अरविंद जयतिलक

नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ राज्य के नारायणपुर में 16 ग्रामीणों की नृशंसतापूर्वक हत्याकर फिर प्रमाणित कर दिया कि वे सामाजिक परिवर्तन के नुमाइंदे नहीं बल्कि हद दर्जे के नीच, कातिल, लूटेरे और देशद्रोही हैं। उनका मकसद समतामूलक समाज का निर्माण नहीं बल्कि बंदूक के दम पर भारतीय लोकतांत्रिक समाज को लहूलुहान करना है। यह हृदयविदारक घटना से यह भी रेखांकित होता है कि नक्सलियों का लोकतंत्र और मौजूदा व्यवस्था पर विश्वास उठ चुका है और उनका मकसद एक अराजकपूर्ण समाज की स्थापना करना है। वे पहले भी कह चुके हैं कि उनका देश के संविधान में विश्वास नहीं है और वे इसे बदलना चाहते हैं। ऐसे में इस निष्कर्ष पर पहुंचना उचित होगा कि नक्सली बातचीत के जरिए राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल होने वाले नहीं। उन्हें सिर्फ ताकत की भाषा से ही कुचला जा सकता है। घटना पर नजर दौड़ाएं तो नक्सलियों ने ग्रामीणों को इसलिए मौत की नींद सुलाया कि उनको शक था कि वे पुलिस की मुखबिरी कर रहे हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि पुलिस की निरंतर दबिश एवं गिरफ्तारियों से घबराकर इस जघन्य कृत्य को अंजाम दिया है। दरअसल नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के ग्रामीणों का नक्सलियों से मोहभंग हो चुका है और वे उन्हें सहयोग देना भी बंद कर दिया है। ऐसे में संभावना प्रबल है कि नक्सलियों ने ग्रामीणों में डर व दहशत फैलाने के लिए इस कायरतापूर्ण घटना को अंजाम दिया हो। ध्यान देना होगा कि विगत कुछ समय से नक्सलियों पर नकेल कसा है और जवानों की सतर्कता से उन्हें निशाना बनाने में विफल रहे हैं। सुरक्षा चैकसी की वजह से नक्सल प्रभावित 10 राज्यों में तीन राज्यों में हिंसा की एक भी घटना नहीं हुई है और छत्तीसगढ़ को छोड़कर अन्य सभी राज्यों में इसमें कमी देखने को मिली है। खासतौर पर झारखंड में नई सरकार बनने के बाद नक्सलियों के विरुद्ध कार्रवाई तेज हुई है। तकरीबन डेढ़ दर्जन शीर्ष नक्सली पुलिस मुठभेड़ में मारे जा चुके हैं। गृहमंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल में इस साल नक्सली हिंसा की एक भी घटना नहीं हुई है। सबसे अधिक नक्सल प्रभावित झारखंड राज्य की बात करें तो पिछले साल इस दौरान 206 हिंसक घटनाएं हुई जबकि इस साल सिर्फ 173 घटनाएं दर्ज हुई हैं। इसी तरह बिहार में भी कम हिंसक घटनाएं दर्ज हुई हैं। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि नक्सलियों के खिलाफ सुरक्षाबलों को सफलता मिल रही है और वे घबराकर ग्रामीणों को निशाना बना रहे हैं। लेकिन सुखद संकेत यह है कि नक्सलियों के विध्वंसक कृत्यों के खिलाफ अब नक्सल प्रभावित क्षेत्र की जनता लामबंद होने लगी है और उनके देश विरोधी कृत्यों की मुखालफत शुरु कर दी है। नक्सल प्रभावित क्षेत्र की जनता उनके आतंक से आजिज आ चुकी है और फैसला कर चुकी है कि वे उन्हें किसी तरह का सामाजिक-आर्थिक सहयोग