विश्वास भारत जीतने में सफल हो पाया है, वह विश्वास भंग हो जाएगा और तब भारत कभी भी ‘विश्वनायक’ नहीं बन पाएगा। ऐसे में ‘डोकलाम’ में भारत का रूका रहना अत्यंत आवश्यक है।
दूसरे चीन की मान्यता है कि भारत ही वह देश है जो उसे घेरने में सफल हो सकता है। क्योंकि भारत के पास जनशक्ति भी है और धनशक्ति भी है। भारत की राजनीतिक विचारधारा सबको समान अवसर देती है और प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद से लेकर वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द तक के चयन में भारत ने जिस गौरवमयी लोकतांत्रिक परम्परा का निर्वहन किया है, उसने यह बता दिया है कि भारत में लोकतंत्र गुदड़ी के लालों को भी ‘राजा’ बना सकता है। इसके विपरीत चीन आज भी एक पार्टी को ही प्राथमिकता देता है और वह नागरिकों के मौलिक अधिकारों का शोषण करता है। चीन को डर है कि यदि भारत सक्षम और सफल राष्ट्र बनता है और उसे विश्वशक्ति के रूप में मान्यता मिलती है तो उसकी लोकतांत्रिक विचारधारा चीन में भी प्रवेश पा सकती है। जिससे वहां से कम्युनिस्ट शासन को उखाडऩा पड़ सकता है। ऐसे में चीन भारत को अपना शत्रु मानते रहने की अपनी जिद पर अड़ा रहेगा।
चीन के प्रति भारत की विदेशनीति इस समय पूर्णत: सजग है। जिसे हमारी विदेशमंत्री ने राज्यसभा में स्पष्ट किया है। उन्होंने युद्घ के लिए सेना होने की बात कहकर यह स्पष्ट कर दिया है किहमारी राजनीतिक इच्छा तो यही है कि युद्घ ना हो, पर यदि चीन अपनी गतिविधियों से बाज नहीं आता है तो भारत की सेना अपना वह काम करेगी जिसके लिए वह बनी हुई है। विदेशमंत्री ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत का राजनीतिक नेतृत्व और सैनिक नेतृत्व इस समय अपने-अपने ‘काम’ में व्यस्त है और एक सुंदर समायोजन के साथ अपने मर्यादा क्षेत्र में रहते हुए दोनों मिलकर कार्य कर रहे हैं।

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