मुस्लिम विद्वानों की दृष्टि में: देशद्रोही कौन?

muslimभारत में सर्वधर्म समभाव की बातें करते हुए हिंदू मुस्लिम ईसाई के भाई भाई होने की बात कही जाती है। इससे पूर्व भारत का आर्यत्व-हिंदुत्व इस पृथ्वी को एक राष्ट्र तथा इसके निवासियों को भूमिपुत्र कहकर भाई भाई मानता रहा है। हिंदुत्व ने संसार में मानवतावाद फैलाया और इसी को भारतीय धर्म के रूप में स्थापित किया।

पाणिनि ने ऐसे शब्दों को दुष्ट शब्द कहा है जो मूल शब्द में विकृति उत्पन्न करते हैं। जैसे यव का जौ हो जाना, युक्ति का जुगती हो जाना, व्यजन का बीजणा हो जाना, पणज-का बणज और बणज से बंजारा बन जाना इत्यादि। इन शब्दों ने अपने मूल शब्द में विकार-दुर्गंध उत्पन्न की यही इनकी दुष्टता है-इसी प्रकार जो व्यक्ति मानव के मूल धर्म मानवता में विकार पैदा करे-अवरोध डाले- शांति प्रिय लोगों का जीना कठिन करे, वह दुष्ट कहलाता है। क्योंकि ऐसे दुष्ट से मानव समाज की मुख्यधारा में बाधा आती है और जनसाधारण कहीं न कहीं स्वयं को असुरक्षित अनुभव करता है। वेद ऐसे लोगों को समाज के लिए अनुपयुक्त मानता है और ऐसे लोगों के लिए राष्ट्र को आदेशित करता है कि उनका समूलोच्छेदन करो। इन दुष्टों को ही दैत्य, असुर, राक्षस, अनार्य जैसे शब्दों से हमारे यहां पुकारा गया है। ऐसे लोगों का समूलोच्छेदन आवश्यक है। क्योंकि ऐसे लोगों का कोई धर्म (मानवतावाद तक ही सीमित करके लें) नही होता। आज की प्रचलित परिभाषा में जिन्हें धर्म समझा जाता है वो धर्म नही अपितु सम्प्रदाय हैं। यह तो है वेद की व्यवस्था।

अब कुरान की व्यवस्था पर विचार करें। कुरान के बारे में मौलाना मौदूदी, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे कितने ही मुस्लिम विद्वानों का मानना है कि कुरान दुनिया को अल्लाह की पार्टी (यानि मुसलमान) और शैतान की पार्टी (यानि मुसलमान) इन दो भागों में बांटकर देखती है। यानि हर मुसलमान पाक व साफ है और खुदा की संतान है, बाकी सब शैतान हैं। इस भाव के रहते भला कैसे मुसलमान अपने पड़ोसी किसी गैर मुसलमान से प्यार करेगा? कुरान की ऐसी बहुत सी आयतें हैं जो गैर मुसलमानों को यानि शैतान की संतानों को या शैतान की पार्टी के लोगों को खत्म करने की आज्ञा देती हैं। उन्हें जब 1924 में लाला लाजपतराय ने पढ़ा तो सी.आर. दास के लिए उन्होंने लिखा था-‘मैंने गत छह माह मुस्लिम इतिहास और कानून (शरीय:) का अध्ययन करने में लगाये। मैं ईमानदारी से हिंदू मुस्लिम एकता की आवश्यकता और वांछनीयता में भी विश्वास करता हूं। मैं मुस्लिम नेताओं पर पूरी तरह विश्वास करने को भी तैयार हूं। परंतु कुरान और हदीस के उन आदेशों का क्या होगा? (जो मानवता को खुदा की पार्टी और शैतान की पार्टी में विभाजित करते हैं।) उनका उल्लंघन तो मुस्लिम नेता भी नही कर सकते।’

इसीलिए भारत में समस्या के मूल पर प्रहार करने से बचकर झूठी ऊपरी एकता की बातें करने वालों को तथा हिंदू मुस्लिम के मध्य सांस्कृतिक रूप से स्थापित गंभीर मतभेदों को उपेक्षित करते हुए कई लोग जिस प्रकार अगंभीर और अतार्किक प्रयास करते हैं, उन्हें टोकते हुए ए.ए.ए. फैजी लिखते हैं-‘इस दिखावटी एकता के धोखे से हमें बचना चाहिए। परस्पर विरोधों के प्रति आंखें नही मूँद लेनी चाहिए। पुराने धर्मग्रंथों के उद्वरण दे देकर प्रतिदिन भारत वासियों की सांस्कृतिक एकता और सहिष्णुता का बखान नही करना चाहिए। यह तो अपने आपको नितांत धोखा देना है। इसका राष्ट्रीय स्तर पर त्याग किया जाना चाहिए।’

बात साफ है कि फैजी साहब हर उस मुसलमान को जो दुनिया को दो पार्टियों में बांटता है और शरीय: में विश्वास करता है, किसी भारत जैसे देश के लिए देशद्रोही मानते हैं, और शासन को उनके प्रति किसी प्रकार के धोखे में न आने की शिक्षा देते हैं। जो मुसलमान शरीय: में विश्वास नही करते उनकी देश भक्ति असंदिग्ध हो सकती है। पर उनकी संख्या कितनी है? चाहे जितनी हो वो अभिनंदनीय हैं। उनके दिल को चोट पहुंचाना इस लेख का उद्देश्य नही है।

परंतु एम.आर.ए. बेग क्या लिखते हैं? तनिक उस पर भी विचार कर लेना चाहिए। वह लिखते हैं-‘न तो कुरान और न मुहम्मद ने ही मानवतावाद (भारत के वास्तविक धर्म का) का अथवा मुसलमान गैर मुसलमान के बीच सह अस्तित्व का उपदेश दिया है। वास्तव में इस्लाम का…धर्म के रूप में गठन ही दूसरे सभी धर्मों को समाप्त करने के लिए किया गया है। इससे यह भी समझा जा सकता है कि किसी भी देश का संविधान जिसमें मुसलमान बहुसंख्यक हों, धर्मनिरपेक्ष क्यों नही हो सकता? और धर्मनिष्ठ मुसलमान मानवतावादी क्यों नही हो सकता?’

इसका अर्थ है कि एक मुसलमान को उसकी कट्टर धर्मनिष्ठा ही देशद्रोही और मानवता विरोधी बनाती है। इसीलिए बेग साहब अपनी पुस्तक ‘मुस्लिम डिलेमा इन इंडिया’ में आगे पृष्ठ 112 पर कहते हैं-‘वास्तव में कभी कभी ऐसा लगता है कि मुस्लिम आशा करते हैं, कि सभी हिंदू तो मानवतावादी हों पर वह स्वयं साम्प्रदायिक बने रहें।’

पृष्ठ 77 पर उसी पुस्तक में बेग साहब ने लिखा है-‘इस्लाम को निष्ठा से पालन करते हुए भारत का उत्तम नागरिक होना असंभव है।’

एम.जे. अकबर ने भारत के धर्मनिरपेक्ष बने रहने पर अच्छा विचार दिया है कि आखिर भारत धर्मनिरपेक्ष क्यों बना रहा है? इस पर वह लिखते हैं:-‘भारत धर्मनिरपेक्ष राज्य इसलिए बना हुआ है कि दस हिंदुओं में से नौ अल्पसंख्यकों के विरूद्घ हिंसा में विश्वास नही करते।’भारत के बहुसंख्यकों का ऐसा विचार प्रशंसनीय है। राष्ट्र के नागरिकों के मध्य ऐसा ही भाव होना भी चाहिए। परंतु बात बहुसंख्यकों की नही है-बात अल्पसंख्यकों की है कि उन्हें कैसा होना चाहिए? उन्हें निश्चित ही बहुसंख्यकों के आम स्वभाव का अनुकरण करना चाहिए।

एम.सी. छागला साहब ‘रोजेज इन डिसेम्बर’ नामक अपनी पुस्तक के पृष्ठ 84 पर लिखते हैं-‘यदि किसी योग्य व्यक्ति की उपेक्षा अथवा उसको उन्नति से केवल इसलिए वंचित करना साम्प्रदायिकता है कि वह मुस्लिम, ईसाई या पारसी है तो यह भी साम्प्रदायिकता है कि उसकी नियुक्ति केवल इसलिए कर दी जाए कि वह इनमें से किसी अथवा किसी दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय से है।’

हामिद दलवाई ‘मुस्लिम पॉलिटिक्स इन सैक्युलर इंडिया’ के पृष्ठ 29 पर लिखते हैं-‘जब तक मुस्लिम साम्प्रदायिकता को समाप्त नही किया जाएगा, हिंदू साम्प्रदायिकता कभी समाप्त नही की जा सकेगी। साम्प्रदायिक मुसलमान पूरे भारत को इस्लाम में धर्मान्तरित करने के अपने स्वर्णिम सपनों में इतने खोए हुए हैं कि कोई भी तर्क उनके व्यवहार को बदलने में सफल नही हो सकता। उन्हें यह विश्वास कराना आवश्यक है कि उनके इस दिशा में किये गये सभी प्रयास असफल होंगे और उनकी आकांक्षाएं कभी भी पूरा होने वाली नही हैं। सर्वप्रथम उनके भव्य सपनों का मोहभंग करने की आवश्यकता है।’ मुशीरूल हक अपनी पुस्तक ‘इस्लाम इन सैक्यूलर इंडिया’ के पृष्ठ 12 पर लिखते हैं-‘बहुत से मुसलमान ऐसा विश्वास करते हैं कि भारतीय शासन को तो धर्मनिरपेक्ष बना रहना चाहिए किंतु मुसलमानों को धर्मनिरपेक्षता से दूर ही रहना चाहिए।’

