जेएनयू में एबीवीपी नहीं हारी है

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डॉ. मयंक चतुर्वेदी

यहां छात्र संघ चुनाव के आए परिणामों को देखें तो एकदम से ऐसा लगेगा कि जेएनयू के चुनावों में वामदल समर्थक छात्रों ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्र प्रत्‍याशियों को हरा दिया। जीत का जश्‍न आज उनके नाम है जो देश में विरोध की राजनीति करते आए हैं और जिनका विश्‍वास सिर्फ आन्‍दोलन एवं तोड़फोड़ के साथ दूसरों को गरियाने में है। लेकिन क्‍या वाकई में अभाविप यहां की यहां हार हुई है?  परिणाम आने के बाद से चले लगातार के मंथन से निष्‍कर्ष यही है कि कुछ कुत्‍ते भी मिलकर एक हाथी को पटक लेने हैं या जो एक कहावत ओर है कि शेर को भी संगठि‍त ताकत के सामने अपने शिकार से हाथ धोते एवं पलायन करते हुए देखा जाता है। वस्‍तुत: ये दो बातें जोकि जंगल की सत्‍ता पर सटीक बैठती हैं वे आज जेएनयू जैसे अध्‍ययन केंद्र पर सही बैठ रही हैं। यहां आज एबीवीपी नहीं हारी है, सच पूछिए तो जीतकर भी वे वामसंगठन हार गए हैं जिन्‍हें छात्र सत्‍ता पर काबिज होने के लिए एक दूसरे के धुर विरोधी होने के बाद भी एक साथ आना पड़ा, जिससे कि भगवा रंग के अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के झंडे को चुनाव में जीत के बाद गर्व से जेएनयू केंपस में फहराने से रोका जा सके।

 

इस बार जिन्‍होंने भी यहां छात्र संघ चुनावों से पहले हुए अभाविप एवं संयुक्‍त वाम मोर्चा गठबंधन (आईसा, एसएफआई और डीएसएफ) के अध्‍यक्षों का भाषण गंभीरता पूर्वक सुना है, यदि तटस्‍थता के साथ विचार किया जाए तो जो किसी विचार के साथ नहीं सिर्फ भारत की प्रगति और राष्‍ट्रीय उत्‍थान से प्‍यार करते हैं, वे अधिकतर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की ओर से अध्‍यक्ष की उम्‍मीदवार बनाई गई निधि त्रिपाठी के समर्थन में ही नजर आए हैं।

 

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के इन चुनावों में अभाविप के वाम छात्र दलों के ऊपर भय का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वैसे इसी परिसर में ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन (आईसा), स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) और डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स फेडरेशन (डीएसएफ) के छात्र-छात्राओं को कई बार आपस में लड़ते देखा गया है। ये वाम संगठन पं. बंगाल से लेकर दक्षिण के राज्‍यों में किस तरह से आपस में एक दूसरे की जूतमपैजार करते हैं, यह बात भी आज किसी से छिपी नहीं हैं। किंतु यहां दिल्‍ली में अखिल भारतीय विद्यार्थी परि‍षद को रोकने के नाम पर सभी एक मत हो गये । इसके बाद भी यदि अभाविप की ओर से छात्र प्रत्‍याशियों को प्राप्‍त मतों की गणना की जाए तो वे दूसरे स्‍थान पर है।

 

इन सब ने एबीवीपी को हराने के कैसे गठबंध करके चुनाव लड़ा जरा यह भी देखलीजिए, चुनाव परिणाम में ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन (आईसा) की गीता कुमारी को अध्यक्ष पद पर खड़ा किया गया । सिमोन जोया खान (आइसा) को उपाध्यक्ष के लिए इस चुनाव मैदान में उतारा गया। स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) के दुग्गीराला श्रीकृष्ण को महासचिव और शुभांशु सिंह डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स फेडरेशन (डीएसएफ) से संयुक्त सचिव पद पर इस छात्र संघ चुनाव में अपना प्रत्‍याशी बनाया गया। यानि की तीनों ही संगठन यह पहले ही जान गए थे कि अगर अलग-अलग चुनाव लड़े तो विद्यार्थी परिषद से पटखनी खाना तय है।

 

