कुफ्र का फ़तवा या वैचारिक कट्टरता?

ग़ुलाम रसूल देहलवी

हाल ही में बिहार के मंत्री खुर्शीद आलम उर्फ फ़िरोज़ अहमद के “जय श्री राम” कहने पर इमारत-ए-शरिया नामी मदरसे से जुड़े मुफ्तियों की ओर से ‘कुफ्र’यानि इस्लाम से ख़ारिज होने का फ़तवा जारी किया गया। उन्होंने खुर्शीद को दोबारा इस्लाम धर्म स्वीकार करने और कलमा पढ़कर इस्लाम में दाख़िल होने का आदेश दिया।

मौलवियों द्वारा दिए गए हर धार्मिक बयान को फतवा का दर्जा नहीं दिया जा सकता। परन्तु इस्लाम से जुड़े किसी मसले पर क़ुरान और हदीस की रोशनी में जो हुक़्म जारी किया जाए तो वो फ़तवा है। इमारत-ए-शरिया के मुफ़्ती सुहैल कासमी का खुर्शीद आलम को इस्लाम से ख़ारिज करने का बयान भी ‘फ़तवा’ ही माना जाएगा। यहां ये बात भी साफ़ कर देनी ज़रूरी है कि फ़तवा हर मौलवी या इमाम जारी नहीं कर सकता है। बल्कि फ़तवा कोई मुफ़्ती ही जारी कर सकता है। मुफ़्ती बनने के लिए शरिया क़ानून, कुरान और हदीस का गहन अध्ययन ज़रूरी होता है, जोकि इमारत-ए-शरिया में ख़ास तौर पर सिखाया जाता है।

खुर्शीद आलम के खिलाफ दी गए फतवे में कहा गया था कि ‘जो मुसलमान जय श्री राम का नारा लगाए और ये कहे कि मैं रहीम के साथ-साथ राम की भी पूजा करता हूं…मैं भारत के सभी धार्मिक स्थान पर माथा टेकता हूं।। ऐसा व्यक्ति इस्लाम से खारिज (मुर्तद) है। उसकी पत्नी उसके निकाह से बाहर हो गई। ऐसे व्यक्ति पर दोबारा ईमान कबूल करना एवं दोबारा निकाह करना और तौबा करना आवश्यक है। और जब तक वह ऐसा नहीं करे तब तक मुस्लिमों को उससे किसी तरह का संबंध रखना स्थाई तौर पर जायज नहीं है। ऐसे शख्स से खुद भी बचें और मुसलमानों को भी बचाएं।”

इमारत-ए-शरिया के मुफ्ती सौहैल अहमद कासमी के इस फतवे के अनुसार जय श्री राम का नारा लगाने की वजह से ख़ुर्शीद का निकाह भी टूट गया और यदि वह इस्लाम में दोबारा आना चाहते हैं तो उन्हें माफी माँगनी होगी और दोबारा निकाह करना होगा! आखिरकार मौलवी समुदाय के विरोध के मद्देनजर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के निर्देश के बाद रविवार को मंत्री खुर्शीद ने माफी मांग ही ली।

माफी मांगने से पहले खुर्शीद ने अपनी बात पर अड़े रहना का संकल्प दिखाया था। अपने खिलाफ जारी फतवे के बाद उन्होंने कहा था, “किस उम्मीद के साथ क्या मकसद लेकर मैंने जय श्री राम के नारे लगाए, ये खुदा से बेहतर कोई नहीं जानता। रहा सवाल खुदा का तो कोई खुदा कहता है, कोई श्री राम कहता है। एक शक्ति है जो दुनिया को चला रही है।”

अपने पहले जवाब में ख़ुर्शीद ने सफाई देते हुए कहा था कि “मैं मुफ़्ती इमारत शरिया का सम्मान करता हूँ, लेकिन उन्हें फतवा जारी करने से पहले मेरा इरादा पूछना चाहिए था। इस्लाम का मतलब है कि किसी भी धर्म से नफरत नहीं, बल्कि प्रेम करना चाहिए। ए एन आई की न्यूज़ के अनुसार खुर्शिद ने अपने पहले बयान में कहा था कि, “बिहार के विकास और समरसता के लिए मैं जय श्री राम कहूँगा, मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है! मैं अपने इस कथन से कभी भी पीछे क़दम नहीं हटाऊंगा!”