इस प्रकार बात स्पष्टï है कि जो मुसलमान देश में शरीय: कानून को देश के कानून से ऊपर रखने की बात करते हैं उनके विषय में जैसा कि ऐनीबीसेंट ने कहा है-कि ऐसी सोच राष्ट्र की स्थिरता के विरूद्घ विद्रोह है-ही सही है।

कुछ लोगों का तर्क है कि देश में हिंदू भी देशद्रोही काम करते पाए गये हैं, तो हमें उन देशद्रोहियों का भी पक्ष नही लेना है। हां, जो लोग ये मानते हैं कि खाद्य वस्तुओं में मिलावट करना भी देशद्रोह है, वो भूल में हैं-ये देशद्रोह नही अपितु एक अनैतिक और अवैधानिक कार्य है। देशद्रोह के लिए विद्रोह का भाव होना आवश्यक है, पूरे शांति प्रिय समाज के लिए एक चुनौती बन जाना आवश्यक है। जबकि अनैतिक और अवैधानिक कार्य करने वाले लोग मुनाफा कमाने के लिए चुपचाप अपनी व्यावसायिक गतिविधियों में संलिप्त रहते हैं। जब ऐसी गतिविधियों को किसी संगठन का, या सम्प्रदाय का, या समूह का संरक्षण मिल जाए तो तब वह अनैतिक और अवैधानिक कार्य भी देशद्रोह में सम्मिलित हो जाता है। जैसे हिजबुल मुजाहिद्दीन, लश्कर-ए-तैय्यबा जैसे आतंकी संगठनों के कार्य तथा नक्सलवादियों के कार्य इत्यादि। सारे ऊपरिलिखित मुस्लिम विद्वान भारत देश के प्रति मुस्लिमों की आस्था को शरीय: के रहते संदिग्ध मानते हैं, अत: शरीय: के रहते देश के कानूनों का उल्लंघन, देश के आम समाज को शैतान की पार्टी मानना, देश में मुस्लिम शासन की स्थापना के सपने बुनना इत्यादि घातक इरादे देशद्रोह की श्रेणी में ही आते हैं। यदि कोई हिंदू भी देश के किसी भाग में देश के कानूनों से ऊपर अपना कानून चलाए या अपना राज्य स्थापित करने का सपना संजोए तो वह भी देशद्रोही है। चूंकि देशद्रोह देश की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता को चोट पहुंचाने वाली किसी भी गतिविधि का नाम है। जबकि अनैतिक और अवैधानिक कार्यों में देश की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता सुरक्षित रह सकती है और वो अनैतिकता और अवैधानिकता सदा देश के कानून से ही दंडित भी होती है। वह कभी स्वयं को देश के कानून से ऊपर घोषित नही करती, यद्यपि देश के कानून के लिए एक चुनौती अवश्य होती है। उससे देश का आम समाज आहत होता है परंतु आतंकित नही, जबकि देशद्रोहियों की गतिविधियों से जनसाधारण आतंकित रहता है-क्योंकि उनकी सोच आम समाज के सर्वथा विपरीत होती है, और कई बार आम आदमी के खून से होली खेलकर भी वो लोग अपनी बात की ओर आपका ध्यान खींच सकते हैं। उन्हें देश के आम समाज के विपरीत चलना ही अच्छा लगता है।

इसीलिए कुरान की मंशा के खिलाफ जाकर भी अधिकतर मुसलमान गाय कटवाते हैं, ताकि देश का बहुसंख्यक समाज उत्तेजित हो। बात किसी की सोच को कोसने की नही है बात शास्त्रार्थ अर्थात स्वस्थ चर्चा और चिंतन से स्वस्थ सामाजिक परिवेश की स्थापना करने की होनी चाहिए। उसके लिए गलत बातों को छोड़कर सही और राष्ट्रोचित बातों को अपनाना ही पड़ेगा। ‘गलत धारणाएं बदलो और भारत बदलो’ के आदर्श पर चलने से ही लाभ हो सकता है। देशद्रोही इस देश के मूल्यों से, संस्कृति से, और इतिहास से घृणा करने वाला और उन्हें मिटाने वाला हो सकता है। इस देश की भूमि को वह पुण्य भू: और पितृ भू: न मानने वाला होता है, जबकि एक अनैतिक और अवैधानिक कार्य करने वाला इन सबके प्रति स्वाभाविक रूप से आस्थावान हो सकता है, वह इन चीजों से कोई समझौता नही कर सकता जबकि देशद्रोही सबसे पहले इन पर ही प्रहार करता है। गाय का मांस हिंदू के द्वारा खाना भी एक अनैतिक कार्य है, यह बात देशभक्ति से जोड़कर नही देखी जा सकती। क्योंकि ऐसा करने वाला अपने देश, धर्म और संस्कृति के प्रति आक्रामक लोगों के खिलाफ कई बार स्वयं भी आक्रामक होता है।

 

23 COMMENTS

    • ज्ञान बांटा या अपनी मुस्लिम परस्ती दिखाई? ऐसे लोगों को ही जयचंद कहा जाता है।

      • ​शिवेंद्र मोहन सिंहजी, आपकी इस टिप्पणी पर नज़र ज़रा देर से पड़ी. क्या आवश्यक है कि सब आपके विचारों से सहमत हों? विपरीत विचार रखने वालों को गाली देने का संस्कार आपने कहाँ से पाया? ऐसे इस तरह की टिप्पणी का मुझ पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ता,पर इससे आप जैसों के संस्कार अवश्य उजागर हो जाते हैं.

        • सिंह साहब बिलकुल दुरुस्त बात कही है आपने, सहमत तो हम एक घर में भी नहीं हो पाते हैं, लेकिन जिनके खिलाफ भारतियों ने १२०० सालों से तलवारें उठा रखी हैं, उनके संग गलबहियां डालेंगे तो ऊंचनीच तो जरूर सुननी पड़ेंगी। क्या आप एक भी ऐसा देश बता सकते हैं जहाँ मुस्लिम धर्म अहिंसा के बल पर गया है? राकेश भाई ने जिन किताबों का सन्दर्भ दिया है कम से कम उन किताबों को ही पढ़ लेते, तो मुस्लिम धर्म का मर्म समझ में आ जाता। और भारत पर आक्रमण करने वालों को आप भूल सकते हैं मैं नहीं। पुराने कृत्यों को एक बार माफ़ भी कर दिया जाए।लेकिन वर्तमान के कृत्यों को कैसे भूल सकते हैं? और जो उनकी तरफदारी करेगा वो जयचंद की श्रेणी में ही आएगा। और अगर इसे संस्कार हीनता कहा जाता है तो ये आपकी असहमति हो सकती है. अपने विचार रखने का सबको अधिकार है।

          • शिवेंद्र मोहन जी,अपनी बात को सिद्ध करने के लिए गलथेथरी पर तो मत उतरिय. आप कैसे कहते है कि भारतीयों (?) ने किसी के खिलाफ १२०० वर्षों से तलवारें उठा रखी है? यह लगता है कि आपका अपना गढ़ा हुआ इतिहास है. राजपूतों की शौर्य गाथा मत दोहराने लगिएगा,क्योंकि भारत को जंजीर ईन लोगों का हाथ आरम्भ से ही रहा है.उसके दोषी जयचंद ही नहीं पृथ्वी राज भी है.उसके दोषी मान सिंह ही नहीं राणा सांगा भी हैं. मैं पूछता हूँ,पृथ्वी राज ने क्या सोचकर अपने मौसेरे भाई की बेटी को स्वयंबर से उठा लिया था? कौन बाप इसकी बर्दास्त करेगा? कहानियाँ और भी हैं मैं बोलता नहीं हूँ,क्योंकि फिर दोष मढ़ा जाएगा कि अपने ही जाति की भर्तश्ना कर रहे हैं. पहले आप लोग आदमी को जोड़िए,भारत अपने आप जुड़ जाएगा. आदमी का मतलब प्रत्येक भारत वासी है,कोई खास जाति या क़ौम नहीं.

