कहो कौन्तेय-६२

विपिन किशोर सिन्हा

(महासमर का पहला और दूसरा दिन)

महासमर के लिए श्रेष्ठ जनों की आज्ञा और उनका आशीर्वाद ले, हमलोग अपनी सेना के मध्य लौट आए। अब और कोई औपचारिकता शेष नहीं बची थी। दोनों पक्षों की ओर से आकाश का हृदय विदीर्ण करने वाले शंखनाद हुए, रणभेरियां बजीं। युद्ध का महायज्ञ प्रदीप्त हो गया।

कुरुक्षेत्र की पवित्र समरभूमि में महाभारत आरंभ हो चुका था – न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, ज्ञान-विज्ञान का निर्णय इस युद्ध के माध्यम से ही होना था। प्राणियों को निष्पक्ष न्याय दिलाने वाला महायज्ञ धू-धू कर जलने लगा। प्रलय काल के समय दो प्रचण्ड, विकराल कालरूपी मेघ एक दूसरे से टकरा जाएं, उसी प्रकार दोनों शस्त्र सज्जित सेनाएं आपस में टकरा रही थीं।

युद्ध के प्रथम दिवस सभी अपने-अपने प्रतिद्वंद्वियों से ही भिड़े। वीर भीमसेन ने दुर्योधन के साथ भयंकर धर्मयुद्ध किया। द्रौपदी के पांच पुत्र और अभिमन्यु को अपने पराक्रम प्रदर्शित करने का यह प्रथम अवसर प्राप्त हुआ था। ये सभी वीर कौरवों की सेना को चीरते हुए आगे बढ़ रहे थे। मैं पितामह के सामने था। प्रथम प्रहार उन्होंने ही किया। अपनी ग्रीवा अगल-बगल, उपर-नीचे झटक मैंने उनके बाण निष्फल किए। अपने बाणों से सर्वप्रथम उनके चरणों को स्पर्श किया, फिर विद्युत वेग से प्रहार कर उन्हें बाणों से आच्छादित कर दिया। प्राणघातक प्रहार न उन्होंने किया और न मैंने। हम दोनों के बीच मृदु युद्ध का यह श्रीगणेश था।

पितामह को उसी अवस्था में छोड़ मैं रणभूमि में स्वछन्द विचरण करने लगा। पाण्डव-पक्ष का कोई भी योद्धा जहां भी घिर जाता, संकट में पड़ता, श्रीकृष्ण मेरा रथ वहां पहुंचा देते। उस दिन अभिमन्यु का बृहद्वल, दुशासन का नकुल, दुर्मुख का सहदेव, युधिष्ठिर का शल्य, द्रोणाचार्य का धृष्टद्युम्न, भूरिश्रवा का शंख, राक्षस राज अलम्बुष का वीर घटोत्कच, शिखण्डी का अश्वत्थामा, विराट का भगदत्त, आचार्य कृप का केकयराज, महाराज द्रुपद का जयद्रथ और कृतवर्मा का सात्यकि के साथ द्वंद्वयुद्ध उल्लेखनीय था। सबने एक-दूसरे की शक्ति, कुशलता, पराक्रम और दावपेंच की प्रत्यक्ष परीक्षा ली।

लेकिन युद्ध का प्रथम दिवस याद किया गया, महाराज विराट के दो युवा पुत्र – उत्तर और श्वेत के अतुलनीय पराक्रम के लिए।

उत्तर ने शल्य को रथहीन औत शस्त्रहीन कर दिया था। उन्हें अस्त्र-शस्त्र विहीन देख, वह तनिक ठहरा और उनकी ओर से दृष्टि फेर ली। शल्य ने उसे असावधान देख एक भीषण शक्ति के प्रहार से उसका वध कर डाला। हमारे पक्ष से हुतात्मा होने वाला वह पहला महारथी था।

राजकुमार श्वेत ने उत्तर को मृत देख मोर्चा स्वयं संभाला। उसका वेग किसी के रोके नहीं रुक रहा था। असंख्य बाणों के प्रहार के साथ उसने शल्य पर धावा बोल दिया। शल्य के प्राण संकट में थे। उन्हें मृत्यु के मुंह में देख सहायता के लिए जयद्रथ के नेतृत्व में सात महारथी सामने आए। लेकिन जैसे प्रचण्ड आंधी तिनके के ढेर को क्षण में उड़ा देती है, श्वेत की चपलता ने सबको पलायन के लिए विवश कर दिया। वह गाजर-मूली की भांति कौरव सेना का संहार कर रहा था। दुर्योधन व्याकुल था। उसकी आर्त्त पुकार पर पितामह को स्वयं श्वेत की आंधी रोकने के लिए सामने आना पड़ा। श्वेत के पराक्रम के सामने वे भी असहाय-से दीखने लगे। उनका ध्वज कटा, धनुष भी कट चुका था और वक्षस्थल श्वेत के बाणों से बिंध गया था। घड़ी भर के लिए उनकी चेतना भी जाती रही। कौरव सेना में हाहाकार मच गया। श्वेत ने उनपर प्रहार नहीं किया। कुछ ही क्षणों में उनकी चेतना लौट आई। एक किशोर के हाथों अपनी पराजय वे भला कैसे स्वीकार कर सकते थे – मृत्युदण्ड बाण को ब्रह्मास्त्र से अभिमंत्रित कर श्वेत पर प्रक्षेपित किया। बाण श्वेत के कवच को भेदकर उसकी छाती में घुस गया। श्वेत वीरगति को प्राप्त हुआ।

