क्षेत्रीय दलों की चुनौतियां

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 शशांक शेखर

असम के कोकराझाड़ में हुई हिंसा और फिर इसके प्रतिक्रिया स्वरुप देश के कई हिस्सों से उत्तर भारतीय लोगों का पलायन सहसा भारतीय संस्कृति और एकता–अखंडता पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है। जो भारत अतीत काल से अनेकता में एकता का दम भरता है वो बस एक अफवाह पर ताश के घरों की तरह ढ़ेर होता दिखता है। मौजूदा परिस्थिति केंद्र और राज्य सरकार के चेहरे पर एक करारा तमाचा है और इंटिलिजेंस को आईना दिखा रहा है। पहले मुंबई फिर पुणे होते होते अफवाह झारखंड, उत्तर प्रदेश और दिल्ली तक फैलती दिखी और अंत में केंद्र सरकार ने सारा ठीकरा पाकिस्तान पर फोड़ते हुए अपना पल्ला झाड़ लिया।

लोगों का पलायन पहली बार नहीं हो रहा है। कुछ ऐसा ही पलायन बंगाल और महाराष्ट्र में भी दिखा था जब बिहारियों, तमिल वासियों को जबरदस्ती मार पीट कर प्रान्त से बाहर कर दिया गया। भारत में क्षेत्रवाद का बीज क्षेत्रीय पार्टियों ने ही फैलाया है। इसके लिए आस- पड़ोस देखने से पहले अपने बगल को टटोला जाता तो कोई हल ज़रुर सामने आता।

भारत में कई ऐसे दल हैं जिन्हें भारत की एकता-अखंडता में दरार डालने में ही परम सुख का अनुभव होता है। शिवसेना और मनसे ने जहां महाराष्ट्र को उत्तर भारत फ्री करने का संकल्प लिया है वहीं जयललिता और करुणानिधि की लड़ाई जाति के नाम पर ही हो जाती है। क्या इस प्रकार की राजनीति भारतीयों के मन-मंदिर में राष्ट्रीयता का बोध करा पाती होगी। आंध्रप्रदेश राज्य का उद्भव भाषा से हुआ तो तेलगू देशम ने भाषा के आधार पर ही पार्टी बना कर क्षेत्र की राजनीति में लोगों को उलझा दिया।

इस प्रकार की क्षेत्रीय पार्टी सिर्फ अपने क्षेत्र का ही सोचते हैं जो देश के प्रति लोगों के कर्त्तव्यों को दूर कर देती है। भारत सरकार को संविधान संशोधन करके कुकुरमुत्ते की तरह पनप रहे क्षेत्रीय पार्टियों पर लगाम लगाने की ज़रुरत है। चुनाव आयोग को भी इस पर ठोस कदम उठाना चाहिए और क्षेत्रीय पार्टियों को केंद्र में उपनी बात रखने के लिए उच्च सदन में जनसंख्या के हिसाब से सीटें आरक्षित कर देनी चाहिए।

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