पत्रकार पण्डित दीनदयाल जी ने दिया नया दर्शन 

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दीनदयाल जी ने अपने राजनीतिक लेखों में एक नया वाद पैदा किया जिसे समन्वयवाद नाम दिया। राजनीतिक लिप्सा के आकांक्षी लोगों के लिए उन्होंने लिखा कि शिखर पर बैठने की इच्छा सबकी होती है मगर मंदिर के शिखर पर तो कौए भी बैठते हैं? हमें तो उस नींव का पत्थर बनने की आकांक्षा करनी चाहिए जो अपने कंधों पर मंदिर को भव्य स्वरूप देता है। उपाध्याय जी ने इसे खुद पर भी लागू किया। प्रसिद्ध विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी एक जगह लिखते हैं कि जनसंघ का अध्यक्ष बनने के लिए उन्हें दो बार आग्रह किया गया लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया।
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हिन्दुस्तान की रत्नगर्भा धरा ने भारतीय पत्रकारिता में जिन महापुरूषों को जन्मा, उन्हीं में से एक पण्डित दीनदयाल उपाध्याय जी भी हैं। उनका पत्रकारीय-जीवन महज 20 साल रहा लेकिन अपने विचारों और लेखों से दुनिया को खासा प्रभावित किया। 1963 में जब दीनदयाल जी लन्दन गए और वहां पर विपक्ष के नेता के तौर पर जो उद्बोधन दिया, उस पर स्थानीय अखबार द गार्जियन ने लिखा कि यह वह शख्स है जिस पर भारत को विशेष ध्यान देना होगा। भविष्यवाणी तब सही साबित हुई जब पण्डित जी ने 1965 में दुनिया को एकात्म मानव-दर्शन दिया। इसके पहले विश्व, माक्र्सवाद और समाजवाद जैसे दर्शनों में अपना कल्याण देख रहा था।

 

एक पत्रकार के तौर पर पण्डित जी का उद्भव सन् 1947 माना जाता है। उनके लिए धर्म और राष्ट्र से बड़ी मानवता थी इसलिए अपनी पत्रकारिता में भी इसे सर्वोपरि रखा। सृष्टि के  प्रथम संचारक नारदजी हों या तिलक की लोकमान्य पत्रकारिता या जैसा गांधीजी ने 1888 में इंडियन  ओपिनियन में कहा कि कोई भी धर्म या देश मनुष्यता से बड़ा नही हो सकता। इसी के समानांतर पण्डित उपाध्याय जी ने लोक कल्याण को ही पत्रकारिता का प्रमुख आधार माना। मशहूर पत्रकार थाम्पसन फ्रीडमैन के मुताबिक व्हाट वी पब्लिशड ऑर ब्राडकास्ट मे बी हर्टफुल, बट वी शुड बी अवेयर ऑफ द इम्पेक्ट ऑफ अवर वर्डस एण्ड इमेजेस ऑन द मिलियंस ऑफ लाइवस.

 

पण्डित जी के पास खबरों का न्यायवादी दृष्टिकोण था। उनके लेखों, उपन्यासों व नियमित कॉलमों का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि उन्होंने निष्पक्ष आलोचना, उचित व सम्माजनक शब्दों का प्रयोग और सत्यपरक खबरों को ही मानवता के अनुकूल बताया। जुलाई 1953 में पांचजन्य ने वित्तीय बजट पर एक विशेषांक निकाला तो उन्होंने समीक्षा करते हुए लिखा कि पंचवर्षीय योजना को लेकर जिस तरह सरकार के केंद्रीय मंत्री की आलोचना हुई है, बाकी दलों को क्यों छोड़ दिया गया? उन्होंने सम्पादकीय में मूर्खतापूर्ण जैसे शब्द की जगह किसी अन्य शब्द का इस्तेमाल करने की सलाह दी।

 

