खेलने खाने दो उनको !

खेलने खाने दो उनको,
टहल कर आने दो उनको;
ज़रा गुम जाने दो उनको,
ढूँढ ख़ुद आने दो उनको !

नहीं कोई कहीं जाता,
बना इस विश्व में रहता;
स्वार्थ में रम कभी जाता,
तभी परमार्थ चख पाता !

प्रयोगी प्रभु उसे करते,
जगत बिच स्वयं ले जाते;
हनन संस्कार करवाते,
ध्यान तब उनका लगवाते !

बाल वत विचर सब चलते,
प्रौढ़ होते समय लेते;
प्रकृति की टहनियाँ लखते,
विकृति तब ही मिटा पाते !

दर्द अपनों को दे जाते,
भाँप पर वे कहाँ पाते;
‘मधु’ हिय उर रखे उनके,
मुक्त मन निरखते उनको !

✍? गोपाल बघेल ‘मधु’

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