  1. इस्लाम आतंक ? या आदर्श
    भारत का विश्‍वगुरू बनना अब कितना आसान ? एक ऐसी सच्‍चाई जिसे जानता हर कोई है लेकिन मानने के लिये वही तैयार होता है जिसका ज़मीर जिन्‍दा है, इस्‍लाम मारकाट आतंकवाद की शिक्षा देता है इस बात का प्रचार होने से अच्‍छे भले दिमाग में गलतफहमियां जड़ पकड़ चुकी हैं, जिसने हिन्‍दू मुस्लिम एकता को कमजोर ही किया है, स्‍वामी लक्ष्मीशंकराचार्य जी ने उन सभी गलतफहमियों के मूल पर प्रहार करके हिन्‍दू मुस्लिम एकता को मजबूत किया है,
    जिस दिन दोनों समुदायों के बीच से गलत फहमियों और नफरतों का सफाया सचमुच हो जायेगा भारतीय जाति उसी दिन विश्‍व नायक पद पर आसन हो जायेगी,
    अपनी गलती पर अज्ञानी अड़ता है जबकि ज्ञानी उसे स्‍वीकार करके उसका निराकरण करता है, इस किताब ने स्‍वामी जी के साफ मन और महान चरित्र को ही प्रकट किया है, भारतीय सन्‍तों की यह विशेषता सदा से चली आयी है,
    भारत का भविष्‍य उज्‍जवल है, यह किताब इसी आशा को बल देती है

    जब मुझे सत्य का ज्ञान हुआ
    कई साल पहले दैनिक जागरण में श्री बलराज बोधक का लेख ‘ दंगे क्यों होते हैं?’ पढ़ा, इस लेख में हिन्दू-मुस्लिम दंगा होने का कारण क़ुरआन मजीद में काफिरों से लड़ने के लिए अल्लाह के फ़रमान बताये गए थे.लेख में क़ुरआन मजीद की वह आयतें भी दी गयी थीं.
    इसके बाद दिल्ली से प्रकाशित एक पैम्फलेट ( पर्चा ) ‘ क़ुरआन की चौबीस आयतें, जो अन्य धर्मावलम्बियों से झगड़ा करने का आदेश देती हैं.’ किसी व्यक्ति ने मुझे दिया. इसे पढने के बाद मेरे मन में जिज्ञासा हुई कि में क़ुरआन पढूं. इस्लामी पुस्तकों कि दुकान में क़ुरआन का हिंदी अनुवाद मुझे मिला. क़ुरआन मजीद के इस हिंदी अनुवाद में वे सभी आयतें मिलीं, जो पैम्फलेट में लिखी थीं. इससे मेरे मन में यह गलत धारणा बनी कि इतिहास में हिन्दू राजाओं व मुस्लिम बादशाहों के बीच जंग में हुई मार-काट तथा आज के दंगों और आतंकवाद का कारण इस्लाम है. दिमाग भ्रमित हो चुका था.इस भ्रमित दिमाग से हर आतंकवादी घटना मुझे इस्लाम से जुड़ती दिखाई देने लगी.
    इस्लाम, इतिहास और आज कि घटनाओं को जोड़ते हुए मैंने एक पुस्तक लिख डाली ‘ इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास ‘ जिसका अंग्रेजी अनुवाद ‘The History of Islamic Terrorism’ के नाम से सुदर्शन प्रकाशन,सीता कुंज,लिबर्टी गार्डेन,रोड नंबर 3, मलाड (पशचिम) मुंबई 400 064 से प्रकाशित हुआ.
    मैंने हाल में इस्लाम धर्म के विद्वानों ( उलेमा ) के बयानों को पढ़ा कि इस्लाम का आतंकवाद से कोई सम्बन्ध नहीं है. इस्लाम प्रेम सदभावना व भाईचारे का धर्म है.किसी बेगुनाह को मारना इस्लाम के विरुद्ध है। आतंकवाद के खिलाफ़ फ़तवा भी जरी हुआ है।
    इसके बाद मैंने क़ुरआन मजीद में जिहाद के लिए आई आयतों के बारे में जानने के लिए मुस्लिम विद्वानों से संपर्क किया,जिन्होंने मुझे बताया कि क़ुरआन मजीद कि आयतें भिन्न -भिन्न तत्कालीन परिस्तिथियों में उतरीं। इसलिए क़ुरान मजीद का केवल अनुवाद ही देखकर यह भी देखा जाना ज़रूरी है कि कौनसी आयत किस परिस्तिथियों में उतरी तभी उसका सही मक़सद पता चल
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    (1)
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    पाएगा ।
    साथ ही ध्यान देने योग्य है किक़ुरआन इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) पर उतरा गया था। अत: क़ुरआन को सही मायने में जानने के लिए पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) कि जीवनी से परिचित होना भी ज़रूरी भी है।
    विद्वानों ने मुझसे कहा -” आपने क़ुरआन माजिद की जिन आयतों का हिंदी अनुवाद अपनी किताब में लिया है, वे आयतें अत्याचारी काफ़िर मुशरिक लोगों के लिए उतारी गयीं जो अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) से लड़ाई करते और मुल्क में फ़साद करने के लिए दौड़े फिरते थे। सत्य धर्म की रह में रोड़ा डालने वाले ऐसे लोगों के विरुद्ध ही क़ुरआन में जिहाद का फ़रमान है।
    उन्होंने मुझसे कहा कि इस्लाम कि सही जानकारी न होने के कारण लोग क़ुरआन मजीद कि पवित्र आयतों का मतलब समझ नहीं पाते। यदि आपने पूरी क़ुरआन मजीद के साथ हज़रात मुहम्मद ( सल्लालाहु अलैहि व सल्लम ) कि जीवनी पढ़ी होती, तो आप भ्रमित न होते ।”
    मुस्लिम विद्वानों के सुझाव के अनुसार मैंने सब से पहले पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद कि जीवनी पढ़ी। जीवनी पढ़ने के बाद इसी नज़रिए से जब मन की शुद्धता के साथक़ुरआन मजीद शुरू से अंत तक पढ़ी, तो मुझे क़ुरआन मजीद कि आयतों का सही मतलब और मक़सद समझ आने लगा ।
    सत्य सामने आने के बाद मुझे अपनी भूल का अहसास हुआ कि मैं अनजाने में भ्रमित था और इसी कारण ही मैंने अपनी किताब ‘ इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास ‘ में आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ा है जिसका मुझे हार्दिक खेद है ।
    मैं अल्लाह से, पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल०) से और सभी मुस्लिम भाइयों से सार्वजानिक रूप से माफ़ी मांगता हूँ तथा अज्ञानता में लिखे व बोले शब्दों को वापस लेता हूं। सभी जनता से मेरी अपील है कि ‘ इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास ‘ पुस्तक में जो लिखा है उसे शुन्य समझें ।