नहीं करेंगे। ऐसे में उनके पास नक्सलियों से लोहा लेने के अलावा अन्य कोई चारा भी नहीं बचा है। अभी तक नक्सली सरकार के खिलाफ लोगों को भड़काकर उनके सुनहरे भविष्य का ताना बुन रहे थे लेकिन ग्रामीण जनता समझ गयी है कि यह कपोलकल्पना से अधिक कुछ भी नहीं है। लोग अपनी जिंदगी को नरक बनते साफ दिख रहे हैं। याद होगा गत वर्ष पहले बिहार का जमुई, लखीसराय और बांका जो नक्सलियों का जेबी जोन कहा जाता है, में नक्सलियों ने संथाल बहुल गांवों में डुगडुगी बजाकर फरमान जारी किया कि हर गांव के लोग दो लड़के और दो लड़कियों को नक्सली संगठन से जोड़ें अन्यथा खामियाजा भुगतने के लिए तैयार रहें। लेकिन संथाली जनता ने इस धमकी को तवज्जों नहीं दी और जान हथेली पर रखकर नक्सलियों के खिलाफ कमर कस लिया। गौर करें तो यह उनकी मजबूरी भी थी। कारण नक्सल प्रभावित जनता नक्सलियों की जबरन वसूली से तंग आ चुकी है और दाने-दाने को मोहताज है। अब जब सरकार द्वारा रोजगार कार्यक्रमों के जरिए उन्हें दो वक्त की रोटी की आस बंधी है तो वे नहीं चाहते हैं कि उनका निवाला नक्सली डकारें। दरअसल नक्सली एक खास रणनीति के तहत सरकारी योजनाओं में बाधा डाल रहे हैं। वे नहीं चाहते हैं कि ग्रामीण जनता का रोजगारपरक सरकारी कार्यक्रमों पर भरोसा बढ़े। उन्हें डर है कि अगर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सरकारी योजनाएं फलीभूत हुई तो आदिवासी नौजवानों को रोजगार मिलेगा और वे नक्सली संगठनों का हिस्सा नहीं बनेंगे। यही वजह है कि नक्सली समूह सरकारी योजनाओं में रोड़ा डाल बेरोजगार आदिवासी नवयुवकों को अपने पाले में लाने के लिए किस्म-किस्म के लालच परोस रहे हैं। अब वे नक्सली संगठन से जुड़ने वाले युवकों और युवतियों को सरकारी नौकरी की तरह नाना प्रकार की सुविधाएं मुहैया कराने का आश्वासन दे रहे हंै। नक्सली आतंक की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अब वे कंप्युटर शिक्षा प्राप्त ऐसे नवयुवकों की तलाश कर रहे हैं, जो आतंकियों की तरह हाईटेक होकर उनके विध्वंसक कारनामों को अंजाम दे। नक्सली अब परंपरागत लड़ाई को छोड़ आतंकी संगठनों की राह पकड़ लिए हैं। अगर सरकार शीध्र ही उनके खतरनाक विध्वंसक प्रवृत्तियों पर अंकुश नहीं लगायी तो उनके कंप्युटराइज्ड और शिक्षित गिरोहबंद लोग जंगल से निकलकर शहर की ओर रुख करेंगे और ऐसी स्थिति में उनसे निपटना फिर आसान नहीं होगा। यह समझना होगा कि नक्सलियों द्वारा परोसा जा रहा क्रांति का घिनौना दर्शन और चंद पैसों का लालच, आदिवासी युवाओं को आकर्षित कर सकता है। आदिवासी समाज इसे लेकर चिंतित है और यही वजह है कि वह नक्सलियों का मदद से पिछे हट रहा है और नक्सली उन्हें निशाना बना रहे हैं। याद होगा गत वर्ष पहले नक्सलियों ने झारखंड राज्य में विशेष प्रकोष्ठ के अधिकारी फ्रांसिस इंदुवर और बिहार राज्य के एएसआई लुकास टेटे की जघन्य हत्या की थी। यह दोनों ही आदिवासी समुदाय से थे। इस हत्या ने आदिवासियों के मन मंे नक्सलियों के प्रति थोड़ी बहुत बची