कहो कौन्तेय-६०

विपिन किशोर सिन्हा

(युद्ध के पूर्व अर्जुन का विषाद)

पितामह के श्वेत दाढ़ी-मूंछों से मैं अक्सर खेला करता था। मुझे आभास भी नहीं होता था कि उन्हें खींचने से दादाजी को दर्द भी होता होगा। वे भी तो कभी बताते नहीं थे। उनका श्वेत उत्तरीय ले मैं भाग जाता और वे जानबूझकर मेरे पीछे-पीछे धीरे-धीरे दौड़ने लग जाते। दौड़ते-दौड़ते थकने का अभिनय कर वहीं बैठ जाते। मैं वृद्ध दादाजी को उनका उत्तरीय लौटा, जैसे उनपर कृपा करता। धूल-धूसरित शरीर के साथ उनकी गोद में बैठ जाता। वे स्नेह से मेरा मस्तक सूंघते, मेरे केश सहलाते और मेरे कपोल चूम लेते। खेल-कूद में जब मुझे कभी चोट लगती, तो वे विह्वल हो उठते – जैसे चोट उन्हें ही लगी हो। मुझे उनके प्राण लेने हेतु उन पर प्राणघातक बाण चलाने होंगे। ऐसा नीच कार्य! मेरा मन वितृष्णा से भर उठा। मैं उनकी ओर और नहीं देख सकता था। हृदय हाहाकार कर उठा।

गुरुवर द्रोण! एकबार अश्वत्थामा ने भी उनपर आरोप लगाया था वे उससे अधिक मुझपर स्नेह रखते हैं। वे मुझे पिता और गुरु का स्नेह एक साथ देते थे। उनकी एक ही आकांक्षा थी – मैं पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनूं। गुरुदक्षिणा के रूप में एकलव्य का अंगूठा, संभवतः अपनी इसी आकांक्षा को मूर्त रूप देने हेतु उन्होंने कटवाया था। निश्चित रूप से इस कृत्य से एक गुरु का चरित्र कलंकित हुआ था, लेकिन मेरे लिए उन्होंने कलंक भी स्वीकार किया। मुझे वे अद्वितीय मानते थे। मेरे ज्ञान, मेरे पराक्रम, मेरे शौर्य से किसी कि समता उन्हें सह्य नहीं थी। मेरी गुरुभक्ति से वे अत्यन्त परसन्न होते थे। लेकिन मेरे प्रति उनका ममत्व, उनका स्नेह सर्वोपरि था। एक समय था जब उनके एक इंगित पर मैं अपने प्राणों की बाजी लगाने हेतु तत्पर रहता था, आज उनके प्राणों का प्यासा बन युद्धभूमि में उसी पूज्य गुरु के सामने, सीना ताने खड़ा था। मेरा विवेक मुझे धिक्कार रहा था।

कृपाचार्य! अस्त्र विद्या का क, ख, ग, सिखाने वाले, मेरे पूज्य गुरु! प्रारंभिक शिक्षा देने वाले गुरु को जितना श्रम करना पड़ता है, उतना उच्च शिक्षा देनेवाले गुरु को नहीं।

कौन बालक विद्याध्यन में आरंभ से ही रुचि लेता है? हम आचार्य कृप की कक्षा से आंख बचाकर भाग जाते – कभी कबड्डी खेलते, कभी पेड़ॊं पर चढ़ जाते, तो कभी जलविहार करते। हमारी शरारतों पर वे दंड नहीं देते। सदैव प्यार और दुलार ही देते। हम सबको पुचकारकर पुनः कक्षा में ले आते – प्रेरक कथाओं के माध्यम से विद्याध्यन में हमारी रुचि जगाते। छोटे-छोटे हाथों में सुन्दर-सुन्दर धनुष पकड़ाकर शर-संधान का प्रशिक्षण उन्होंने ही दिया था। एक गुरु के नाते अगाध प्रेम की वर्षा की थी उन्होंने मुझपर। उनके चरणों में जीवन व्यतीत हो जाए, तो मैं स्वयं को सौभाग्यशाली समझूं। युद्ध में विजय के लिए इन्हीं हाथों से उन पर प्राणघातक बाणवर्षा करनी पड़ेगी – गुरुहत्या करनी होगी?

मेरी आंखों के सामने मेरे ही बाणों से वीरगति को प्राप्त पितामह भीष्म, गुरुवर द्रोण और कृपाचार्य के शव दिखाई देने लगे। नहीं, नहीं। मैं इस घोर पाप का भागी नहीं बनूंगा।

मेरी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा। मेरा गला सूखने लगा। अंग शिथिल होने लगे – हाथ और पैरों में जैसे शक्ति न रह गई हो। पूरा शरीर पसीने से लथपथ हो गया। ऐसा लगा, जैसे हृदय में असंख्य शूल चुभ रहे हों। मेरे बाणों से मृत स्वजनों के रक्त चारो ओर दिखाई देने लगे। लाख रोकने के बाद भी आंखों से आंसुओं की धारा बह चली। जीवन में पहली बार गाण्डीव मेरे हाथ से छूटकर कब गिरा, मुझे पता ही नहीं चला। मैंने जैसे-तैसे स्वयं को संभाला और रथ के पार्श्व भाग में चुपचाप बैठ गया।

श्रीकृष्ण चकित नेत्रों से मुझमें आए परिवर्तन को लक्ष्य कर रहे थे। मेरे पास आ अपने स्नेहिल हाथों का स्पर्श मेरे कंधों को दे, बोले –

“क्या हो गया पार्थ? तुम्हारे हाथ से तुम्हारा गाण्डीव कौसे गिर गया? तुम इस तरह हतप्रभ होकर क्यों बैठ गए?”