पं. दीनदयाल जी जब भी अखबार के दफतर आते तो न्यूज बनाने या शीर्षक कैसे लगाना इत्यादि पर सलाह-मशविरा करते। लखनऊ में जब संत फतेह सिंह किसी मुद्दे पर आमरण अनशन कर रहे थे तो पांचजन्य ने खबर का शीर्षक दिया : अकाल तख्त के काल…. मगर पण्डितजी ने इस शीर्षक को हटवाते हुए कहा कि सार्वजनिक जीवन में कटुतापूर्ण शब्दों का प्रयोग नही होना चाहिए। आर्गनाइजर के पूर्व संपादक के.आर. मल्कानी के अनुसार, तीन दिनों से भी कम अवधि में जब हरियाणा, पश्चिम बंगाल तथा पंजाब की गैर-कांग्रेसी सरकारें गिरा दी गईं तो पांचजन्य ने एक व्यंगयचित्र छापा जिसमें तत्कालीन गृह मंत्री चव्हाण लोकतंत्र के बैल को काटते हुए दर्शाए गए थे। बहुतों को यह अतिवाद लगा। इस पर उपाध्याय जी की प्रतिक्रिया थी, चाहे व्यंगयचित्र में ही क्यों ना हो, गौ-हत्या का यह दृश्य मन को धक्का पहुंचाने वाला है। आज तो हम गाय काटते हुए वाीडियो देख रहे हैं। साफ है कि मानवता, पशुता के स्तर पर पहुंच गई है।

 

राष्ट्रवादी पत्रकारिता पण्डितजी के विचारों में रची-बसी थी। इसका बेहतरीन उदाहरण देखते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री ने एक बार कहा कि अंग्रेज गए तो उन्होंने हमको बताया नही कि देश की सीमा क्या है? इसलिए कच्छ का यह हिस्सा हमारा था या नही, यह हमको पता नही। इस पर पण्डित जी ने बेबाकी से लिखा कि जिसको देश की सीमा ही मालूम नही, वह प्रधानमंत्री के दायित्वपूर्ण पद पर भला कैसे बने रह सकता है? उपाध्याय जी एक राजनीतिज्ञ थे इसलिए पत्रकारों या अखबारों की टीका-टिप्पणी को स्वच्छ आलोचना के तौर पर लेते थे। 1962 में एक अंग्रेजी अखबार ने पण्डित जी के भारत-पाक युद्ध पर लिखे लेख की कटु आलोचना की तो पण्डितजी ने उसका सहर्ष स्वागत किया। एक पत्रकार के रूप में हम गांधीजी को भी पाते हैं। 1942 में टाइम्स ऑफ इण्डिया की एक खबर पर महात्मा गांधी जी इस कदर नाराज हुए थे कि पूरा दिन उपवास कर बैठे थे!

 

उपाध्याय जी ने अपने राजनीतिक लेखों में एक नया वाद पैदा किया जिसे समन्वयवाद नाम दिया। राजनीतिक लिप्सा के आकांक्षी लोगों के लिए उन्होंने लिखा कि शिखर पर बैठने की इच्छा सबकी होती है मगर मंदिर के शिखर पर तो कौए भी बैठते हैं? हमें तो उस नींव का पत्थर बनने की आकांक्षा करनी चाहिए जो अपने कंधों पर मंदिर को भव्य स्वरूप देता है। उपाध्याय जी ने इसे खुद पर भी लागू किया। प्रसिद्ध विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी एक जगह लिखते हैं कि जनसंघ का अध्यक्ष बनने के लिए उन्हें दो बार आग्रह किया गया लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया।

 

पण्डित जी की राजनीतिक डायरी में प्रकाशित लेखों का अध्ययन करने पर मालूम चलता है और जो महत्वपूर्ण तथ्य सामने आया, उसके मुताबिक उन्होंने देश की राजनीति को विकास का एम-7 मॉडल दिया। हवा-पानी-भाप-तेल-गैस-बिजली-आणवि क शक्ति का न्यूनतम उपयोग करते हुए आवश्यकतानुरूप उत्पादन किया जाना चाहिए साथ ही शिल्पज्ञान को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। यह उनकी विकासवादी पत्रकारिता का प्रतीक है। स्पष्ट है कि एक पत्रकार के तौर पर पं. दीनदयाल जी की मानवतावादी दृष्टि, भारत के साथ-साथ विश्व के लिए भी मार्गदर्शीय और अनुकरणीय है। यही रास्ता पत्रकारिता का कल्याण और सर्वे भवन्तु सुखिन: के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।

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