    स्वामी लक्ष्मिशंकाराचार्य
    ए-1601 , आवास विकास कालोनी ,
    हंसपुरम,नौबस्ता, कानपुर-208 021
    e-mail : laxmishankaracharya@yahoo.in
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    ( 2 )
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    भाग 1
    शुरुआत कुछ इस तरह हुई कि सहित दुनिया में यदि कहीं विस्फोट हो या किसी व्यक्ति अथवा व्यक्तियों कि हत्या हो और उस घटना में संयोगवश मुस्लमान शामिल हो तो उसे इस्लामिक आतंकवाद कहा गया।
    थोड़े ही समय में मिडिया सहित कुछ लोगों ने अपने-अपने निजी फ़ायदे के लिए इसे सुनियोजित तरीके से इस्लामिक आतंकवाद कि परिभाषा में बदल दिया। इस सुनियोजित प्रचार का परिणाम यह हुआ कि आज कहीं भी विस्फ़ोट हो जाए उसे तुरंत इस्लामिक आतंकवाद घटना मानकर ही चला जाता है ।
    इसी माहौल में पूरी दुनिया में जनता के बीच मिडिया के माध्यम से और पश्चिमी दुनिया सहित कई अलग-अलग देशों में अलग-अलग भाषाओँ में सैंकड़ों किताबें लिख-लिख कर यह प्रचारित किया गया कि दुनिया में आतंकवाद की जड़ इस्लाम है।
    इस दुष्प्रचार में यह प्रामाणित किया गया कि क़ुरआन में अल्लाह कि आयतें मुसलमानों को आदेश देती हैं कि -वे, अन्य धर्म को मानने वाले काफ़िरों से लड़ें उनकी बेरहमी के हत्या करें या उन्हें आतंकित ज़बरदस्ती मुस्लमान बनाएं , उनके पूजास्थलों नष्ट करें-यह जिहाद है और इस जिहाद करने वाले को अल्लाह जन्नत देगा। इस तरह योजनाबद्ध तरीक़े से इस्लाम को बदनाम करने के लिये उसे निर्दोषों कि हत्या कराने वाला आतंकवादी धर्म घोषित कर दिया गया और जिहाद का मतलब आतंकवाद
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    (3)
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    बताया गया ।
    सच्चाई क्या है? यह जानने के लिये हम वही तरीक़ा अपनायेंगे जिस तरीक़े से हमें सच्चाई का ज्ञान हुआ था। मेरे द्वारा शुद्ध मन से किये गये इस पवित्र प्रयास में यदि अनजाने में कोई ग़लती हो गयी हो तो उसके लिए पाठक मुझे क्षमा करेंगे ।
    इस्लाम के बारे में कुछ भी प्रमाणित करने के लिए यहाँ हम तीन कसौटियों को लेंगे ।
    1- क़ुरआन मजीद में अल्लाह के आदेश
    2- पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद ( सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) की जीवनी
    3- हज़रत मुहम्मद ( सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) की कथनी यानी हदीस
    इन तीन कसौटियों से अब हम देखते हैं कि:
    [ क्या वास्तव में इस्लाम निर्दोषों से लड़ने और उनकी हत्या करने व हिंसा फैलाने का आदेश देता है?
    [ क्या वास्तव में इस्लाम दूसरों के पूजाघरों को तोड़ने का आदेश देता है?
    [ क्या वास्तव में इस्लाम लोगों को ज़बरदस्ती मुस्लमान बनाने का आदेश देता है?
    [ क्या वास्तव में हमला करने, निर्दोषों की हत्या करने व आतंक फैलाने का नाम जिहाद है?
    [ क्या वास्तव में इस्लाम एक आतंकवाद धर्म है?
    सर्वप्रथम यह बताना आवश्यक है कि हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) अल्लाह के महत्वपूर्ण एवं अंतिम पैग़म्बर हैं । अल्लाह ने आसमान
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    ( 4 )
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    से क़ुरआन को आप पर ही उतारा। अल्लाह के रसूल होने के बाद जीवन पर्यन्त 23 सालों तक आप ( सल्ल० ) ने जो किया, वह क़ुरआन के अनुसार ही किया ।
    दूसरे शब्दों में हज़रत मुहम्मद ( सल्ल०) के जीवन के यह 23 साल क़ुरान या इस्लाम का व्यावहारिक रूप हैं। अत: क़ुरआन या इस्लाम को जानने का सबसे महत्वपूर्ण और आसान तरीका हज़रत मुहम्मद ( सल्ल०) की पवित्र जीवनी है, यह मेरा स्वयं का अनुभव है। आपकी जीवनी और क़ुरआन मजिद पढ़कर पाठक स्वयं निर्णय कर सकते हैं कि इस्लाम एक आतंक है? या आदर्श ।
    उलमा-ए-सियर ( यानि पवित्र जीवनी लिखने वाले विद्वान ) लिखते हैं कि- पैग़म्बर मुहम्मद सल्लालाहु अलैहि व सल्लम का जन्म मक्का के क़ुरैश क़बीले के सरदार अब्दुल मुत्तलिब के बेटे अब्दुल्लाह के घर सन् 570 ई० में हुआ । मुहम्मद ( सल्ल०) के जन्म से पहले ही उनके पिता अब्दुल्लाह का निधन हो गया था । आप ( सल्ल०) जब 6 साल के हुए, तो उनकी मां आमिना भी चल बसीं । 8 साल की उम्र में दादा अब्दुल मुत्तलिब का भी देहांत हो गया तो चाचा अबू-तालिब के सरंक्षण में आप ( सल्ल०) पले-बढ़े।
    24 वर्ष की आयु में में आप ( सल्ल०) का विवाह ख़दीजा से हुआ। ख़दीजा मक्का के एक बहुत ही स्मृध्शाली व सम्मानित परिवार की विधवा महिला थीं ।
    उस समय मक्का के लोग काबा की 360 मूर्तियों की उपासना करते थे । मक्का में मूर्ती का प्रचलन साम ( सीरिया ) से आया । वहाँ सबसे पहले जो मूर्ती स्थापित की गयी वह ‘हूबल’ नाम के देवता की थी, जो सीरिया से लाई गयी थी । इसके बाद ‘ इसाफ’ और ‘ नाइला ‘ की मूर्तियाँ
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    ज़मज़म नाम के कुँए पर स्थापित की गयीं । फिर हर क़बीले ने अपनी-अपनी अलग-अलग मूर्तियाँ स्थापित कीं। जैसे क़ुरैश क़बीले ने ‘ उज्ज़ा’ की । ताइफ़ के क़बीले सकीफ़ ने ‘ लात ‘ की । मदीने के औस और खजरज़ क़बीलों ने ‘ मनात ‘ की । ऐसे ही वद, सुआव, यगुस, सौउफ़ , नसर , आदि प्रमुख मूर्तियाँ थीं । इसके अलावा हज़रत इब्राहीम, हज़रत इस्माईल , हज़रत ईसा आदि की तस्वीरें व मूर्तियाँ खाना काबा में मौजूद थीं ।
    ऐसी परिस्तिथियों में 40 वर्ष की आयु में आप ( सल्ल० ) को प्रथम बार रमज़ान के महीने में मक्का से 6 मील की दूरी पर ‘गारे हिरा’ नामक गुफ़ा में एक फ़रिश्ता जिबरील से अल्लाह का सन्देश प्राप्त हुआ । इसके बाद अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद ( सल्ल०) को समय-समय पर अल्लाह के आदेश मिलते रहे । अल्लाह के यही आदेश,क़ुरआन है ।
    आप ( सल्ल०) लोगों को अल्लाह का पैग़ाम देने लगे कि ‘ अल्लाह एक है उसका कोई शरीक नहीं । केवल वही पूजा के योग्य है । सब लोग उसी कि इबादत करो । अल्लाह ने मुझे नबी बनाया है । मुझ पर अपनी आयतें उतारी हैं ताकि मैं लोगों को सत्य बताऊँ, सीधी सत्य कि रह दिखाऊँ ।’ जो लोग मुहम्मद ( सल्ल०) के पैग़ाम पर ईमान ( यानी विश्वास ) लाये, वे मुस्लिम अथार्त मुस्लमान कहलाये ।
    बीवी खदीजा ( रज़ि० ) आप पर विश्वास लाकर पहली मुस्लमान बनीं । उसके बाद चचा अबू-तालिब के बेटे अली ( रज़ि० ) और मुंह बोले बेटे ज़ैद व आप ( सल्ल० ) के गहरे दोस्त
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    ( 6 )
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    ( रज़ि०) ने मुस्लमान बनने के लिये ” अश्हदु अल्ला इल्लाल्लाहू व अश्हदु अन्न मुहम्मदुरसुलुल्लाह ” यानि ” मैं गवाही देता हूँ , अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है और मुहम्मद ( सल्ल०) अल्लाह के रसूल हैं ।” कह कर इस्लाम क़ुबूल किया ।
    मक्का के अन्य लोग भी ईमान ( यानि विश्वास ) लाकर मुस्लमान बनने लगे । कुछ समय बाद ही क़ुरैश के सरदारों को मालूम हो गया कि आप ( सल्ल०) अपने बाप-दादा के धर्म बहुदेववाद और मूर्तिपूजा के स्थान पर किसी नए धर्म का प्रचार कर रहे हैं और बाप-दादा के दीन को समाप्त कर रहे हैं । यह जानकार आप ( सल्ल०) के अपने ही क़बीले क़ुरैश के लोग बहुत क्रोधित हो गये । मक्का के सारे बहुईश्वरवादी काफ़िर सरदार इकट्ठे होकर मुहम्मद ( सल्ल०) कि शिकायत लेकर आप के चचा अबू-तालिब के पास गये । अबू-तालिब ने मुहम्मद ( सल्ल० ) को बुलवाया और कहा-” मुहम्मद ये अपने क़ुरैश क़बीले के असरदार सरदार हैं. ये चाहते हैं कि तुम यह प्रचार न करो कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है और अपने बाप-दादा के धर्म पर क़ायम रहो ।”
