अमेरिका की राह पर कुवैत

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प्रमोद भार्गव

अमेरिका की नीति का पालन करते हुए कुवैत ने कट्टरपंथियों का प्रवेश कुवैत में न होने पाए, इस नजरिए से पांच देशों के नगरिकों पर प्रतिबंध लगा दिया है। ये देश पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, इराक और सीरिया हैं। अब इन देशों के लोग पर्यटन, व्यापार और आगुंतक वीजा के आधार पर कुवैत में प्रवेश नहीं कर पाएंगे। इस आदेश को जारी करते हुए कुवैत सरकार ने कहा है कि इन देशों के नागरिकों के साथ आतंकवादी घुसपैठ कर सकते हैं, इसलिए यह प्रतिबंधात्मक कार्रवाई की गई है। कुवैत का यह फैसला अमेरिका द्वारा सात मुस्लिमबहुल देशों के नागरिकों के अमेरिका में प्रवेश पर रोक लगाने के बाद आया है। इसलिए ऐसा लगता है कि कुवैत ने अमेरिका का ही अनुसरण किया है। अमेरिका ने ईरान, इराक, लीबिया, सोमालिया, सूड़ान, सीरिया और यमन के नागरिकों के प्रवेश पर तीन माह के लिए रोक लगाई है। इन प्रतिबंधों के चलते यह आशंका भी जताई जा रही है कि चीन व रूस समेत कुछ अन्य यूरोपीय देश भी अपने यहां ऐसे प्रतिबंधात्मक आदेश जारी कर सकते हैं।

दरअसल मुस्लिम आतंकवाद ने दुनिया में ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि कई देशों को अपनी जान-माल की सुरक्षा की दृष्टि से अप्रवासियों को दरवाजे बंद करने को मजबूर होना पड़ रहा है। कुवैत की यह पहल अमेरिका से प्रेरित मानी जा रही है, किंतु बीते साल जिस तरह से आतंकवादियों ने एक शिया मस्जिद पर किए बम-विस्फोट में 27 लोगों को मार दिया था, यह घटना इस प्रतिबंधात्मक कार्रवाई का प्रमुख कारण रही है। वैसे कुवैत में लंबे समय से आतंकी वारदातें जारी हैं। इसलिए कुवैत बहुत पहले से ही इस प्रतिबंधात्मक प्रक्रिया की रूप-रेखा बनाने में जुटा था। अमेरिका की कार्रवाही से उसे बल मिला और उसने पांच देशों के नागरिकों के कुवैत में प्रवेश पर रोक लगा दी। हालांकि कुवैत एकमात्र ऐसा देश है, जिसने पहले भी सीरियाई नागरिकों के प्रवेश पर रोक लगा दी थी। वर्ष 2011 में कुवैत ने सभी सीरियाई नागरिकों के वीजा को खारिज कर दिया था। हालांकि पाकिस्तान पर प्रतिबंध हैरान करने वाली घटना है। क्योंकि पाक कुवैत को अपना अहम् कारोबारी साझेदार मानता रहा है। कुवैत के शाही शासक यहां नियमित शिकार के लिए आते रहे हैं। लेकिन दुनिया जानती है कि पाकिस्तान आतंकियों के पालन-पोषण से लेकर प्रशिक्षण देने तक का काम बेखौफ करता है। इन आतंकियों को प्रशिक्षण भी पाक सेना देती है। मुबंई हमले का षड्यंत्रकारी हाफिज सईद किशोर व युवाओं को खुलेआम आतंकवाद का पाठ पढ़ाने का काम करता है। हालांकि अमेरिका और कुवैत द्वारा पाकिस्तानी नागरिकों के अपने देशों में रोक के बाद पाकिस्तान ने इतना जरूर किया है कि हाफिज सईद को अपने ही घर में नजरबंद कर दिया है। लेकिन यह सिर्फ उसकी प्रतिबंध से मुक्ति की एक कुटिल चाल भर है।