मेरा कण्ठ अवरुद्ध था लेकिन उनके बार-बार आग्रह करने पर धीमी वाणी में मैंने कहना आरंभ किया –

“हे केशव! जिन पूजनीय और आदरणीय पुरुषों का वध कर, जीने की मेरी तनिक भी इच्छा नहीं है, वे मेरे वन्दनीय गुरुजन, ज्येष्ठ, कनिष्ठ भ्राता, संबन्धीगण, मित्र और निर्दोष सैनिक मेरे सामने खड़े हैं। हे मधुसूदन! अपने पूजनीय और वन्दनीय पितामह, आचार्य द्रोण और कृपाचार्य का वध मैं कैसे कर पाऊंगा? जिनके चरण-स्पर्श करने में ही मेरे जीवन की सार्थकता है, भला उनपर प्राणघातक प्रहार कैसे कर सकता हूं? उनके वध के पश्चात यदि तीनों लोकों का राज्य भी मुझे प्राप्त होता है, वह भी मुझे स्वीकार नहीं। धृतराष्ट्र के पुत्र भी अमृतपान करके नहीं आए हैं। एक न एक दिन वे अपनी स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त होंगे ही। फिर मैं उनके दूषित रक्त से अपने हाथ अपवित्र क्यों करूं? युद्ध के लिए उद्यत, इन स्वजनों को देख मेरी स्वाभाविक क्षात्रवृत्ति नष्ट हो गई है। मैं निश्चित नहीं कर पा रहा हूं कि क्या धर्म है, क्या अधर्म है? क्या उचित है, क्या अनुचित है? मैं द्विधा के भ्रमजाल में फंस गया हूं। मुझे मार्ग दिखाइये माधव! मेरा कल्याण करें केशव!”

श्रीकृष्ण क्षण भर के लिए विस्मित हुए। फिर मेरी आंखों में आंखें डाल दृढ़ स्वर में बोले –

“अर्जुन! महायुद्ध के समय क्षात्रधर्म को छोड़ तुम मोह को प्राप्त हो रहे हो। इसे नपुंसकता के अतिरिक्त मैं क्या नाम दूं? तुम्हारा कार्य तो कायरों को शोभा देता है, श्रेष्ठ पुरुषों को नहीं। यह न तो कीर्तिदायक है, न ही मुक्तिदायक। जीवन भर अपमान, उपेक्षा और निन्दा का बोझ माथे पर लेकर उपहास का पात्र मत बनो पार्थ! उठो, हृदय की दुर्बलता को त्याग कर निर्णायक युद्ध के लिए खड़े हो जाओ।”

मेरे सुप्त स्वाभिमान को जागृत करने के लिए उन्होंने मुझे कायर और नपुंसक तक कह डाला। किसी दूसरे ने अगर उन संबोधनों का प्रयोग मेरे लिए किया होता, तो पलक झपकते ही गाण्डीव उठा मैं उसे यमलोक का अतिथि बना चुका होता। अधिक समय नष्ट न करते हुए, यही तो चाहते थे श्रीकृष्ण मुझसे। मेरा स्वाभिमान ही तो जागृत करना चाहते थे वे। लेकिन मैं तो जैसे जड़ हो चुका था – मेरी भुजाओं को जैसे पक्षाघात हो गया था – मेरे नेत्रों से अश्रुवर्षा रुकने का नाम नहीं ले रही थी। कृष्ण मेरे कंधे बार-बार झिंझोड़ रहे थे। मैंने कांपते स्वरों में अपना पक्ष रखा –

“हे नारायण! मैं भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण, और कृपाचार्य को मारकर, उनके रुधिर से सिक्त अन्न को खाकर अपना जीवन-निर्वाह कैसे करूंगा? इससे तो अच्छा होगा, मैं भिक्षा से प्राप्त अन्न से उदर निर्वाह करूं। हे केशव! इनको मारने की अपेक्षा मैं स्वयं मृत्यु का वरण करना उचित समझता हूं। इस पृथ्वी पर निष्कण्टक धनधान्य संपन्न राज्य और देवताओं का स्वामित्व भी मुझे प्राप्त हो जाय, तो भी मैं उस समाधान को नहीं देखता जो मेरी समस्त इन्द्रियों को सन्तप्त करने वाले शोक को दूर कर सके। मैं मोहग्रस्त हूं माधव! अपनी कृपण दुर्बलता के कारण, अपना कर्त्तव्य भूल गया हूं, सारा धैर्य भी खो चुका हूं। इस समय, क्या करने योग्य है या क्या नहीं करने योग्य, इसका निर्णय लेने में सर्वथा असमर्थ हूं। आप प्रत्येक परिस्थिति में पर्वत की भांति अविचल रहते हैं। मैं आपका शिष्य हूं और शरणागत भी। आप ही मुझे बताएं – मैं क्या करूं?”

क्रमशः

 

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