    मुहम्मद ( सल्ल०) ने ‘ ला इला-ह इल्लल्लाह ‘ ( अल्लाह के अलावा कोई पूज्य नहीं है ) इस सत्य का प्रचार छोड़ने से इंकार कर दिया । क़ुरैश सरदार क्रोधित होकर चले गये ।
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    ( 7 )
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    इसके बाद इन क़ुरैश सरदारों ने तय किया कि अब हम मुहम्मद को हर प्रकार से कुचल देंगे । और उनके साथियों को बेरहमी के साथ तरह-तरह स्व सताते, अपमानित करते और उन पर पत्थर बरसाते ।
    इसके बाद आप ( सल्ल० ) ने उनकी दुष्टता का जवाब सदैव सज्जनता और सद्व्यवहार से ही दिया ।
    मुहम्मद ( सल्ल० ) व आपके साथी मुसलमानों के विरोध में क़ुरैश का साथ देने के लिए अरब के और बहुत क़बीले थे । जिन्होंने आपस में यह समझौता कर लिया था कि कोई क़बीला किसी मुस्लमान को पनाह नहीं देगा । प्रत्येक क़बीले कि ज़िम्मेदारी थी, जहाँ कहीं मुस्लमान मिल जाएँ उनको ख़ूब मारें-पीटें और हर तरह से अपमानित करें, जिससे कि वे अपने बाप-दादा के धर्म कि ओर लौट आने को मजबूर हो जाएँ ।
    दिन प्रतिदन उन के अत्यचार बढ़ते गये । उन्होंने निर्दोष असहाय मुसलमानों को क़ैद किया, मारा-पीटा, भूखा-प्यासा रखा । मक्के कि तपती रेत पर नंगा लिटाया , लोहे की गर्म छड़ों से दाग़ा और तरह-तरह के अत्याचार किये ।
    उदाहरण के लिए हज़रत यासिर ( रज़ि०) और बीवी हज़रत सुमय्या ( रज़ि० ) तथा उनके पुत्र हज़रत अम्मार ( रज़ि०) मक्के के ग़रीब लोग थे और इस्लाम क़ुबूल कर मुस्लमान बन गये थे । उनके मुस्लमान बनने से नाराज़ मक्के के काफ़िर उन्हें सज़ा देने के लिए जब कड़ी दोपहर हो जाती, तो उनके कपड़े उतार उन्हें तपती रेत लिटा देते ।
    हज़रत यासिर ( रज़ि०) ने इन ज़ुल्मों को सहते हुए तड़प-तड़प कर जान दे दी । मुहम्मद ( सल्ल०) व मुसलमानों के सबसे बड़ा विरोधी अबू ज़हल बड़ी बेदर्दी से सुमय्या ( रज़ि०) के पीछे पड़ा रहता । एक दिन
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    ( 8 )
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    उन्होंने अबू-जहल को बददुआ दे दी जिससे नाराज़ होकर अबू-जहल ने भाला मार कर हज़रत सुमय्या ( रज़ि०) का क़त्ल कर दिया । इस तरह इस्लाम में हज़रत सुमय्या ( रज़ि० ) ही सबसे पहले सत्य की रक्षा के लिए शहीद बनीं ।
    दुष्ट क़ुरैश, हज़रत अम्मार ( रज़ि०) को लोहे का कवच पहना कर धूप में लिटा देते । लिटाने के बाद मारते-मारते बेहोश कर देते ।
    इस्लाम क़ुबूल कर मुस्लमान बने हज़रत बिलाल (रज़ि०), कुरैश सरदार उमैय्या के ग़ुलाम थे। उमैय्या ने यह जानकर कि बिलाल मुस्लमान बन गये हैं, उनका खाना पीना बंद कर दिया। ठीक दोपहर में भूखे-प्यासे ही वह उन्हें बहार पत्थर पर लिटा देता और छाती पर बहुत भारी पत्थर रखवा कर कहता -” लो मुसलमान बनने का मज़ा चखो।”
    उस समय जितने भी ग़ुलाम,मुसलमान बन गये थे इन पर इसी तरह अत्याचार हो रहे थे। हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के जिगरी दोस्त अबू-बक्र ( रज़ि०) ने उन सब को ख़रीद-ख़रीद कर ग़ुलामी से आज़ाद कर दिया।
    काफ़िर कुरैश यदि किसी मुस्लमान को क़ुरान की आयतें पढ़ते सुन लेते या नमाज़ पढ़ते देख लेते, तो पहले उसकी बहुत हंसी उड़ाते फिर उसे बहुत सताते। इस डर के कारण मुसलमानों को नमाज़ पढ़नी होती छिपकर पढ़ते और क़ुरान पढ़ना होता तो धीमी आवाज़ से पढ़ते।
    एक दिन क़ुरैश काबा में बैठे हुए थे। अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद ( रज़ि०) काबा के पास नमाज़ पढने लगे, तो वहां बैठे सारे काफ़िर क़ुरैश उन पर टूट पड़े और उन्होंने अब्दुल्लाह को मारते-मारते बे-दम कर दिया।
    जब मक्का में काफ़िरों के अत्याचारों के कारण मुसलमानों का जीना
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    ( 9 )
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    मुश्किल हो गया तो मुहम्मद ( सल्ल०) ने उनसे कहा: ” हबशा चले जाओ”
    हबशा का बादशाह नाज्जाशी ईसाई था। अल्लाह के रसूल का हुक्म पते ही बहुत से मुसलमान हबशा चले गये। जब क़ुरैश को पता चला, तो उन्होंने अपने दो आदमियों को दूत बना कर हबशा के बादशाह के भेज कर कहलवाया कि ” हमारे यहाँ के कुछ मुजरिमों ने भाग कर आपके यहाँ शरण ली है। इन्होंनें हमारे धर्म से बग़ावत की है और आपका ईसाई धर्म भी नहीं स्वीकारा, फिर भी आपके यहाँ रह रहे हैं। ये अपने बाप-दादा के धर्म से बग़ावत कर एक नया धर्म लेकर चल रहे हैं, जिसे न हम जानते हैं और न आप। इनको लेने हम आए हैं।
    बादशाह नाज्जाशी ने मुसलमानों से पुछा: ” तुम लोग कौन सा ऐसा नया धर्म लेकर चल रहे हो, जिसे हम नहीं जानते?”
    इस पर मुसलमानों की ओर से हज़रत जाफ़र ( रज़ि०) बोले-हे बादशाह! पहले हम लोग असभ्य और गंवार थे। बुतों की पूजा करते थे, गंदे काम करते थे, पड़ोसियों से व आपस में झगड़ा करते रहते थे। इस बीच अल्लाह ने हम में अपना एक रसूल भेजा। उसने हमें सत्य-धर्म इस्लाम की ओर बुलाया। उसने हमें अल्लाह का पैग़ाम देते हुए कहा:”हम केवल एक ईश्वर की पूजा करें ,बेजान बुतों की पूजा छोड़ दें, सत्य बोलें और पड़ोसियों के साथ अच्छा व्यवहार करें, किसी के साथ अत्याचार और अन्याय न करें, व्यभिचार और गंदे कार्यों को छोड़ दें,अनाथों का माल न खायें, पाक दामन औरतों पर तोहमत न लगाएं, नमाज़ पढ़ें और खैरात यानी दान दें।”
    हमने उस के पैग़ाम को व उसको सच्चा जाना और उस पर ईमान यानि विश्वास लाकर मुस्लमान बन गए ।
    हज़रत जाफ़र ( रज़ि०) के जवाब से बादशाह नाज्जाशी बहुत प्रभावित
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    ( 10 )
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    हुआ। उसने दूतों को यह कह कर वापस कर दिया की यह लोग अब यहीं रहेंगे।
    मक्का में ख़त्ताब के पुत्र उमर बड़े ही क्रोधी किन्तु बड़े बहादुर साहसी योद्धा थे । अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) ने अल्लाह से प्रार्थना की कि यदि उमर ईमान लाकर मुस्लमान बन जाएं तो इस्लाम को बड़ी मदद मिले, लेकिन उमर मुसलमानों के लिए बड़े ही निर्दयी थे। जब उन्हें मालूम हुआ की नाज्जाशी ने मुसलमानों को अपने यहाँ शरण दे दी है तो वह बहुत क्रोधित हुए । उमर ने सोचा सारे फ़साद की जड़ मुहम्मद ही है, अब मैं उसे ही मार कर फ़साद की यह जड़ समाप्त कर दूंगा।
    ऐसा सोच कर, उमर तलवार उठा कर चल दिए। रस्ते में उनकी भेंट नुएम-बिन-अब्दुल्लाह से हो गयी जो पहले ही मुस्लमान बन चुके थे, लेकिन उमर को यह पता नहीं था। बातचीत में जब नुऐम को पता चला कि उमर, अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) का क़त्ल करने जा रहे हैं तो उन्होंने उमर के इरादे का रुख़ बदलने के लिए कहा: ” तुम्हारी बहन-बहनोई मुस्लमान हो गए हैं, पहले उनसे तो निबटो।”
    यह सुनते ही कि उनकी बहन और बहनोई मुहम्मद का दीन इस्लाम क़ुबूल कर मुस्लमान बन चुके हैं, उमर ग़ुस्से से पागल हो गए और सीधा बहन के घर जा पहुंचे।
    भीतर से कुछ पढने कि आवाज़ आ रही थी । उस समय खब्बाब ( रज़ि०) क़ुरान पढ़ रहे थे। उमर कि आवाज़ सुनते ही वे डर के मारे अन्दर छिप गए। क़ुरआन के जिन पन्नों को वे पढ़ रहे थे, उमर की बहन फ़ातिमा ( रज़ि०) ने उन्हें छिपा दिया, फिर बहनोई सईद ( राज़ी0) ने दरवाज़ा खोला
    उमर ने यह कहते हुए कि “क्या तुम लोग सोचते हो कि तुम्हारे मुस्लमान बनने की मुझे खबर नहीं है?” यह कहते हुए उमर ने बहन-बहनोई
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    ( 11 )