वस्‍तुत: कहना यही है कि आज उनके पास जो दो एवं एक-एक उम्‍मीदवारों की अलग-अलग संगठन के छात्र नेता की जीत मिली है वे इसमें से एक सीट भी लाने में सफल नहीं होते यदि अपने बूते स्‍वतंत्र अस्‍तित्‍व के साथ यहां चुनाव मैदान में उतरे होते। अध्‍यक्ष पद पर लड़े गए यहां के आए चुनाव परिणामों को इस संदर्भ में देखा जा सकता है, जिसमें कि संयुक्‍त वाम मोर्चे के बाद गीता कुमारी ने 1506 वोट हासिल किए जबकि अकेले के दम पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की उम्मीदवार निधि त्रिपाठी 1042 वोट प्राप्‍त करने में सफल रहीं। यानि की तीन संगठनों की यहां ताकत मिलाजुलाकर देढ़ हजार मत है, जबकि विद्यार्थी परिषद के अकेले एक अध्‍यक्ष की ताकत एक हजार से अधिक है। इसी प्रकार का आंकलन अन्‍य तीनों पदों पर हुए यहां के छात्र संघ चुनाव का रहा है।

 

वास्‍तव में इससे पता चल रहा है कि जेएनयू से अब शीघ्र ही वाम विचारधारा का, जो कहते हैं कि चाहे जो मजबूरी हो मांग हमारी पूरी हो, जो अ‍भाविप की तरह ज्ञान, शील, एकता में कतई विश्‍वास नहीं करते हैं, जो सि‍र्फ विरोध के लिए विरोध और प्रश्‍न खड़े करने में ही भरोसा करते हैं, उन सभी का किला शीघ्र ही ढहने वाला है। जो भारत को एक राष्‍ट्र नहीं कई राष्‍ट्रों का समूह मानते हैं, जो भारत की विविधता में एकता नहीं देखते हैं, उसे कई राष्‍ट्र कहते आए हैं और देश के भोले-भाले लोगों को कभी नक्‍सलवाद के नाम पर तो कभी मजदूर यूनियनों की हक की लड़ाई के नाम पर बरगलाते आए हैं, अब उनका सच देश की जनता ठीक से जानने लगी है।

 

आनेवाले दिनों में आशा की जा सकती है कि जो प्रभाव ये वामदल इस वक्‍त संयुक्‍त गठबंधन के माध्‍यम से छोड़ने में सफल रहे हैं वे आगे बहुत दिनों तक इसे कायम नहीं रख पाएंगे। भविष्‍य में उनका यह प्रभाव संयुक्‍त होने के बाद भी अवश्‍य ही समाप्‍त होगा।  इसीलिए ये कहना गलत नहीं है कि जेएनयू के चुनावों में अभाविप आज हारी नहीं यहां के छात्रों के बीच दिल से और भाव स्‍तर पर जीत हासिल करने में पूरी तरह से सफल रही है।

 

विद्यार्थी प्ररिषद के सभी छात्र संघ प्रत्‍याशियों को बहुत-बहुत शुभकामनाएं हैं, जिन्‍होंने हारकर भी आज यह बता दिया कि यहां के कई हजार छात्रों के दिल में उनके लिए सम्‍मान बरकरार है, यह सम्‍मान उनका तो है ही, निश्‍चि‍त तौर पर राष्‍ट्रवादी विचारधारा का भी है, जो यह कहती है कि तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें ना रहें जो यह भी कहती है कि परम वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम समर्था भावत्वा शिषाते भृशम।।राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानकर सम्पूर्ण जीवन माँ भारती की उपासना करें और हमारी यह विजयशालिनी संघठित कार्यशक्ति हमारे धर्म का सरंक्षण कर इस राष्ट्र को वैभव के उच्चतम शिखर पर पहुँचाने में समर्थ हो सके।

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मयंक चतुर्वेदी
मयंक चतुर्वेदी मूलत: ग्वालियर, म.प्र. में जन्में ओर वहीं से इन्होंने पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत दैनिक जागरण से की। 11 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय मयंक चतुर्वेदी ने जीवाजी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के साथ हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर, एम.फिल तथा पी-एच.डी. तक अध्ययन किया है। कुछ समय शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी विषय के सहायक प्राध्यापक भी रहे, साथ ही सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को भी मार्गदर्शन प्रदान किया। राष्ट्रवादी सोच रखने वाले मयंक चतुर्वेदी पांचजन्य जैसे राष्ट्रीय साप्ताहिक, दैनिक स्वदेश से भी जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखना ही इनकी फितरत है। सम्प्रति : मयंक चतुर्वेदी हिन्दुस्थान समाचार, बहुभाषी न्यूज एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं।

