तनवीर जाफ़री
पिछले महीने जम्मू-कश्मीर राज्य की पीडीपी-भाजपा संयुक्त सरकार की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती द्वारा माह-ए-रमज़ान शुरु होने से पहले राज्य में भारतीय सेना द्वारा एकतरफ़ा सीज़फ़ायर करने के अनुरोध किया गया था। भारत सरकार ने इस प्रस्ताव को स्वीकार तो ज़रूर कर लिया परंतु देश व कश्मीरवासियों को इस सीज़फ़ायर की भारी कीमत चुकानी पड़ी है। क्या राज्य की जिस आम जनता की आज़ादी,उनकी धार्मिक स्वतंत्रता उनकी शांति तथा रमज़ान के दौरान दिन-रात की जाने वाली इबादतों के मद्देनज़र भारत सरकार द्वारा सेना को इस पवित्र महीने में आतंकियों के विरुद्ध कोई बड़ी कार्रवाई न करने का जो निर्देश ‘सीज़फ़ायर’ के रूप में दिया गया था सरकार को इसके सकारात्मक परिणाम मिले भी हैं? या फिर यह एकतरफ़ा सीज़फ़ायर की क़वायद कश्मीरवासियों के लिए तथा भारतीय सेना के लिए एक घाटे का सौदा साबित हुई जबकि आतंकियों द्वारा इस इकतरफ़ा सीज़फ़ायर का इकतरफ़ा फ़ायदा उठाया गया और यह ‘आतंकियों की ईद’ ही साबित हुआ?
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में भी इसी प्रकार का एक प्रयोग कश्मीर में किया गया था। परंतु उस समय भी आतंकी अपनी हिंसापूर्ण कार्रवाईयों से बाज़ नहीं आए थे। इस बार भी पवित्र रमज़ान में जहां भारतीय सेना ने तथा राज्य व केंद्र की सरकार ने सामूहिक रूप से आतंकवादियों के प्रति नरमी बरतने का जो सद्भावपूर्ण फ़ैसला किया आतंकियों ने संभवतः उसे सेना व सरकार की कमज़ोर समझा और अपनी नापाक हरकतों को रमज़ान के लगभग पूरे महीने जारी रखा। कश्मीरी अलगाववादियों व आतंकवादियों की इस कार्रवाई में सीमापार से पाकिस्तान की ओर से भी भरपूर मदद की जा रही थी। नतीजतन पूरे महीने में घुसपैठ की कई घटनाएं घटीं,पाकिस्तान द्वारा सीमा पर कई बार गोलीबारी की गई, सीमावर्ती गांवों के रहने वाले सैकड़ों लोगों को रमज़ान में काफ़ी परेशानियों का सामना करना पड़ा। कई भारतीय जवान शहीद हुए और कई बेगुनाह नागरिकों की जानें गईं। आख़िरकार रमज़ान के महीने का समापन कश्मीर घाटी के एक वरिष्ठ, प्रसिद्ध व निष्पक्ष पत्रकार शुजात बुख़ारी की हत्या के साथ हुआ। शुजात बुख़ारी के साथ आतंकवादियों ने उनके सहयोगी दो पुलिस कर्मियों की भी हत्या कर दी।
सवाल यह है कि एक ओर तो जहां इसी ईद के दौरान दुनिया के सबसे बड़े आतंकी संगठन समझे जाने वाले तालिबानों ने अ ग़ानिस्तान में चल रहे इसी प्रकार के संघर्ष विराम को स मान देते हुए वहां ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ़ गनी से संघर्ष विराम की समय सीमा को और अधिक बढ़ाए जाने की घोषणा कर दी है तथा तालिबानों से भी राष्ट्रपति ने ऐसी ही अपील की है। अफ़ग़ानिस्तान सरकार द्वारा कई तालिबानी आतंकियों को वहां की जेलों से भी रिहा कर दिया गया है। और तो और गत् दिवस मनाई गई ईद में अफ़ग़ान सैनिक व तालिबानी आतंकी जो कभी एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे दिखाई देते थे वही एक-दूसरे से गले मिलते हुए और ईद की मुबारकबाद का आदान-प्रदान करते हुए देखे गए। वहीं आख़िर भारतवर्ष की कश्मीर समस्या या कश्मीर में फैला आतंकवाद क्या तालिबानी आतंकी विचारधारा से भी ज़्यादा ख़तरनाक रूप धारण कर चुका है? बड़े आश्चर्य की बात है कि अफ़ग़ानिस्तान,सीरिया,इराक तथा यमन जैसे देशों की हालत देखने के बावजूद मुट्ठीभर आतंकवादी तथा उनको भड़काने वाले चंद स्वार्थी अलगाववादी नेता यह नहीं समझ पाते कि यदि भारतीय सेना द्वारा भी आतंकियों के विरुद्ध दमनात्मक कार्रवाई एकतरफ़ा तरीके से की गई, ऐसे में वहां के आम आदमियों को कितनी परेशानी का सामना उठाना पड़ सकता है।