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    को मारना-पीटना शुरू कर दिया और इतना मारा कि बहन का सर फट गया । किन्तु इतना मार खाने के बाद भी बहन ने इस्लाम छोड़ने से इंकार कर दिया।
    बहन के द्रढ़ संकल्प ने उमर के इरादे को हिला कर रख दिया । उन्होंने अपनी बहन से क़ुरआन के पन्ने दिखाने को कहा । क़ुरआन के उन पन्नों को पढ़ने के बाद उमर का मन भी बदल गया । अब वह मुस्लमान बनने का इरादा कर मुहम्मद ( सल्ल० ) से मिलने चल दिए।
    उमर ने अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) से विनम्रतापूर्वक कहा: ” मैं इस्लाम स्वीकार करने आया हूं। मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के आलावा कोई पूज्य नहीं है और मुहम्मद ( सल्ल० ) अल्लाह के रसूल हैं । अब मैं मुस्लमान हूं।”
    इस तरह मुसलमानों की संख्या निरंतर बढ़ रही थी । इसे रोकने के लिए क़ुरैश ने आपस में एक समझौता किया । इस समझौते के अनुसार क़ुरैश के सरदार आप ( सल्ल० ) के परिवार मुत्तलिब ख़ानदान के पास गए और कहा: : मुहम्मद को हमारे हवाले कर दो । हम उसे क़त्ल कर देंगे और इस खून के बदले हम तुमको बहुत सा धन देंगे। यदि ऐसा नहीं करोगे तो हम सब घेराव करके तुम लोगों को नज़रबंद रखेंगे । न तुमसे कभी कुछ ख़रीदेंगे,न बेचेंगे और न ही किसी प्रकार का लेन-देन करेंगे । तुम सब भूख से तड़प-तड़प का मर जाओगे ।”
    लेकिन मुत्तलिब ख़ानदान ने मुहम्मद ( सल्ल०) को देने से इंकार कर दिया, जिसके कारण मुहम्मद ( सल्ल० ) अपने चचा अबू-तालिब और समूचे ख़ानदान के साथ एक घाटी में नज़रबंद कर दिए गए । भूख के कारण उन्हें पत्ते तक खाना पड़ा । ऐसे कठिन समय में मुसलमानों के कुछ हमदर्दों के प्रयास से यह नज़रबंदी समाप्त हुई ।
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    ( 12 )
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    इसके कुछ दिनों के बाद चचा अबू-तालिब चल बसे । थोड़े ही दिनों के बाद बीवी ख़दीजा ( रज़ि०) भी नहीं रहीं।
    मक्का के काफ़िरों ने बहुत कोशिश की कि मुहम्मद ( सल्ल० ) अल्लाह का पैग़ाम पहुँचाना छोड़ दें। चचा अबू-तालिब कि मौत के बाद उन काफ़िरों के हौसले बहुत बढ़ गए । एक दिन आप ( सल्ल०) काबा में नमाज़ पढ़ रहे थे कि किसी ने औझड़ी ( गंदगी ) लाकर आपके ऊपर डाल दी, लेकिन आप ने न कुछ बुरा-भला कहा और न कोई बददुआ दी ।
    इसी प्रकार एक बार आप ( सल्ल० ) कहीं जा रहे थे , रस्ते में किसी ने आप के सर पर मिटटी डाल दी । आप घर वापस लौट आए । पिता पर लगातार हो रहे अत्याचारों को सोच का बेटी फ़ातिमा आप का सर धोते हुए रोनें लगीं । आप ( सल्ल० ) ने बेटी को तसल्ली देते ही कहा: ” बेटी रो मत! अल्लाह तुम्हारे बाप की मदद करेगा ।”
    मुहम्मद ( सल्ल०) जब क़ुरैश के ज़ुल्मों से तंग आ गए और उनकी ज़्यादतियां असहनीय हो गयीं, तो आप ( सल्ल० ) ताइफ़ चले गए. लेकिन यहाँ किसी ने आप को ठहराना तक पसंद नहीं किया । अल्लाह के पैग़ाम को झूठा कह कर आप को अल्लाह का रसूल मानने से इंकार कर दिया ।
    सक़ीफ़ क़बीले के सरदार ने ताइफ़ के गुंडों को आप के पीछे लगा दिया , जिन्होंने पत्थर मार-मार कर आप को बुरी तरह ज़ख़्मी कर दिया । किसी तरह आप ने अंगूर के एक बाग़ में छिप कर अपनी जान बचाई ।
    मक्के के क़ुरैश को जब ताइफ़ का सारा हाल मालूम हुआ, तो वो बड़े
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    ( 13 )
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    खुश हुए और आप की खूब हंसी उड़ायी । उन्होंने आपस में तय किया कि मुहम्मद अगर वापस लौट कर मक्का आए तो उन का क़त्ल कर देंगे ।
    आप ( सल्ल० ) ताइफ़ से मक्का के लिए रवाना हुए । हिरा नामक स्थान पर पहुंचे तो वहां पर क़ुरैश के कुछ लोग मिल गये । ये लोग आप ( सल्ल० ) के हमदर्द थे उनसे मालूम हुआ कि क़ुरैश आप का क़त्ल करने को तैयार बैठे हैं ।
    अल्लाह के रसूल अपनी बीवी ख़दीजा के एक रिश्तेदार अदि के बेटे मुतईम कि पनाह में मक्का में दाखिल हुए । चूँकि मुतईम आपको पनाह दे चुके थे, इसलिए कोई कुछ न बोला लेकिन आप ( सल्ल०) जब काबा पहुंचे, तो अबू-जहल ने आप कि हंसी उड़ाई ।
    आपने लगातार अबू-जहल के दुर्व्यवहार को देखते हुए पहली बार उसे सख्त चतावनी दी और साथ ही क़ुरैश सरदारों को भी अंजाम भुगतने को तैयार रहने को कहा ।
    इसके बाद अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) ने अरब के अन्य क़बीलों को इस्लाम कि और बुलाना शुरू किया इससे मदीना में इस्लाम फैलने लगा ।
    मदीना वासियों ने अल्लाह के रसूल कि बातों पर ईमान ( यानि विश्वास ) लाने के साथ आप ( सल्ल० ) की सुरक्षा करने का भी प्रतिज्ञा की । मदीना वालों ने आपस में तय किया कि इस बार जब हज करने मक्का जायेंगे , अपने प्यारे रसूल ( सल्ल० ) को मदीना आने का निमंत्रण देंगे ।
    जब हज का समय आया , तो मदीने से मुसलमानों और ग़ैर मुसलमानों का एक बड़ा क़ाफ़िला हज के लिए मक्का के लिए चला । मदीना के मुसलमानों की आप ( सल्ल० ) से काबा में मुलाक़ात
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    ( 14 )
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    हुई । इनमें से 75 लोगों ने जिनमें दो औरतें भी थीं पहले से तय की हुई जगह पर रात में फिर अल्लाह के रसूल से मुलाक़ात की । अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) से बातचीत करने के बाद मदीना वालों ने सत्य की और सत्य को बताने वाले अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) की रक्षा करने की बैत ( यानि प्रतिज्ञा ) की ।
    रात में हुई प्रतिज्ञा की ख़बर क़ुरैश को मिल गई थी । सुबह क़ुरैश को जब पता चला की मदीना वाले निकल गए ,तो उन्होंने उन का पीछा किया पर वे पकड़ में न आये । लेकिन उनमें एक व्यक्ति सआद ( रज़ि०) पकड़ लिये गए । क़ुरैश उन्हें मरते-पीटते बाल पकड़ कर घसीटते हुए मक्का लाए ।
    मक्का के मुसलमानों के लिये क़ुरैश के अत्याचार असहनीय हो चुके थे । इससे आप ( सल्ल० ) ने मुसलमानों को मदीना चले जाने ( हिजरत ) के लिये कहा और हिदायत दी कि एक-एक , दो-दो करके निकलो ताकि क़ुरैश तुम्हारा इरादा भांप न सकें । मुसलमान चोरी-छिपे मदीने की ओर जाने लगे । अधिकांश मुस्लमान निकल गए लेकिन कुछ क़ुरैश की पकड़ में आ गए और क़ैद कर लिये गए । उन्हें बड़ी बेरहमी से सताया गया ताकि वे मुहम्मद ( सल्ल० ) के बताये धर्म को छोड़ कर अपने बाप-दादा के धर्म में लौट आएं ।
    अब मक्का में इन बंदी मुसलमानों के अलावा अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ), अबू-बक्र (रज़ि० ), और अली ( रज़ि० ) ही बचे थे ,जिन पर काफ़िर क़ुरैश घात लगाये बैठे थे ।
    मदीना के लिये मुसलमानों की हिजरत से यह हुआ कि मदीना में इस्लाम का प्रचार-प्रसार शुरू हो गया । लोग तेज़ी से मुसलमान बनने लगे ।
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    ( 15 )
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    मुसलमानों का ज़ोर बढ़ने लगा । मदीना में मुसलमानों की बढ़ती ताक़त देखकर क़ुरैश चिंतित हुए । अत: एक दिन क़ुरैश अपने मंत्रणागृह ‘दरुन्न्दवा ‘ में जमा हुए । यहाँ सब ऐसी तरकीब सोचने लगे जिससे मुहम्मद का ख़ात्मा हो जाये और इस्लाम का प्रवाह रुक जाये । अबू-जहल के प्रस्ताव पर सब की राय से तय हुआ कि क़बीले से एक-एक व्यक्ति को लेकर एक साथ मुहम्मद पर हमला बोलकर उन कि हत्या कर दी जाए । इससे मुहम्मद के परिवार वाले तमाम सम्मिलित क़बीलों का मुक़ाबला नहीं कर पायेंगे और समझौता करने को मजबूर हो जायेंगे ।
