इस अलोकतांत्रिक-से माहौल में रहते हुए …

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गिरीश पंकज


केंद्र सरकार का जो जनविरोधी चेहरा सामने आ रहा है, उसे देख कर हैरत होती है। लोक पर बढ़ती पर बढ़ती दमनकारी मानसिकता के समय-समय पर नमूने हम देखते रहे हैं। काँग्रेस महासचिव दिग्विजय के बयानों को गौर से देखें तो लगता है कि बस एक ही व्यक्ति काफी है काँग्रेस की लुटिया डुबोने के लिए। पिछले एक सालों में दिग्विजय सिंह ने अनेक विवादास्पद बयान दिए हैं जिस कारण काँग्रेस की फजीहत ही हुई है। अधिकांश बयानों में कांग्रेस महासचिव के तेवर लोकतांत्रिक नहीं, सामंती ही नजर आए। अब तो ऐसे लगने लगदा है कि देश में लोकतंत्र कुछ दिनों के लिए स्थगति-सा कर दिया गया है। सत्ता दमनकारी भाषा में बात कर रही है। जनभावनाओं के विपरीत आचरण कर रही है। महँगाई का तोजैसे बूम आया है। यह ऐसी बाढ़ है जिसे रोकने का कोई उपाय नहीं किया जा रहा है औरसरकार में बैठे लोग प्राइवेट लिमिटेड कंपनी जैसी भाषा में बात कर रहे हैं। लग ही नहीं रहा कि ये जनता  के प्रतिनिधि हैं। जैसे कोई कंपनी घाटे में चलती है तो वह उसकी भरपाई के जतन करती है, ठीक उसी तरह केंद्र सरकार आचरण कर रही है। अपने खर्चों में कटौती करने के बजाय सरकार हर बार जनता पर ही बोझ डालती जा रही है। कुल मिला कर एक असफल, असंवेदनशील केंद्र सरकार को झेलते हुए यह देश जैसे इस पूरी व्यवस्था को बदलने की मानसिकता से ही गुजरने लगा है। पता नहीं केंद्र में बैठी यूपीए सरकार जनभावनाओं को महसूस भी कर पा रही है या नहीं। दरअसल सत्ता के चश्मे का काँच इतना मोटा होता है कि उसेकेवल हरा-हरा ही दीखता है। लोगों के दु:ख-दर्द, परेशानियाँ या भावनाएँ उसे नजर ही नहीं आते। इसीलिए वह केवल दमन के रास्ते पर चल कर कानून-व्यवस्था को बनाए रखने की बात करती है। 
लोकपाल बिल को ले कर जो माहौल बना है, उसे देखें तो साफ हो जाता है कि केंद्र सरकार जनताकी सरकार नहीं लगती। उसका चरित्र बहुत हद तक सामंती ही नजर आ रहा है। वह दमनकारी सुर अलाप रही है। लोकपाल के प्रावधान भी ऐसे हैं जिसे समझने की जरूरत है। किसी अधिकारी के विरुद्ध कोई नागरिक भ्रष्टाचार की शिकायत करेगा और अगर शिकायत गलत पाई जाएगी तो शिकायतकर्ता को तो दो साल की सजा मिलेगी और अगर शिकायत सही पाई गई तो संबंधित अफसर को छह माह की सजा मिलेगी। इस तरह के प्रावधान यह संकेत देते हैंकि सरकार की मानसिकता क्या है। वह जनता को डराना चाहती है कि खबरदार, झूठी शिकायत की तो..। हर कोई जानता है कि सत्ता-प्रशासन में बैठे नेता-अफसर हर मामले को मैनेज कर लेते हैं। किसी की शिकायत को झूठी साबित करना कोई बड़ी बात नहीं। अन्ना हजारे लोकपाल को स्वायत्तपूर्ण बनाना चाहते हैं तो गलत नहीं चाहते।  लोकपाल की स्वायत्ता ही उसे ताकतवर बनाएगी और भ्रष्टाचार मुुक्त राष्ट्र की बेहतर शुरुआत का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। जब चुनाव आयोग, सूचना आयुक्त और सुप्रीम कोर्ट स्वायत्त हैं तो लोकपाल को क्यों नहीं बनाया जा सकता? आखिर डर किस बात का है? लगता है कि केंद्र डरा हुआ है। जिस तरह उसके मंत्रिमंडल में भ्रष्ट सदस्य बेनकाब हुए और जेल की सजा काट रहे हैं, उसे देख कर सरकार अभी से सावधान है कि कमजोर लोकपाल बिल ही लाया जाए। जिसके केवल दाँत तो नजर आएं, जो केवल दिखने के काम आए, काटने के नहीं। इसलिए यह जरूरी है कि लोकपाल के पास अभियोजन का भी अधिकार हो। 