सहानुभूति को भी खत्म कर दिया। आदिवासियों को लगने लगा है कि नक्सली अपने ही लोगों का खून से होली खेल रहे हैं। रही बात उनकी सुरक्षा और अधिकारों की तो उन्हें आभास हो गया है कि नक्सली सिर्फ अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति के लिए सरकार और समाज से लड़ रहे हैं। आदिवासियों का नक्सलियों के खिलाफ लामबंद होने के पीछे अन्य कारण भी हैं। मसलन नक्सली संगठन आदिवासी समाज की उस सांस्कृतिक विरासत और परंपरा को भी क्षतिग्रस्त करना शुरु कर दिए हैं, जिसकी रक्षा के लिए वे प्राण गंवाते रहे हैं। इसके अलावा आदिवासियों की चिंता और नाराजगी अपनी बहु-बेटियों के साथ नक्सलियों के घिनौने व्यवहार को लेकर भी है। दिन के उजाले की तरह साफ हो गया है कि नक्सली आदिवासी महिलाओं का यौन शोषण कर रहे हैं। गत वर्ष पश्चिम बंगाल पुलिस की हत्थे चढ़ी एक महिला माओवादी ने खुलासा किया था कि नक्सली शिविरों मंे महिला यौन षोशण का घिनौना खेल होता है। झारखण्ड और बिहार राज्य में माओवादियों के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान में बड़े पैमाने पर गर्भरोधक सामग्रियां भी प्राप्त हुई हंै। आदिवासी समाज इन घटनाओं से आगबबूला और विचलित है। आदिवासी समाज इससे भी चिंतित है कि उनकी नई पीढ़ी को नक्सली नशे के कारोबार में ढ़केल रहे हैं। इस खेल के पीछे उनका मकसद नशे की तस्करी के जरिए पैसा जुटाकर हथियार खरीदना है। विडंबना यह भी कि उनके इस राष्ट्रविरोधी कृत्यों में नेपाली माओवादियों से लेकर पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी संगठन भी रुचि ले रहे हैं। गत वर्ष पहले आईएसआई और माओवादियों का नागपुर कनेक्शन देश के सामने उजागर भी हुआ। अब जब नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की जनता नक्सलियों के खिलाफ होती जा रही है तो उचित होगा कि सरकार भी आगे बढ़कर उनकी सुरक्षा और आर्थिक मदद की गारंटी दे। नक्सल प्रभावित जनता सरकार के साथ होगी तो फिर नक्सलवाद से निपटना कठिन नहीं होगा। सरकार ही क्यों, नक्सलियों के समर्थक बुद्धिजीवी पैरोकारों को भी आगे बढ़कर उन पर दबाव डालना चाहिए कि वे अपने हथियार का मुंह नीचे रखें और सरकार द्वारा चलाए जा रहे विकासपरक कार्यों का हिस्सेदार बनें।
नक्सलियों की हैवानियत
आपको कोई शंका हो तो हो, लेकिन मैं पूरी तरह आश्वासत हूँ की नक्सलियों एवं माओवादीयो का क्षेत्रीय मुख्यालय जेएनयु है तथा वैश्विक मुख्यालय अमेरिका और स्कैन्डविया है. उन्होंने हत्याएं करने में महारत हासिल की है. पश्चिमी सभ्यता ने हत्या को कला का रूप दे दिया, उन्होंने सारे विश्व को आधुनिक युद्ध विज्ञान की शिक्षा दी. कदाचित इतिहास के झरोखे से देखने पर वे मुस्लिमों से भी अधिक क्रूर और हिंसक प्रतीत होते है. जब तक हम नक्सली एवं माओवाद के प्रायजको को नही कसेंगे उस पर लगाम लगाना मुश्किल है. आई.एन.जी.ओ., जे.एन.यु. के प्राध्यापक और छात्रो के संगठन और केजरीवाल एन्ड कम्पनी की मिलीभगत बहुत स्पस्ट संकेत दे रही है.