3 COMMENTS

  1. सदैव की भांति मयंक चतुर्वेदी जी ने जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में छात्र संघ चुनावों के विषय को भी बड़ी कुशलता से विश्लेषणात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है| जीत किसकी हुई अपने में एक तथ्य होते हुए भी इतिहास कम ही बताता है कि हार चुका वर्ग जीत के कितना समीप रहा था| भारतीय राजनीति में देश व देशवासियों के विकास हेतु नहीं बल्कि अब तक शासन पर नियंत्रण के लिए ही लड़े गए चुनावों के वातावरण में भले ही किसी अंकुर सिंह को व्यक्तिगत रूप से पेट की भूख अथवा आजीविका की खोज में लाभ मिल जाए, अंतिम में साधारण नागरिक ठगा रह जाता रहा है|

    मेरा विचार है कि विभिन्न राजनैतिक विचारधाराएं भी भारतीय संस्कृति में वर्ण व्यवस्था की तरह भारतीय जनसमूह को बांटने का षड्यंत्र बन राष्ट्र-विरोधी शक्तियों को लाभ पहुंचाती रही हैं| आज तथाकथित स्वतंत्रता के सात दशक पश्चात यदि भारत में राजनैतिक गतिविधियों से अनभिज्ञ एक बड़ा दलित व अनपढ़ निर्धन जनसमूह है तो इसका सीधा दोष भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को जाता है|

  2. जीत की ख़ुशी वही लोग मना रहे हैं जिनको बहुमत मिला है/ हां यहाँ वाकई में अभाविप की हार हुई है और रही बात एकजुट होने की तो ये जग जाहिर है कि अभाविप केंद्र सरकार और 80% मीडिया और तमाम भाजपा समर्थित पार्टियों का सहयोग प्राप्त है/ जिसके साथ पूरी मीडिया और केंद्र सरकार हो उसको अकेला तो कह ही नहीं सकते/ साथ में वही लोग आते हैं जिनका कोई सामान्य उद्येश्य होता हैं इन लोगों का उद्येश्य हैं जो लोग समाज के जो लोग हाशिये पर हैं उनको समजा की मुख्य धरा से जोड़ना जबकि अभाविप का उद्येश्य पुजीवाद को बढ़ावा देना हैं/ और एक बात ध्यान देने वाली है की हमारे ध्वज का जो कलर है वो भगवा नहीं तिरंगा है जो ये बताता है की हमें सबको साथ लेके चलना है/
    जब हम बात करतें हैं गठजोड़ की तो भाजपा से ज्यादा धुर विरोधी पार्टियों से हाथ मिलाने वाली कोई बड़ी पार्टी होगी ही नहीं/
    देश को एक राष्ट्र तो मानते हो लेकिन ये ब्राम्हण है ये क्षत्रिय हैं ये दलित है और ये मुसहर है करके राजनीती करने वाले देश को राष्ट्रभक्ति सिखाते हैं जिस हिंदुत्व की बात होती है वास्तव में वो एक खोखली सोच रह गई है क्यों की उसमे गहरी खाइयाँ हैं दीवारे हैं जिसको पटता हुआ देख कर सामन्तवादी विचारधारा के लोगो को दिक्कत मह्शूश हो रही है/ किला तो अब ढहेगा खोखले वादों का क्यों की अब जनता को पता चल चुका है की अब खाली बातों से काम चलने वाला नहीं है/
    हमारा राष्ट्र केवल हिन्दू राष्ट्र नहीं है यह कई धर्मों और संस्कृतियों का संगम है जब सभी धर्मों का सम्मान होगा तभी हम राष्ट्रहित में योगदान दे पाएंगे/

    • हमारा राष्ट्र केवल हिन्दू राष्ट्र नहीं है यह कई धर्मों और संस्कृतियों का संगम है जब सभी धर्मों का सम्मान होगा तभी हम राष्ट्रहित में योगदान दे पाएंगे/
      Ankur Singh ji—-Respond Please.

      Remove Hinduism from India, and see what happens? What is you answer?
      India–Hinduism=? ===> is it not Pakistan?
      Dr. Madhusudan

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