लोकपाल बिल में और क्या-क्या प्रावधान हो सकते हैं, इस बात को ले कर अन्ना हजारे की टीम देश का दौरा भी करने वाली है। सीधे-सीधे जनता से जुड़ कर बेहतर बिल लाने की दिशा में यह सार्थक पहल है। अन्ना मजबूत लोकपाल बिल चाहते हैं इस हेतु वे अनशन की धमकी दे चुके हैं। लेकिन उस अनशन से निपटने की चेतावनी काँग्रेस महासचिव दे चुके हैं। उनका इशारा साफ ता कि जिस तरह रामदेव बाबा के आंदोलन का पुलिसिया दमन किया गया, ठीक उसी तरह अन्ना के आंदोलन को भी कुचल दिया जाएगा। और ऐसा हो सकता है। सत्ता भले ही लोकतांत्रिक हो, मगर उसे संचालित करने वाले सामंती मनोवृत्ति के हो जाएँ तो कुछ भी संभव है। दिग्विजय ने रामदेव के दमन के बाद कहा था कि यह सरकार के इशारे पर नहीं हुआ था, वह पुलिस का अपना कदम था। दिग्विजय सिंह ऐसा कह कर किसे मूर्ख बना रहे हैं या समझ रहे हैं? हालांकि बाद में दिग्विजय सिंह ने यह भी कहा कि मेरी बातों को मीडिया ने गलत अर्थ निकाला, लेकिन पहली बार में ही दिग्गी की मानसिकता स्पष्ट हो गई थी। सामंती संस्कार इतनी जल्दी नहीं छूटते। हैं तो वे राज परिवार से ही न? जिनका काम ही था देश में राज करना। आजादी के बाद इस देश के पूर्व राजा-महाराजा भले ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में साँस ले रहे हों, मगर उनकी तो फितरत वहीं सामंती है। उनके अनेक बयान बचकाने साबित हुए और काँग्रेस की छवि को धूमिल करने वाले भी। कांग्रेस महासचिव और केंद्र में बैठे अन्य लोग जिस तरह की जुबान में बात कर रहे हैं, उसे देख कर यही लगता है कि देश में अभी लोकतंत्र काजल कहीं ठहरा हुआ है। केंद्र अपनी असफलताओं से बौखला गई है। वह यह भी नहीं चाहती कि देश की जनता अपने गुस्से का इजहार करे। अब अनशन, सत्याग्रह जैसे हथियारों को ब्लैकमेल कहा जाने लगा है। आखिर देश की जनता अपने को अभिव्यक्त करने के लिए क्या करे? क्या घर बैठे फेसबुक या ब्लॉग के जरिए भड़ास बाहर निकालती रहे? इससे बात नहीं बनती। जब तक जन आक्रोश सामने नहीं दीखता, सत्ता भी नहीं चेतती। इसलिए अनशन, सत्याग्रह को रोकने की बात करने वाले सामंती लोग हैं, और कहीं न कहीं, वे अँगरेज़ोके बनाए कानूनों के सहारे स्थाई रूप से राज करने की मानसिकता में ही नजर आ रही है। 25 जून को देश में आपात्काल लागू किया गया था। इस वक्त भी देश में एक तरह का अघोषित आपातकाल लगा हुआ है। मुझे शेर याद आ रहे हैं कि ”सच कहना दुश्वार हुआ है, खुल कर अत्याचार हुआ है। बड़े-बड़े भी मात का गए, छिप कर जब भी वार हुआ है”। इस वक्त देश में खुल कर अत्याचार करने की सरकारी मानसिकता साफ नजर आ रही है। इसके विरुद्ध अगर प्रतिवाद के स्वर मुखरित होते हैं, तो उसका स्वागत होना चाहिए, क्योंकि यह सब देख कर लगता है कि देश में लोग जिंदा है। वरना दिल्ली तो चाहती है कि यह समय मुर्दा-समय में ही तब्दील हो जाए।

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