क्या वाकई ब्रह्माण्ड को समझना आसान, पर महिला खुद ही एक रहस्य है?


हाल ही में हमने एक महान वैज्ञानिक प्रोफेसर स्टीफ़न हाॅकिंग को खो दिया जो कि ब्रह्माण्ड की खोज में लगे हुए थे। स्टीफन हॉकिंग ने ब्लैक होल और बिग बैंग सिद्धांत को समझने में अहम योगदान दिया। उन्होंने दो विवाह किए। उस आधार पर नारी को लेकर उनका एक कथन अखबारों में प्रमुखता से छाया हुआ है कि *ब्रह्माण्ड को समझना आसान, पर महिला खुद ही एक रहस्य है।* कमोबेश इसी तरह की और भी बातें कई लोग अपने हिसाब से कह चुके हैं जो कि उनके अपने व्यक्तिगत अनुभव रहे होंगे। क्या आप को भी लगता है कि स्त्रियों को समझना इतना कठिन है ?
आश्चर्य की बात नहीं कि आज स्त्री वर्ग खुद विमर्श कर रहा है कि हर बार इस तरह की बातों का सामना क्यों करना पड़ता है?
सबके अपने मत सबकी अपनी सोच होती है तो सोचा आज मैं भी सोचूं इस विषय पर। जितना सोच पाई मैं उसका सार यही निकला कि *स्त्री हमेशा से प्रकृति, संस्कृति, परिस्थिति, नियति, अनुभूति, अभिव्यक्ति जैसी अनेकानेक स्त्रीलिंग वाली बातों से प्रभावित है जिसपर गौर किया जाना चाहिए।*
स्त्री की प्रकृति संवेदनशील है जो हर छोटी से छोटी बात से प्रभावित होती है।
अब तक संस्कृति ने स्त्री को बहुत हद तक प्रतिबंधित रखा। भारतीय संस्कृति की बात करें तो देवी से दानवी तक, अबला से सबला तक, बेचारी से वीरांगना तक अनेकानेक रूपों में वर्गीकृत किया गया है।
रही बात परिस्थिति की तो स्त्री को तन-मन-धन के अनुसार कभी सौंदर्य ने छला, कभी पैसों की जरूरत और लालच ने तो कभी प्रेम और रिश्तों ने।
स्त्री की नियति है कि वह माँ है और मातृत्व के इस गौरव के साथ साथ अनेकानेक दायित्वों का निर्वहन करती हुई भी पुरुष के बिना अपूर्ण है क्योंकि मातृत्व का गौरव बिना पुरुष के संसर्ग के संभव नहीं है।
अनुभूति के लिहाज से स्त्री को एक अनूठी संरचना माना जाता है जो सृष्टि को चलाने में सहायक है।
अभिव्यक्ति के परिदृश्य में शारीरिक संरचना के सौंदर्य और गुणदोष सर्व विदित हैं।
स्त्री को पुरुष समझा या नहीं, स्त्री पुरुष के लिए रहस्य है, बला है, अबला है, प्रेरणा है या जो कुछ भी है,..।
एक सवाल हमेशा मेरे मन में उठता है कि क्या खुद स्त्री अपनी क्षमताओं और सीमाओं को या अपनी प्रकृति और नियति को समझ पाई है?
आज स्त्री को पुरुष क्या समझता है ये उनके अनुभवों की कहानी उनकी जुबानी हो सकती है पर सोचने का विषय ये है कि क्या एक स्त्री दूसरी स्त्री को समझती है,… ?
स्त्री की स्त्री से प्रतिस्पर्धा, स्त्री का सफलता के लिए स्त्री का हाथ थामने की बजाय पुरुष का सहारा लेने की प्रवृति, स्त्री के अंदर कपट या मायाचार की प्रबलता, स्त्रीत्व और स्त्री सौंदर्य का दुरुपयोग जिसे शास्त्रों में त्रियाचरित्र कहा गया है,.. ये सभी कारक वो कमज़ोर तथ्य है जो स्त्री और पुरुष की तुलना में स्त्री को कमतर आंके जाने का कारण हैं।
विचारणीय प्रश्नों में यह पक्ष निष्पक्ष होकर सोचा जाना चाहिए कि शास्त्रों में क्यों लिखा गया है कि *स्त्री ही स्त्री की प्रथम शत्रु है।* जिसके प्रत्यक्ष उदाहरण समाज के घर-घर और दर-दर में मिल जाएंगे। कैकेयी, मंदोदरी से आधुनिक स्त्री की व्यथा और कथा ही प्रमाणिकता के लिए पर्याप्त है,…जरूरत केवल खुद में झांकने की है।
रामचरित मानस में रावण के द्वारा मंदोदरी को कहे गए इस कथन पर विचार अनिवार्य है:-
*“नारि सुभाऊ सत्य सब कहहीं।*
*अवगुन आठ सदा उर रहहीं।*
*साहस अनृत चपलता माया।*
*भय अविवेक असौच अदाया।“*
पुरुष ने जो उपमाएं सदा से स्त्री को दी है उसके लिए स्त्री स्वयं जिम्मेदार है। आज जरूरत कौन क्या सोचता है के दायरे से बाहर आकर हम क्या हैं इसे सिद्ध करने की है जो अपनी मानसिकता के दायरे को बढ़ाए बिना या स्त्री-पुरुष विमर्श से बाहर निकल कर *मानवतावादी विमर्श, सहयोग, सम्मान, सामंजस्य से ही संभव है।*
एक और जरूरी बात जिससे बचना चाहिए कि एक पक्ष में हम ही शास्त्रोक्तियों का उदाहरण देकर दूसरे पक्ष में उसे अमान्य घोषित करते हैं *जैसे शास्त्रकार भी पुरुष ही थे आदि* ,.. आखिर ये कब तक??इसीलिए मैंने स्त्री या पुरुष विरोधी नहीं बल्कि आत्मावलोकन का पक्ष रखा कि जो है वो क्यों है? क्या हम इसका खंडन करने में समर्थ हैं? यदि हाँ! तो सदियों की बेड़ियाँ तोड़ने का साहस वीरों और वीरांगनाओं ने कर दिखाया होता।
आज आत्मावलोकन के साथ-साथ केवल विमर्श ही नहीं बल्कि कुछ कर दिखाने का युग है और हम सौभाग्यशाली हैं कि आधुनिकीकरण के दौर में जन्में हैं तो आइए इसका सदुपयोग करें।

प्रीति सुराना

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