    फिर पहले से तय कि हुई रात को काफिरों ने हत्या के लिए मुहम्मद ( सल्ल० ) के घर को हर तरफ से घेर लिया जिससे कि मुहम्मद ( सल्ल०) के बाहर निकलते ही आप कि हत्या कर दें । अल्लाह ने इस ख़तरे से आप ( सल्ल० ) को सावधान कर दिया । आप ( सल्ल० ) ने अपने चचेरे भाई अली ( रज़ि० ) जो आपके साथ रहते थे से कहा:-
    ” अली ! मुझ को अल्लाह से हिजरत का आदेश मिल चुका है । काफ़िर हमारी हत्या के लिए हमारे घर को घेरे हुए हैं । मैं मदीना जा रहा हूँ तुम मेरी चादर ओढ़ कर सो जाओ , अल्लाह तुम्हारी रक्षा करेगा , बाद में तुम भी मदीना चले आना । ”
    हजरत मुहम्मद ( सल्ल० ) अपने प्रिय साथी अबू-बक्र ( रज़ि० ) के साथ मक्का से मदीना के लिए निकले । मदीना , मक्का से उत्तर दिशा की ओर है , लेकिन दुश्मनों को धोखे में रखने के लिये आप ( सल्ल० ) मक्का से दक्षिण दिशा में यमन के रास्ते पर सौर की गुफ़ा में पहुंचे । तीन दिन उसी गुफ़ा में ठहरे रहे । जब आप ( सल्ल० ) व हज़रत अबू-बक्र ( रज़ि० ) की तलाश बंद हो गयी तब आप ( सल्ल० ) व अबू-बक्र ( रज़ि० ) गुफ़ा से निकल कर मदीना की ओर चल दिये ।
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    ( 16 )
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    कई दिन-रात चलने के बाद 24 सितम्बर सन 622 ई० को मदीना से पहले कुबा नाम की एक बस्ती में पहुंचे जहाँ के कई परिवार आबाद थे । यहाँ आपने एक मस्जिद की बुनियाद डाली, जो ‘ कुबा मस्जिद ‘ के नाम से प्रसिद्ध है । यहीं पर अली ( रज़ि० ) की आप से ( सल्ल०) से मुलाक़ात हो गई । कुछ दिन यहाँ ठरहने के बाद आप ( सल्ल० ) मदीना पहुंचे । मदीना पहुँचने पर आप ( सल्ल० ) का सब ओर भव्य हार्दिक स्वागत हुआ ।
    अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के मदीना पहुँचने के बाद वहां एकेश्वरवादी सत्य-धर्म इस्लाम बड़ी तेज़ी से बढ़ने लगा । हर ओर ‘ ला इला-ह इल्लल्लाह मुहम्म्दुर्रुसूल्ल्लाह ‘ यानि ‘ अल्लाह के अलावा कोई पूज्य नहीं और मुहम्मद ( सल्ल० ) अल्लाह के रसूल हैं ।’ की गूँज सुनाई देने लगी ।
    काफ़िर क़ुरैश , मुनाफिकों ( यानि कपटाचारियों ) की मदद से मदीना की ख़बर लेते रहते । सत्य धर्म इस्लाम का प्रवाह रोकने के लिये , अब वे मदीना पर हमला करने की योजनायें बनाने लगे ।
    एक तरफ़ क़ुरैश लगातार कई सालों से मुसलमानों पर हर तरह के अत्याचार करने के साथ-साथ उन्हें नष्ट करने पर उतारू थे , वहीँ दूसरी तरफ़ आप ( सल्ल० ) पर विश्वास लेन वालों ( यानी मुसलमानों ) को अपना वतन छोड़ना पड़ा , अपनी दौलत , जायदाद छोड़नी पड़ी इसके बाद भी मुस्लमान सब्र का दमन थामे ही रहे । लेकिन अत्याचारियों ने मदीना में भी उनका पीछा न छोड़ा और एक बड़ी सेना के साथ मुसलमानों पर हमला कर दिया ।
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    ( 17 )
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    जब पानी सिर से ऊपर हो गया तब अल्लाह ने भी मुसलमानों को लड़ने की इजाज़त दे दी । अल्लाह का हुक्म आ पहुंचा -” जिन मुसलमानों से ( खामखाह ) लड़ाई की जाती है; उन को इजाज़त है ( कि वे भी लड़ें ), क्योंकि उन पर ज़ुल्म हो रहा है और ख़ुदा ( उनकी मदद करेगा, वह ) यक़ीनन उन की मदद पर क़ुदरत रखता है ।”
    -कुरआन, सूरा 22, आयत 39
    असत्य के लिए लड़ने वाले अत्याचारियों से युद्ध करने का आदेश अल्लाह की ओर से आ चुका था । मुसलमानों को भी सत्य-धर्म इस्लाम की रक्षा के लिए तलवार उठाने की इजाज़त मिल चुकी थी ।अब जिहाद ( यानि असत्य और आतंकवाद के विरोध के लिए प्रयास अथार्त धर्मयुद्ध ) शुरू हो गया ।
    सत्य की स्थापना के लिए और अन्याय , अत्याचार तथा आतंक की समाप्ति के लिए किये गए जिहाद ( धर्मरक्षा व आत्मरक्षा के लिए युद्ध ) में अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) की विजय होती रही । मक्का व आस पास के काफ़िर मुशरिक औंधे मुंह गिरे ।
    इसके बाद पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) दस हज़ार मुसलमानों की सेना के साथ मक्का में असत्य व आतंकवाद की जड़ को समाप्त करने के लिए चले । अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) की सफ़लताओं और मुसलमानों की अपार शक्ति को देख मक्का के काफ़िरोंने हतियार डाल दिए । बिना किसी खून-खराबे के मक्का फ़तेह कर लिया गया । इस तरह सत्य और शांति की जीत तथा असत्य और आतंकवाद की हार हुई ।
    मक्का । वही मक्का जहाँ कल अपमान था, आज स्वागत हो रहा था । उदारता और दयालुता की मूर्ति बने अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) ने सभी लोगों को माफ़ कर दिया , जिन्होनें आप और मुसलमानों पर बेदर्दी से ज़ुल्म
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    ( 18 )
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    • ( 18 )
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      किया तथा अपना वतन छोड़ने को मजबूर किया था । आज वे ही मक्का वाले अल्लाह के रसूल के सामने ख़ुशी से कह रहे थे –
      “ला इला-ह इल्लल्लाह मुहम्म्दुर्रसूलुल्लाह ”
      और झुंड के झुंड प्रतिज्ञा ले रहे थे :
      ” अश्हदु अल्ला इलाहा इल्लल्लाहु व अश्हदु अन्न मुहम्म्दुर्रसूलुल्लाह”
      ( मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं और मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद ( सल्ल० ) अल्लाह के रसूल हैं । )
      हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) की पवित्र जीवनी पढ़ने के बाद मैंने पाया कि आप ( सल्ल० ) ने एकेश्वरवाद के सत्य को स्थापित करने के लिए अपार कष्ट झेले ।
      मक्का के काफ़िर सत्य कि राह में रोड़ा डालने के लिए आप को तथा आपके बताये सत्य पर चलने वाले मुसलमानों को लगातार तेरह सालों तक हर तरह से प्रताड़ित व अपमानित करते रहे । इस घोर अत्याचार के बाद भी आप ( सल्ल० ) ने धैर्य बनाये रखा । यहाँ तक कि आप को अपना वतन छोड़ कर मदीना जाना पड़ा । लेकिन मक्का के मुशरिक कुरैश ने आप ( सल्ल० ) का व मुसलमानों का पीछा यहाँ भी नहीं छोड़ा । जब पानी सिर से ऊपर हो गया तो अपनी व मुसलमानों कि तथा सत्य कि रक्षा के लिए मजबूर होकर आप को लड़ने पड़ा । इस तरह आप पर व मुसलमानों पर लड़ाई थोपी गई ।
      इन्हीं परीस्थितियों में सत्य कि रक्ष के लिए जिहाद ( आत्मरक्षा व धर्मरक्षा के लीयते धर्म युद्ध ) कि आयतें और अन्यायी तथा अत्याचारी काफ़िरों व मुशरिकों को दंड देने वाली आयतें अल्लाह कि ओर से आप ( सल्ल० ) पर असमान से उतरीं ।
      पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) द्वारा लड़ी गई लड़ाईयां
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      ( 19 )
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      आक्रमण के लिए न होकर, आक्रमण व आतंकवाद से बचाव के लिए थीं, क्योंकि अत्याचारियों के साथ ऐसा किये बिना शांति की स्थापना नहीं हो सकती थी ।
      अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) ने सत्य तथा शांति के लिये अंतिम सीमा तक धैर्य रखा और धैर्य की अंतिम सीमा से युद्ध की शुरुआत होती है । इस प्रकार का युद्ध ही धर्म युद्ध ( यानि जिहाद ) कहलाता है ।
      विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि कुरैश जिन्होंने आप व मुसलमानों पर भयानक अत्याचार किये थे, फ़तह मक्का ( यानि मक्का विजय ) के दिन थर-थर कांप रहे थे कि आज क्या होगा? लेकिन आप ( सल्ल० ) ने उन्हें माफ़ कर गले लगा लिया ।
      पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद ( सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) की इस पवित्र जीवनी से सिद्ध होता है कि इस्लाम का अंतिम उद्देश्य दुनिया में सत्य और शांति कि स्थापना और आतंकवाद का विरोध है ।

