मुस्लिम महिलाओं का शंखनाद

तीन तलाक़ पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर जहां हज़ारों लाखों पीड़ित मुस्लिम महिलाएं प्रसन्नता व्यक्त कर रही है और भविष्य में इस अन्यायी प्रथा से बचने वाली लाखो-करोड़ों मुस्लिम बालिकाएं व युवतियां भी स्वयं को कुछ स्वतंत्र व सुरक्षित समझने का साहस कर रही है ,वही कुछ मुस्लिम धर्म के कट्टरपंथी मौलवी, उलेमा व मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य आदि अपनी अपनी संकीर्ण मानसिकता के कारण इस निर्णय का विरोध कर रहें है । कोई धमकी भरें अंदाज में कह रहा है कि “शरिया में किसी को हस्तक्षेप करने का अधिकार नही”  , “धार्मिक आस्थाओं से खिलवाड़ नही होगा वरना यह बहुत मुश्किल हो जायेगा”  आदि आदि । अधिकांश उलेमाओं व कुछ मुस्लिम नेताओं ने भी कुछ ऐसे ही क्रोधित तेवर दिखाते हुए अपना विरोध प्रकट किया है। ध्यान रहें कि जब इस तीन तलाक़ के विवाद पर पिछले वर्ष से निरंतर चर्चाऐं हो रही थी तब भी कुछ कट्टरपंथियों ने देश में गृह युद्ध जैसी स्थिति बनाने की धमकी तक देने का दुःसाहस किया था। लेकिन किसी ने क्या कभी यह सोचा कि यह कैसी मुस्लिम धार्मिक कुप्रथा है जिसमें एक साथ तीन बार तलाक़ को अभिव्यक्त करने के अनेक रुपो में से किसी भी एक प्रकार से एक पुरुष अपनी पत्नी को तलाक दे देता है।परंतु उस पीड़ित मुस्लिम महिला जिससे निकाह के समय तीन बार ‘कुबूल है’ कहलवाया जाता है, परंतु तलाक़ में उसकी कोई सहमति नहीं ली जाती तो क्या यह एकपक्षीय अन्याय नहीं हुआ ? किसी भूल सुधार व पश्चाताप की स्थिति में अपने पूर्व पति से तलाक़शुदा महिला का पुनः निकाह के लिए हलाला जैसी व्यवस्था व्यभिचार को बढ़ावा देकर मानवीय संवेदनाओं का शोषण व चारित्रिक पतन की पराकाष्ठा ही तो है । तलाक़शुदा मुस्लिम महिला अपने बच्चों को लेकर दर दर की ठोकरें खाने को विवश होती रहें फिर भी सारा कट्टरपंथी समाज अपनी दकियानूसी धार्मिक कुरीतियों के कारण सब कुछ चुपचाप सहता रहें । इस प्रकार सदियों से मुस्लिम महिलाओं का मानसिक व शारीरिक उत्पीड़न होता आ रहा है। मुस्लिम पुरुषों की ऐसी अधिनायकवादी सोच के कारण समान्यतः पीड़ित मुस्लिम महिलायें “मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड” को  “मुस्लिम मर्द पर्सनल लॉ बोर्ड” भी कहने लगी है। अधिकाँश कट्टरपंथी व सेक्युलर कहते है कि सरकार को धार्मिक मामलो में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। परंतु सरकार का अपने नागरिको को ऐसे अमानवीय अत्याचारों से बचाने का संवैधानिक दायित्व तो है । निसंदेह न्यायपालिका जनता के अधिकारों की रक्षा एक अभिभावक के रुप में करती है। विशेषतः कानूनों को व्यवस्था सामाजिक जीवन को उन्नति की ओर ले जाने के लिए की जाती है , किसी के जीवन को अंधेरी कोठरी में बंद करने के लिए नहीं । अतः आज के वैज्ञानिक युग में जब आधुनिक समाज चारों ओर अपनी अपनी प्रतिभाओं के अनुसार निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर है तो उस परिस्थिति में मुस्लिम महिलाओं को तलाक़, हलाला, मुताह व बहुविवाह जैसी अमानवीय कुरीतियों से छुटकारा दिलवाना सभ्य समाज का दायित्व है साथ ही राष्ट्रीय संवैधानिक व्यवस्था भी मानवीय अधिकारों की रक्षा के प्रति अनिवार्य रुप से संवेदनशील होती है ।