दरअसल पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका और कुवैत के साथ-साथ दुनिया भर में आतंकी की वारदातें घटने का सिलसिला जारी है। भारत तो पाक-प्रायोजित आतंक का शिकार बीते तीन दशक से है। इस लिहाज से हम डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता संभांलते ही जो नीतिगत उपाय सामने आए हैं, उन्हें ट्रंप की टेढ़ी नीतियां कह कर नकारने की भूल नहीं कर सकते हैं। आखिर यहां सवाल खड़ा होता है कि अर्से से चले आ रहे इस इस्लामिक आतंकवाद को रोकने की पहल अब तक मुस्लिम देशों ने सामूहिक रूप से क्यों नहीं की ? पूरी दुनिया में धर्म के बहाने इस्लामिक आतंकवादी कहर बरपा रहे है। बावजूद मुस्लिम धर्मगुरूओं ने सामूहिक रूप से इस आतंकवाद की मुष्कें कसने की पहल कभी की हो, देखने सुनने में नहीं आया। आतंकी वारदातों के बाद अकसर यह सुनने में आता है कि आतंकियों का कोई धर्म नहीं होता, लेकिन हकीकत यह है कि ऐसे जुमलों का प्रयोग करके सच्चाई को छिपाने की कोशिश की जाती है। अब जब अमेरिका और कुवैत ने आव्रजकों के आगमन पर रोक लगा दी तो कहा जा रहा है कि यह रोक मजहब को आधार बनाकर लगाई गई है, गोया इससे विवेकशील विश्व जनमत आहत हुआ है। संयुक्त राष्ट्र की महासचिव एंतोनेयो गुतेरेस का भी कहना है कि धर्म या नस्ल पर आधारित सीमा संबंधी नीतियां उन मूलभूत सिद्धांतों के विरुद्ध हैं, जिन पर हमारे समाजों की सरंचना रची गई है। लेकिन इस परिप्रेक्ष्य में ध्यान रखने की जरूरत यह है कि डोनाल्ड ट्रंप ‘अमेरिका प्रथम‘ के नारे के बूते विजयी हुए थे और वे उसी पर अमल की रणनीति के लिए नीतिगत उपाय कर रहे हैं। किसी भी लोकतंत्र में बहुमत का आदर उस देश के संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धांतों का सम्मान माना जाता है। दूसरी तरफ कुवैत तो खुद एक मुस्लिम देश है, ऐसे में उसे यदि मुस्लिम देशों पर ही प्रतिबंध लगाने को विवष होना पड़ा है तो इसलिए क्योंकि ये देश आतंक की फसल उपजाने से बाज नहीं आ रहे हैं। कुवैत को यह प्रतिबंधात्मक नीति तब अपनानी पड़ी है, जब वहां बीते साल नवंबर में राष्ट्रिय संसद के हुए चुनाव में अतिवादी मुसलमानों को बड़ी सफलता मिली है। 50 सदस्यीय संसद के निर्वाचन में इख्वान उल मुस्लिमीन, सल्फी जमात और अन्य अतिवादी इस्लामी संगठनों की यह जीत जताती है कि अतिवादी मुस्लिम भी आतंकियों की फसल पैदा करने वाले देशों के कतई हिमायती नहीं हैं।

दरअसल मुस्लिमों की संकीर्ण सोच और आक्रमणकारी रूख से चीन भी परेशान है। इसलिए चीन ने मुसलमानों पर हाल ही में कड़े प्रतिबंध लगाए हैं। हालांकि चीन सरकार सीधे-सीधे मुसलमानों की आस्था को तो आहत नहीं कर रही है, लेकिन राजनीति, विधि और शिक्षा के मामलों में मुसलमानों को हस्तक्षेप की अनुमति कतई नहीं है। यही नहीं चीन ने यह भी फरमान जारी किया गया है कि चीन में बनने वाली मस्जिदें अरबी वास्तुकला की बजाय, केवल चीनी स्थापत्य के अनुसार बनाई जाएंगी। हाल ही में मुसलमानों को यह निर्देश दिया गया है कि पासपोर्ट पुलिस थानों में जमा करें। मुसलमानों की गतिविधियों पर कड़ी नजर रखने की सलाह भी पुलिस को दी गई है। मुसलमानों को नए पासपोर्ट दिए जाने पार भी रोक लगाई गई है, जिससे इस्लामी उग्रवाद में इजाफा न हो। साफ है, मुस्लिम आतंकवाद की समस्या व्यापक है और कमोवेश सभी विकसित व विकासशील देश अपनी समावेषी नीतियों में इस्लामिक आतंकवाद के चलते बदलाव लाने को मजबूर हो रहे है।

इस्लामिक रूढ़िवाद का विस्तार ही वह प्रमुख वजह है, जिसके चलते अन्य धर्मावलंबियों में चरमपंथ गहरा रहा है। समावेषी उदारता कट्टरता का आवरण ओढ़ने को विवश हो रही है। डोनाल्ड ट्रंप की जीत इस कट्टरता की परिणति ही है। ताजा खबरें तो यहां तक आ रही हैं कि जल्दी ही ट्रंप प्रशासन विभिन्न कंपनियों और व्यक्तियों को यह अधिकार देने जा रहा है कि वे अपनी धार्मिक मान्यता के आधार पर किसी को भी नौकरी देने से मना कर सकते हैं। इसे सीधे तौर पर धार्मिक आजादी पर हमला माना जा रहा है। इस मांग को अमेरिका के रूढ़िवादी ईसाई अर्से से उठा रहे हैं। ‘वाशिंगटन पोस्ट‘ ने खबर छापी है कि यदि इस मंशा से संबंधित आदेश को राष्ट्रपति ट्रंप की मंजूरी मिल जाती है तो कंपनियों को धार्मिक आधार पर नियुक्ति की स्वतंत्रता मिल जाएगी। साफ है, इस तरह की मंशाएं यदि नीतिगत उपायों में बदलती है तो नब्बे के दशक में भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारवाद की जो अवधारणाएं फलीभूत हुई थीं। वे अपने दायरों में सिमट जाएंगी। किंतु इसके लिए अमेरिका, कुवैत या चीन को दोषी ठहराने से पहले दुनिया के रहमदिलों को इस्लाम और इस्लामिक आतंकवाद से सवाल पूंछने की जरूरत है कि वे धर्म के आधार पर दुनिया को एकधु्रवीय बनाने की नाकाम कोशिशों में क्यों लगे हुए हैं ?

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