कविता

शायद पत्रकार हूँ मैं….

journalistक्या कहूँ कौन हूँ मैं???

शायद इंसानों की भीड़ का हिस्सा,

या उस भीड़ में सबसे जुदा

शब्दों का काश्तकार हूँ मैं,

शायद पत्रकार हूँ मैं…

एक आईना जो बहुत कुछ दिखता है,

कभी हकीकत तो कभी झूठ से भी मिलवाता है,

कभी-कभी तो धुंधुला भी पड़ जाता है,

उस आईने का व्यवहार हूँ मैं,

शायद पत्रकार हूँ मैं…

लोकतंत्र में रहते हुए

स्वयं को एक स्तम्भ कहते हुए,

जनता के इस तंत्र का पहरेदार हूँ मैं,

शायद पत्रकार हूँ मैं…

बाजारीकरण के इस दौर में

आगे बढ़ने की होड़ में,

टीरपी की दौड़ में,

पत्रकारिता से समझौता करता

एक नया बाज़ार हूँ मैं,

शायद पत्रकार हूँ मैं…

फिर भी पत्र को एक आकार देता हूँ

किसी को अन्धा तों किसी को आखे चार देता हूँ,

किसी को काली दुनिया तों किसी को रंगीन स्वप्नहार देता हूँ,

नए नए समाचारों के बीच,

एक अलग विचार हूँ मैं,

शायद पत्रकार हूँ मैं…

लकिन कभी खुद को कोसता,

अपने भीतर पत्रकारिता की लौ को खोजता,

रोज नई आधियों के बीच डगमगाती उस लौ का,

हिस्सेदार हु मैं,

शायद पत्रकार हूँ मैं…

– हिमांशु डबराल