वस्तुतः  तीन तलाक़ , हलाला व  बहुविवाह  आदि अत्याचारी कुरीतियों से पीड़ित मुस्लिम महिलाओं की सजगता व सक्रियता ने ही न्याय की मांग करके अपने स्वतंत्र अधिकारो के लिए संघर्ष छेड़ा है। इस अत्यंत पीड़ादायक कुप्रथाओं के विरुद्ध मुस्लिम महिलाओं का शंखनाद हमारे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष समाज पर भी एक करारा तमाचा है, जो धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देते नहीं थकता परंतु मुस्लिम युवतियों व महिलाओं पर सदियों से हो रहे ऐसे अमानवीय अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाने से भी डरता है। पिछले वर्ष मुस्लिम महिलाओ के एक स्वयं सेवी संगठन ने मुस्लिम महिलाओं का सर्वे करवाया जिसमें 92 प्रतिशत मुस्लिम महिलायें तीन तलाक पर रोक चाहती हैं। देश के कोने कोने से शायरा, आफरीन, इशरत, गुलशन, आतिया , नूरजहां, जकिया आदि अनेक पीड़ित व जागरुक मुस्लिम महिलाओं ने जिसप्रकार इन कुप्रथाओं के विरुद्ध एकजुट होकर न्याय के लिए संघर्ष किया है वह सराहनीय है। इसी के प्रभाव में केंद्र सरकार ने विधि आयोग द्वारा पिछले दिनों इन विवादो को दूर करने के लिए एक सर्वे भी कराया और उसका परिणाम भी मुस्लिम महिलाओं के पक्ष में ही रहा।यहां यह उल्लेखनीय हैं कि एक-दो वर्ष से भारतीय समाज में मुस्लिम महिलाओं के अत्याचारों के प्रति विरोधी विचार विकसित करने में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भी विशेष भूमिका रही।साथ ही सोशल मीडिया के अति व्यस्त नेटवर्क ने तो इन कुरीतियों को समाप्त करवाने और मानवता की रक्षा के लिये आधुनिक समाज को जागरुक करने में महत्पूर्ण भूमिका निभाई है। क्योंकि अधिकांश देशवासियों को तो ऐसी घोर पीड़ादायक अन्यायकारी व्यवस्था का ज्ञान भी नही था।
अतः ऐसे में एक साथ तीन तलाक़  “तलाक़-ए-बिद्दत” पर  माननीय उच्चतम न्यायालय का निर्णय अत्यंत सराहनीय व प्रशंसनीय है । अनेक मुस्लिम धर्म गुरु इस कुप्रथा के पक्ष में अभी भी खड़े है और सर्वोच्च न्यायालय के बहुमत से हुए निर्णय का विरोध करके भारत सरकार को भी चेतावनी देने की कुचेष्ठा कर रहें है।””क्योंकि  1985 में एक तलाकशुदा पीड़ित बेगम शाहबानो के पक्ष में दिये गये उच्चतम न्यायालय के निर्णय को तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी पर मुस्लिम राजनीति का अनैतिक दबाव डालकर 1986 में बदलवा दिया था , इसलिए कुछ कट्टरपंथी अभी भी इस भुलावे में है कि वह पुनः ऐसा करवा सकते है।””
“समान नागरिक संहिता” से इस कुप्रथा का कोई संबंध नहीं फिर भी मुल्लाओं ने मुस्लिम समाज में इसका एक ऐसा भय बना रखा है मानो की भविष्य में उनके शवों को भी दफनाने की प्रथा के स्थान पर कही जलाने की व्यवस्था न हो जाय ? यहां यह कहना भी अनुचित न होगा कि “समान नागरिक संहिता ” का विरोध करने वाले कट्टरपंथी मुल्लाओं को इन धार्मिक कूरीतियों के प्रति कोई आक्रोश क्यों नहीं आता ? अगर उनकी धार्मिक पुस्तकों में ऐसी व्यवस्था है तो उसमें संशोधन करके उन्हें अपने समाज को इससे बाहर निकालना चाहिये। इस प्रकार के अज्ञानता से भरे रुढीवादी समाज को “अपना विकास और सबका साथ” तो चाहिए परंतु उसको ठोस आधार देने वाली “समान नागरिक संहिता” स्वीकार नहीं,  क्यों ? यह कहां तक उचित है कि राष्ट्र में सुधारात्मक नीतियों का विरोध केवल इसलिए किया जाय कि कट्टरपंथी मुल्लाओं की आक्रमकता बनी रहें और मुस्लिम महिलाओं पर अमानवीय अत्याचार होते रहें ? क्योंकि उन्हें अपनी संकीर्ण धार्मिक मान्यताओं से कोई समझौता तो दूर उसमें कोई दखल भी सहन नहीं ?
इस सारी न्यायायिक प्रक्रिया में यह पूर्णतः स्पष्ट हैं कि उपरोक्त सारा विवादित विषय केवल मुस्लिम पीड़ित महिलाओं और कुछ मुस्लिम महिलाओं के संगठन की ओर से ही उठाया गया है और वे स्वयं ही इसके लिये संघर्षरत है। अतः यह सोचना कि इसमेँ किसी प्रकार की राजनीति हो रही है या किसी विशेष राजनैतिक दल को कोई लाभ होगा सरासर गलत है। यह शुद्ध रुप से न्यायिक प्रक्रिया है और मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक़ की कुप्रथा से छुटकारा दिलवा कर मानवीय मूल्यो की रक्षा करके भारतीय न्याय व्यवस्था ने एक ऐतिहासिक साहसिक कदम उठाया है। अतः समस्त देशवासियों को माननीय सर्वोच्च न्यायालय में विश्वास रखते हुए उसके  निर्णय का सम्मान करना चाहिये।

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