पितामह ने प्रथम दिवस ही सिर्फ असाधारण स्थिति में प्रयुक्त होनेवाले, सीमित ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया – वह भी एक किशोर पर। मेरा मन भर आया। मुझे उनसे ऐसी अपेक्षा नहीं थी।

 

युद्ध के दूसरे दिन हमने क्रौंच व्यूह की रचना की। उत्तर में पितामह ने बाणाकार व्यूह रचा। दोनों पक्षों से प्रचण्ड शंखनाद किए गए। युद्ध पुनः आरंभ हो गया।

पितामह भीष्म का पराक्रम सहना हमारे किसी योद्धा के वश में नहीं था। वे भाद्रपद की वर्षा-बूंदों की तरह अभिमन्यु, भीमसेन, सात्यकि, कैकय, विराट, धृष्टद्युम्न आदि वीरों पर अनवरत बाण-वर्षा कर रहे थे। हमारा व्यूह छिन्न-भिन्न हो गया। सारी सेना तितर-बितर हो गई। महाकाल का रूप धारण किए पितामह की गति को रोकने के लिए मुझे सुरक्षा छोड़ आक्रमण के लिए उद्यत होना पड़ा। समय रहते उन्हें न रोका जाता तो वे संपूर्ण सेना का संहार कर देते। मैंने शीघ्रता से बाण-वर्षा करते हुए उनके शरों के जाल को काटा, फिर तेजी से पलक झपकते पितामह को पच्चीस, कृपाचार्य को नौ, द्रोणाचार्य को साठ, विकर्ण को तीन, शल्य को पांच और दुर्योधन को सात बाण मारकर कराहने के लिए वाध्य कर दिया। किसी के हाथ से धनुष गिरा, कोई मूर्च्छित हुआ तो कोई युद्धभूमि से पलायित हो गया। उस समय जो भी मेरे सामने आया, या तो वीरगति को प्राप्त हुआ, या रणभूमि छोड़ने के लिए विवश हुआ। मेरा रथ निर्द्वंद्व कुरुक्षेत्र में विचर रहा था।

कुरुक्षेत्र के दूसरे भाग में धृष्टद्युम्न ने प्रलय मचा रखा था। स्वस्थ होने के उपरान्त द्रोणाचार्य उससे जा भिड़े। धृष्टद्युम्न अतुलनीय पराक्रम प्रदर्शित कर रहा था। उसने आचार्य को घायल कर दिया। द्रोणाचार्य की आंखों से अग्निवर्षा होने लगी। कालदण्ड के समान प्रलयंकारी बाण निकाला, मंत्र से अभिषिक्त कर, धृष्टद्युम्न पर प्रहार किया। धृष्टद्युम्न ने प्रत्याघात शक्ति द्वारा उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इस बीच कलिंगराज द्रोणाचार्य की सहायता के लिए पहुंचे और भीम धृष्टद्युम्न की सहायता हेतु। थके द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न ने अपने-अपने रथ पीछे कर लिए। भीम ने अकेले कलिंगराज की समस्त सेना का संहार कर डाला। भानुमान किसी तरह प्राण बचाकर भागा।

मध्याह्न का सूर्य प्रखर हो चुका था। युद्ध भी अपने उत्कर्ष पर था। धृष्टद्युम्न अकेले ही अश्वत्थामा, शल्य और कृपाचार्य के छक्के छुड़ा रहा था और अभिमन्यु दुर्योधन-पुत्र लक्ष्मण को पीड़ित कर रहा था। मैंने देखा – अभिमन्यु को घेरने के लिए दुर्योधन के निर्देश पर पितामह और आचार्य द्रोण दो तरफ से बढ़े। मैं पवन वेग से आगे बढ़ दोनों के बीच आया; इतनी प्रबल बाण-वर्षा की कि अन्तरिक्ष, दिशाएं, पृथ्वी और सूर्य भी आच्छादित हो गए – अनगिनत योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए। चारो ओर अंधेरा छा गया। सूर्यास्त समझ पितामह ने युद्ध-विराम का प्रस्ताव किया। मैं उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कैसे कर सकता था? हम दोनों ने अपनी-अपनी सेनाएं युद्धभूमि से लौटा ली।

क्रमशः

 

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जन्मस्थान - ग्राम-बाल बंगरा, पो.-महाराज गंज, जिला-सिवान,बिहार. वर्तमान पता - लेन नं. ८सी, प्लाट नं. ७८, महामनापुरी, वाराणसी. शिक्षा - बी.टेक इन मेकेनिकल इंजीनियरिंग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय. व्यवसाय - अधिशासी अभियन्ता, उ.प्र.पावर कारपोरेशन लि., वाराणसी. साहित्यिक कृतियां - कहो कौन्तेय, शेष कथित रामकथा, स्मृति, क्या खोया क्या पाया (सभी उपन्यास), फ़ैसला (कहानी संग्रह), राम ने सीता परित्याग कभी किया ही नहीं (शोध पत्र), संदर्भ, अमराई एवं अभिव्यक्ति (कविता संग्रह)

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