जवानी जो आई बचपन की हुड़दंगी चली गई

 रूपेश जैन ‘राहत 

जवानी जो आई बचपन की हुड़दंगी चली गई

दफ़्तरी से हुए वाबस्ता तो आवारगी चली गई

शौक़ अब रहे न कोई ज़िंदगी की भागदौड़ में

दुनियाँ के दस्तूर में मिरि कुशादगी चली गई

ज़िम्मेदारियों का वज़न ज्यूँ बढ़ता चला गया

ईमान पीछे छूट गया और शर्मिंदगी चली गई

भागते भागते दौलतें न बटोर सके ज़माने की

मुड़के देखता हूँ तो लगता है ज़िंदगी चली गई

ज़िंदगी भर ईसार कैसे करे इस सख़्त जहाँ में

लगता था बुरा ‘राहत’ अब संजीदगी चली गई

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,072 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress