पाकिस्तान से विस्थापित आबादी की जमीन का भी हो हिसाब

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मनोज ज्वाला

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रत विभाजन के पश्चात पाकिस्तान में गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक लोगों की आबादी वहां की कुल आबादी का 20 प्रतिशत थी। वे लोग भारत इस कारण से नहीं आये थे कि उन्हें कांग्रेसी नेताओं के साथ भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु और पाकिस्तान के गवर्नर जनरल मुहम्मद अली जिन्ना की ओर से यह आश्वस्त किया गया था कि पाकिस्तान में उनके साथ कोई भेदभाव नहीं होगा। उन्हें सभी प्रकार के मौलिक अधिकार समान रुप से प्राप्त होंगे। अतएव उन्हें पाकिस्तान से बाहर जाने अथवा भारत आने की कोई जरूरत नहीं, वे अपने स्थान पर ही रहें। जिन्ना ने तो यह भी कहा था कि पाकिस्तान एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होगा जहां हिन्दुओं की धार्मिक स्वतंत्रता पर कोई आंच नहीं आएगी। किन्तु, हुआ ठीक इसके उल्टा। मुसलमानों का जिहादी आतंक हिन्दुओं को इस कदर आतंकित-प्रताड़ित करने लगा कि और तो और, विभाजन के समर्थन में ‘मुस्लिम-दलित भाई-भाई’ का नारा लगाते हुए पाकिस्तान जाकर जिन्ना की कृपा से वहां का प्रथम कानून मंत्री बने जोगिन्द्रनाथ मण्डल को भी महज कुछ ही महीनों बाद इस्तीफा देकर अपनी जान बचाने के लिए भारत भागकर आना पड़ा। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। पूरी की पूरी हिन्दू आबादी जिहादियों की नाकेबंदी से इस कदर घिर चुकी थी कि उन सब का वहां से निकल भागना मुश्किल हो गया। जबकि, भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के मुसलमानों को इस बाबत पूरी आजादी रही कि वे जहां चाहें वहां अपना बसाव बना सकते हैं। लगभग बीस वर्षों तक पाकिस्तान के मुसलमान भारत और भारत के मुसलमान पाकिस्तान आते-जाते रहे। उनमें लाखों लोग ऐसे भी थे जिनके परिवार के आधे लोग भारत रह गए और आधे लोग पाकिस्तान चले गए। कई ऐसे भी थे जिनके वाणिज्य-व्यापार दोनों देशों में कायम रहे। वे सभी एकदम सुरक्षित हालातों में एक-दूसरे से मिलते-जुलते रहे और अपनी सुविधानुसार यहां-वहां अपना बसाव बदलते भी रहे। मुस्लिम स्वामित्व वाली हमदर्द कम्पनी का कारोबार दोनों देशों में फैलता रहा और उसके मुस्लिम कारिन्दे भारत में भी इत्मीनान फरमाते रहे। किसी मुस्लिम के नाम पाकिस्तान की किसी कोर्ट से वारंट निर्गत हुआ तो वह भारत आकर रह-बस गया।साहित्यकार कुर्रतुल ऐन हैदर को तो भारत का पूरा साहित्यिक महकमा जानता है। उन्होंने विभाजन की त्रासदी पर ‘आग का दरिया’ नामक उपन्यास लिखा तो लाहौर से उसका प्रकाशन होते ही पाकिस्तान के मुस्लिम कठमुल्लाओं की जमात ऐसे भड़क उठी कि हैदर को सन 1959 में भारत आकर भारतीय बनना पड़ा और यहां के सहिष्णु समाज से लेकर धर्मनिरपेक्षी शासन तक ने उन्हें सम्मानित किया। किन्तु, उसी वर्ष भारत से जोश मलीहाबादी नामक एक शायर भारत से पाकिस्तान चले गए तो उन्हें अपने इस निर्णय के लिए ताउम्र पछताते रहना पड़ा। जैसा कि उनकी आत्मकथा ‘यादों की बारात’ में भी वर्णित है। दरअसल, पाकिस्तानी मुस्लिम समाज में कट्टरपंथी मौलानाओं की अलग अंतर्धारा चलती रहती है, जो समाज और शासन दोनों को नियंत्रित-निर्देशित करती है। इस कारण उसके समक्ष सामान्य मुसलमान विवश हो जाता है। यही कारण है कि इस्लाम के नाम पर भारत का विभाजन हो जाने के बावजूद पाकिस्तान से भारी संख्या में मुसलमान भारत आकर बसते रहे हैं। संगीतकार के तौर पर बड़ी ख्याति अर्जित कर चुके बड़े गुलाम अली खां भी पाकिस्तान से ही भारत आकर स्थापित हुए।