हिमालय, देवदारु और चन्द्रमा
गगनमण्डल, तारागण
भवखंडना की दिव्य आरती।
मुझमें संन्यस्त काशी का झिलमिल गंगातट
भावक इस पूरे उपक्रम का।
कर्पूरगौर धूर्जटी का आनन्दलास
दृष्टि, दृश्य,द्रष्टा सब एकतान।
ओ कातिक की पूनो
मैं कैसे डूबूँ कैसे पार तरूँ?
देवदारु हो ओढ़ूँ हिम को
या बन निर्झर सर्वस्व लुटाऊँ?
अमानिशा की श्यामा धारूँ
और पूनम तक मिट-मिट जाऊँ?
नगाधिराज के हिमशिखरों में
चंद्रकिरण की निष्कलुष सेज पर
चरैवैति का मंत्र ग्रहण कर
अमल-धवल दाढ़ी लहराऊँ?
बोल उठी तब त्रिपुरसुंदरी
तू डूबे क्यों,क्यों पार तरे?
तेरे समस्त गान, रुदन औ’ हास
ऊँ नमो मणिपद्मे हुं का पाठ
तेरा प्रचलन मेरी प्रदक्षिणा
तेरा कुछ भी मेरा सबकुछ
ओ मेरे प्यारे अबोध शिशु
गोद भरे,तू मुझमें नित-नूतन मोद भरे।