लेकिन सवाल यह है कि किया खुर्शीद पर इमारत-ए-शरिया के मुफ्ती के फतवे का असर या डर हावी हो गया? वही खुर्शीद जिसने इस फतवा पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था कि ‘मैं किसी से नहीं डरता’, ‘मुसलमान ईमान का सच्चा होता है’, आख़िर उन्हें बाद में माफी क्यूँ मांगनी पड़ी? इस से साफ़ अंदाज़ा लगाया जा सकता कही आज भी कितना असरदार है मुफ़्ती का फ़तवा!

बताया जाता है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रविवार को जदयू के अल्पसंख्यक कार्यकर्ताओं की बैठक बुलाई थी, जहां इस प्रकरण पर भी चर्चा हुई। साफ़ ज़ाहिर है कि आज भी भारत के तथाकथित प्रगतिशील समाज में मुफ़्ती के फतवों का असर किसी मंत्री के बयान से कहीं ज़्यादा है। खुर्शीद अहमद ने साफ़ लफ़्ज़ों में कहा कि ‘मेरे बयान से अगर किसी की भावना आहत हुई है तो मैं माफी मांगता हूं’। लेकिन फिर भी उस पर बुतपरस्ती का फतवा लगाया गया, जो इस्लाम की मूल धारणा के विपरीत है। यही नहीं प्रसिद्ध मुस्लिम संगठन ‘जमीयते उलेमा-ए-हिन्द’ ने खुर्शीद को मंत्रिपरिषद से हटाए जाने की मांग कर डाली। संगठन के महासचिव अलहाज हुस्न अहमद कादरी ने कहा कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इस तरह के विवादास्पद व्यक्तियों को अपनी कैबिनेट में नहीं रखना चाहिए। इधर ऑल इंडिया मजलिस-ए-मशावरत के प्रदेश सचिव अनवारूल होदा ने कहा कि “खुर्शीद अहमद ने खुद बुतपरस्ती की बात कि है। ऐसे में उनके खिलाफ फतवा स्वाभाविक है”।

ऐसा लगता है कि हमारे उलेमा और मुफ़्ती साहिबों ने कुफ्र और इस्लाम से ख़ारिज करने का ठेका ले लिया है! जिसे चाहें मुसलमान बना दें,और जिसे चाहें फतवा लगा कर इस्लाम से ख़ारिज (मुर्तद), बुतपरस्त (मुशरिक), गुनाहगार (फ़ासिक़) और गुमराह (बिदअती) बना दें!

जब भी कोई व्यक्ति धार्मिक सोहार्द्य और मात्रभूमि के प्रति प्रेमवाद की बाद करता है, तो इन्हीं फतवों के अड्डों से मुफ़्ती और मौलवी साहिबान घबरा जाते हैं और फतवाबाज़ी करते हैं तथा धर्म और मज़हब के नाम पर अपने जाहिलाना फतवों से राष्ट्र में धार्मिक कट्टरवाद को बढ़ावा देते हैं।

क्या हमारे इस्लामी धर्मगुरु यह भूल गए हैं कि किसी के ईमान और कुफ्र का फैसला करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ अल्लाह और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास है? इस बात की क़ुरआन और हदीस और इस्लाम की पवित्रतम किताबों में साफ़ व्याख्या की गयी है। फिर भी क्या हमारे इस्लामी धर्मगुरु इल्म-व-आदब (नैतिकता) भूल चूके हैं? क्या आज कोई ऐसा प्रोग्रेसिव मुस्लिम विद्वान बचा है जिन पर मुफ़्ती और मौलाना साहिबान ने कुफ्र का फ़तवा ना लगाया हो?

यह कहना बिलकुल उचित होगा कि आज हमारा भारतीय मुस्लिम समाज धार्मिक कट्टरवाद, अराजकता, अतिवाद और धर्मान्धता से ज़्यादा हमारे समाज में पनप रहे मुफ्तियों के फतवों से भयभीत है! जो लोग धर्म के नाम पर फतवाबाज़ी कर रहे हैं, क्या वो आतंकवाद के विचारक से कम है?

यदि हमारे इस्लामी धर्मगुरु, मुफ़्ती, उलेमा अपनी मात्रभूमि और दुसरे धर्मों का सम्मान नहीं कर सकते तो इस तरह यह वैचारिकऔर कट्टरता को बढ़ावा दे रहे हैं!

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