उन्हें इस बात का भी एहसास नहीं कि दमनात्मक सैनिक कार्रवाई का कश्मीर के सौंदर्य वहां के पर्यट्न तथा आम लेागों के जनजीवन,शिक्षा स्वास्थय,व्यवसाय आदि पर कितना विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। वे यह भी नहीं समझ पाते की उन्हें भड़काने तथा उकसाने वाला उनका कथित शुभचिंतक पाकिस्तान स्वयं अपने ही देश में किस प्रकार से आतंकवाद का शिकार है? कई राजनैतिक विश्लेषक इस बात का संदेह जता चुके हैं कि पाकिस्तान अपने अंतर्विरोधों के चलते तथा वहां के अनेक सत्ता केंद्र होने के नाते लगभग बिखरने की कगार पर खड़ा हुआ है और इन्हीं अलग-अलग सत्ता केंद्रों ने पूरे पाकिस्तान में आतंकवाद को फलने-फूलने का ऐसा मौका उपलब्ध कराया है जिससे पाकिस्तान को पूरी दुनिया आतंकवाद के एक बड़े उत्पादक देश के रूप में देख रही है। क्या ऐसा पाकिस्तान इन कश्मीरी अलगाववादियों व आतंकवादियों की किसी प्रकार की दूरगामी सहायता कर पाने की स्थिति में है? सिवाय इसके कि धर्म के नाम पर कश्मीर के बेरोज़गार,ग़रीब युवाओं को वरग़लाता रहे।
पत्रकार शुजात बुख़ारी निश्चित रूप से ऐसे पत्रकार नहीं थे जो कश्मीर की अवाम का पक्ष न रखते हों। या फिर कश्मीर में होने वाली सैन्य ज़्यादतियों पर आंखें बंद रखते हों। वे वास्तव में एक निष्पक्ष व निडर पत्रकार थे जो अपने पेशे को पूरी ईमानदारी के साथ अंजाम देना बख़ूबी जानते थे और दे रहे थे। एक पत्रकार के रूप में कश्मीर में उनकी कितनी लोकप्रियता थी और उनकी शहादत के बाद कश्मीर की अवाम ने उसे किस रूप में देखा यह बुख़ारी की उस शव यात्रा से स्वयं साबित हो जाता है जिसमें हज़ारों की भीड़ उनके जनाज़े में शरीक होकर उनकी मातमपुरसी कर रही थी। कौन कश्मीरी या कौन मुसलमान या कौन सा इंसान शुजात बुख़ारी की ईद से एक दिन पूर्व व रमज़ान के आख़िरी रोज़े के इ तार के वक्त से चंद मिनट पहले होने वाली इस हत्या को जायज़ ठहराएगा? बुख़ारी को अगले ही दिन सुबह अपने पैतृक गांव में परिवार के साथ जाकर ईद मनानी थी जहां उनकी शहादत की ख़बर सुनने के बाद ईद का दिन मातम में बदल गया। शुजात बुख़ारी के परिजनों तथा कश्मीर के शांतिप्रिय लोगों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि कश्मीर में सेना द्वारा रमज़ान में घोषित किए गए संघर्ष विराम का इतना बड़ा ख़मियाज़ा कश्मीर के लोगों को भुगतना पड़ेगा।
कहा जा सकता है कि जहां भारत सरकार ने राज्य सरकार के एकतरफ़ा सीज़फ़ायर करने के निवेदन को स्वीकार कर अपनी ओर से यह दर्शाने की कोशिश की कि भारत सरकार कश्मीर में शांति बहाली के लिए हर प्रकार के ज़ोख़िम उठाने को तैयार है और निश्चित रूप से सरकार को अपने इस फ़ैसले का ख़मियाज़ा भी भुगतना पड़ा है वहीं यह भी साफ़ हो गया कि आतंक की राह पर चलने वाले लोग न तो रमज़ान की पाकीज़गी को समझने की क्षमता रखते हैं न ही उन्हें अल्लाह, इस्लाम तथा धार्मिक शिक्षाओं की कोई परवाह है। संभवतः सेना द्वारा सीज़फ़ायर के रूप में उनके प्रति बरती गई नरमी आतंकवादियों के लिए तो ईद साबित हुई जबकि रमज़ान के महीने में शहीद होने वाले भारतीय सैनिकों,राज्य के पुलिस कर्मियों,शुजात बुख़ारी के परिजनों तथा रमज़ान में मारे गए बेगुनाह लोगों के परिवार के लोगों के लिए यह महीना मोहर्रम जैसे किसी शोकपूर्ण महीने से कम नहीं रहा। लिहाज़ा सरकार को आतंकवाद का जवाब उसी की भाषा में दो गुणा व चार गुणा ताकत से देने की ज़रूरत है। कश्मीर में शांति स्थापित करने का पहला ज़िम्मा वहां सक्रिय आतंकवादियों, अलगाववादी नेताओं तथा पाकिस्तान के बहकावे में आने वाले लोगों का होना चाहिए।