ऐसी सुविधा केवल मुसलमानों को ही उपलब्ध रही कि वे जब जहां चाहे वहां रह-बस गए। किन्तु विभाजन के वक्त पाकिस्तान की सीमा से बाहर नहीं निकल सके गैर-मुस्लिमों को ऐसी आजादी मय्यसर नहीं हो सकी। क्योंकि, तब तक पाकिस्तान बकायदा इस्लामिक स्टेट बन चुका था और दोनों देशों के बीच आब्रजन के लिए पासपोर्ट-वीजा की अनिवार्यता कायम हो चुकी थी। तब भी भारत की धर्मनिरपेक्ष सरकार तो मुसलमानों को यहां से वहां और वहां से यहां आने-जाने की सुविधाएं उपलब्ध कराने के प्रति उदार बनी रही, किन्तु हिन्दुओं को तो पाकिस्तान से सही-सलामत निकल भागने की सरकारी सुविधाओं से भी वंचित होकर वहीं रहना-मरना-खपना उनकी नियति बन गई। इसी कारण भारत से कोई हिन्दू बसने के लिए पाकिस्तान कभी नहीं गया। जबकि विभाजन के बाद लाखों मुसलमान पाकिस्तान से आकर भारत बस चुके हैं। इक्का-दुक्का कोई हिन्दू कभी आया भी तो वहां अपना सब कुछ गंवाकर ही आ सका।मालूम हो कि विभाजन के वक्त पाकिस्तान में ही रह गए हिन्दुओं की आबादी लगभग ढाई लाख थी। उनमें से कोई भी परिवार भूमिहीन नहीं था। किन्तु, आज वहां जितने भी हिन्दू बचे हुए हैं, उनमें शायद ही कोई परिवार किसी भूखण्ड का मालिक हो। पर्यटन-वीजा पर भारत आये हिन्दुओं के एक समूह से दिल्ली में हुई मुलाकात के दौरान उन्होंने बताया कि शासनिक संरक्षण में वहां के कठमुल्लाओं ने उन्हें उनकी जमीन से बेदखल कर दिया। विभाजन से पहले वहां जो हिन्दू परिवार जमींदार था आज मजदूर बना हुआ है। उनकी आबादी भी घट-मिटकर महज कुछ लाख बच गई है। अधिकतर लोग मार डाले गए या धर्मान्तरित कर लिए गए। इसी कारण वहां से जैसे-तैसे भारत आये वे लोग पाकिस्तान वापस जाने से इनकार करते हुए दिल्ली में दर-ब-दर भटक रहे थे और भारत की नागरिकता मांग रहे थे। अब भारत सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम बनाकर उन्हें भारतीय नागरिकता हासिल करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है तो जाहिर है कि पाकिस्तान से जिहादी आतंक पीड़ित हिन्दुओं की बची-खुची आबादी अगले दिनों भारत आकर बसेगी ही। भारत के लोगों को उनका स्वागत करना ही चाहिए। लेकिन तब एक सवाल यह उठता है कि पाकिस्तान सरकार की नाइंसाफी के कारण पाकिस्तान छोड़कर भारत में आ बसने वाले उन हिन्दुओं के हिस्से की जमीन का क्या होगा? यहां यह उल्लेखनीय है कि हिन्दू-मुस्लिम नामक दो पृथक-पृथक धर्म व मजहब के आधार पर विभाजन के दौरान आबादी अनुपात के अनुसार पाकिस्तान का आकार गढ़ा गया था और तदनुसार भारत की तमाम सम्पत्तियों का भी बंटवारा हुआ था। पाकिस्तान को जिस अनुपात में जो भूमि और सम्पत्ति मिली थी, उसमें वहां रह गए उन हिन्दुओं का भी हिस्सा समाहित है जो विभाजन के वक्त जिन्ना-जवाहर के आश्वासनों पर विश्वास कर वहां रह गए थे। किन्तु अब वहां के इस्लामिक शासन से प्रताड़ित होते रहने के कारण भारत आकर बस रहे हैं या बसने वाले हैं। तो अब पाकिस्तान की एक बड़ी आबादी का भारत में आ बसने पर भारत को उनके हिस्से की जमीन क्यों नहीं चाहिए? यह आबादी केवल हिन्दुओं की ही नहीं है। इस विस्थापित आबादी में तो सन 1947 से आज तक भारत आकर बसते रहने वाले मुसलमान भी शामिल हैं। अतएव भारत सरकार को चाहिए कि वह पाकिस्तान के अस्तित्व में आ जाने और विभाजन की सारी प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद वहां से आये लोगों की आबादी का निर्धारण कर उस अनुपात में उतनी जमीन पाकिस्तान की सीमा से काट कर भारत की सीमा में जोड़ने का अपना दावा संयुक्त राष्ट्र संघ के समक्ष जरूर पेश करे।

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