      अत: इस्लाम कि हिंसा व आतंक से जोड़ना सबसे बड़ा असत्य । यदि कोई घटना होती है तो उसको इस्लाम से या सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय से जोड़ा नहीं जा सकता ।
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      ( 20 )
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      भाग 2
      अब इस्लाम को विस्तार से जानने के लिये इस्लाम की बुनियाद क़ुरआन की ओर चलते हैं ।
      इस्लाम, आतंक है ? या आदर्श । यह जानने के लिये मैं क़ुरआन माजिद की कुछ आयतें दे रहा हूँ जिन्हें मैंने मौलाना फ़तेह मोहम्मद खां जालंधरी द्वारा हिंदी में अनुवादित और महमूद एंड कंपनी मरोल पाइप लाइन मुंबई – 59 से प्रकाशित क़ुरआन माजिद से लिया है ।
      यह बात ध्यान देने योग्य है कि कुरआन का अनुवाद करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता है कि किसी भी आयत का भावार्थ ज़रा भी न बदलने पाये । क्योंकि किसी भी क़ीमत पर यह बदला नहीं जा सकता । इसलिए अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग अनुवादकों द्वारा कुरआन माजिद के किये गये अनुवाद का भाव एक ही रहता है ।
      क़ुरआन की शुरुआत ‘ बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम ‘से होती है , जिसका अर्थ है -शुरू अल्लाह का नाम लेकर , जो बड़ा कृपालु , अत्यंत दयालु है ।”
      ध्यान दें । ऐसा अल्लाह जो बड़ा कृपालु और अत्यंत दयालु है वह ऐसे फ़रमान कैसे जरी कर सकता है, जो किसी को कष्ट पहुँचाने वाले हों अथवा हिंसा या आतंक फैलाने वाले हों ? अल्लाह की इसी कृपालुता और दयालुता का पूर्ण प्रभाव अल्लाह के रसूल
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      ( 21 )
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      ( सल्ल० ) के व्यावहारिक जीवन में देखने को मिलता है ।
      क़ुरआन की आयतों से व पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) की जीवनी से पता चलता है कि मुसलमानों को उन काफ़िरों से लड़ने का आदेश दिया गया जो आक्रमणकारी थे, अत्यचारी थे । यह लड़ाई अपने बचाव के लिये थीं । देखें क़ुरआन माजिद में अल्लाह के आदेश:
      और ( ऐ मुहम्मद ! उस वक़्त को याद करो ) जब काफ़िर लोग तुम्हारे बारे में चाल चल रहे थे कि तुम को क़ैद कर दें या जान से मार डालें या ( वतन से ) निकल दें तो ( इधर से ) वे चाल चाल रहे थे और ( उधर ) ख़ुदा चाल चाल रहा था और ख़ुदा सबसे बेहतर चाल चलने वाला है ।
      – क़ुरआन , सूरा 8, आयत -30
      ये लोग हैं कि अपने घरों से ना-हक़ निकल दिए गये , ( उन्होंने कुछ कुसूर नहीं किया ) हां, यह कहते हैं कि हमारा परवरदिगार ख़ुदा है और अगर ख़ुदा लोगों को एक-दूसरे से न हटाता रहता तो ( राहिबों के ) पूजा-घर और ( ईसाईयों के ) गिरजे और ( यहूदियों की ) और ( मुसलमानों की ) मस्जिदें , जिन में ख़ुदा का बहुत-सा ज़िक्र किया जाता है, गिराई जा चुकी होतीं । और जो शख्स ख़ुदा की मदद करता है, ख़ुदा उस की मदद ज़रूर करता है । बेशक ख़ुदा ताक़त वाला और ग़ालिब ( यानी प्रभुत्वशाली ) है ।
      -क़ुरआन , सूरा 22, आयत – 40
      ये क्या कहते हैं कि इस ने क़ुरान खुद बना लिया है ? कह दो कि अगर सच्चे हो तुम भी ऐसी दस सूरतें बना लाओ और ख़ुदा के सिवा जिस-जिस को बुला सकते हो , बुला लो ।
      -क़ुरआन, सूरा 11, आयत -13
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      ( 22 )
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      ( ऐ पैग़म्बर ! ) काफ़िरों का शहरों में चलना-फिरना तुम्हें धोखा न दे ।
      -क़ुरआन , सूरा 3, आयत -196
      जिन मुसलमानों से ( खामखाह ) लड़ाई की जाती है, उन को इजाज़त है ( की वे भी लड़ें ), क्योंकि उन पर ज़ुल्म हो रहा है और ख़ुदा ( उन की मदद करेगा ,वह ) यक़ीनन उन की मदद पर क़ुदरत रखता है ।
      -क़ुरआन, सूरा 22, आयत-39
      और उनको ( यानि काफ़िर क़ुरैश को ) जहां पाओ , क़त्ल कर दो और जहां से उन्होंने तुमको निकला है ( यानि मक्का से ) वहां से तुम भी उनको निकल दो ।
      -क़ुरआन , सूरा 2, आयत-191
      जो लोग ख़ुदा और उसके रसूल से लड़ाई करें और मुल्क में फ़साद करने को दौड़ते फिरें, उन की यह सज़ा है की क़त्ल कर दिए जाएं या सूली पर चढ़ा दिए जाएं या उन के एक-एक तरफ़ के हाथ और एक-एक तरफ़ के पांव कट दिए जाएँ । यह तो दुनियां में उनकी रुसवाई है और आख़िरत ( यानी क़ियामत के दिन ) में उनके लिए बड़ा ( भारी ) अज़ाब ( तैयार ) है ।
      हाँ, जिन लोगों ने इस से पहले की तुम्हारे क़ाबू आ जाएं , तौबा कर ली तो जान रखो की ख़ुदा बख्शने वाला मेहरबान है ।
      -क़ुरआन , सूरा 5 , आयत-33 ,34
      इस्लाम के बारे में झूठा प्रचार किया जाता है की कुरआन में अल्लाह के आदेशों के कारण ही मुस्लमान लोग ग़ैर-मुसलमानों का जीना हराम कर देते हैं, जबकि इस्लाम में कहीं भी निर्दोष से लड़ने की इजाज़त नहीं है,भले ही वह काफ़िर या मुशरिक या दुश्मन ही क्यों
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      ( 23 )
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      न हों । विशेष रूप से देखिये अल्लाह के ये आदेश:
      जिन लोगों ने तुमसे दीन के बारे में जंग नहीं की और न तुम को तुम्हारे घरों से निकला,उन के साथ भलाई और इंसाफ का सुलूक करने से ख़ुदा तुम को मना नहीं करता । ख़ुदा तो इंसाफ करने वालों को दोस्त रखता है ।
      -कुरआन, सूरा 60 , आयत-8
      ख़ुदा उन्हीं लोगों के साथ तुम को दोस्ती करने से मना करता है , जिन्होंने तुम से दीन के बारे में लड़ाई की और तुम को तुम्हारे घरों से निकला और तुम्हारे निकलने में औरों की मदद की , तो जो लोग ऐसों से दोस्ती करेंगे , वही ज़ालिम हैं ।
      -क़ुरआन , सूरा 60 , आयत- 9
      इस्लाम के दुश्मन के साथ भी ज्यादती करना मना है देखिये:
      और जो लोग तुमसे लड़ते हैं, तुम भी ख़ुदा की राह में उनसे लड़ो , मगर ज्यादती न करना की ख़ुदा ज्यादती करने वालों को दोस्त नहीं रखता ।
      -क़ुरआन , सूरा 2 , आयत-190
      ये ख़ुदा की आयतें हैं, जो हम तुम को सेहत के साथ पढ़ कर सुनाते हैं और अल्लाह अहले-आलम ( अथार्त जनता ) पर ज़ुल्म नहीं करना चाहता ।
      -क़ुरआन , सूरा 3 , आयत- 108
      इस्लाम का प्रथम उद्देश्य दुनिया में शांति की स्थापना है, लड़ाई तो अंतिम विकल्प है यही तो आदर्श धर्म है, जो नीचे दी गईं इस आयत में दिखाई देता है:
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      ( 24 )
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      ( ऐ पैग़म्बर ! कुफ्फर से कह दो की अगर वे अपने फ़ेलों से बाज़ न आ जाएँ, तो जो चूका, वह माफ़ कर दिया जायेगा और अगर फिर ( वही हरकतें ) करने लगेंगे तो अगले लोगों का ( जो ) तरीका जरी हो चुका है ( वही उन के हक में बरता जायेगा )
      -क़ुरआन ,सूरा 8 , आयत-38
      इस्लाम में दुश्मनों के साथ अच्छा न्याय करने का आदेश, न्याय का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत करता है इसे नीचे दी गई आयत में देखिये:
      ऐ इमान वालों ! ख़ुदा के लिए इंसाफ़ की गवाही देने के लिए खड़े हो जाया करो और लोगों की दुश्मनी तुम को इस बात पर तैयार न करे की इंसाफ़ छोड़ दो । इंसाफ़ किया करो क़ि यही परहेज़गारी की बात है और ख़ुदा से डरते रहो । कुछ शक नहीं की ख़ुदा तुम्हारे तमाम कामों से ख़बरदार है ।
      -क़ुरआन , सूरा 5 आयत- 8
      इस्लाम में किसी निर्दोष कि हत्या की इजाज़त नहीं है ऐसा करने वाले को एक ही सज़ा है, खून के बदले खून । लेकिन यह सज़ा केवल क़ातिल को ही मिलनी चाहिये और इसमें ज़्यादती मना है इसे ही तो कहते हैं सच्चा इंसाफ़ । देखिये नीचे दिया गया अल्लाह का यह आदेश:
      और जिस जानदार का मारना ख़ुदा ने हराम किया है, उसे क़त्ल न करना मगर जायज़ तौर पर ( यानि शरियत के फ़तवे के मुताबिक़ ) और जो शख्स ज़ुल्म से क़त्ल किया जाये , हम ने उसके वारिस को अख्तियार दिया है ( की ज़ालिम क़ातिल से बदला ले ) तो उसे चाहिये की क़त्ल ( के किसास ) में ज़्यादती न करे की वह मंसूर व फ़तेहयाब है ।
      -क़ुरआन , सूरा 17 , आयत -33
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      ( 25 )
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      इस्लाम द्वारा, देश में हिंसा ( फ़साद ) करने की इजाज़त नहीं है । देखिये अल्लाह का यह आदेश:
      लोगों को उन की चीज़ें कम न दिया करो और मुल्क में फ़साद न करते फिरो।
      -क़ुरआन , सूरा 26 , आयत-183
      ज़ालिमों को अल्लाह की चेतावनी :
      जो लोग ख़ुदा की आयतों को नहीं मानते और नबियों को ना-हक़ क़त्ल करते रहे हैं जो इंसाफ़ करने का हुक्म देते हैं , उन्हें भी मार डालते हैं उन को दुःख देने वाले अज़ाब की ख़ुश ख़बरी सुना दो ।
      -क़ुरआन , सूरा 3 , आयत-21
      सत्य के लिए कष्ट सहने वाले, लड़ने-मरने वाले इश्वर की कृपा के पात्र होंगे, उस के प्रिये होंगे :तो परवरदिगार ने उन की दुआ क़ुबूल कर ली। ( और फ़रमाया ) की मैं किसी अमल करने वाले को, मर्द हो या औरत ज़ाया नहीं करता। तुम एक दुसरे की जींस हो , तो जो लोग मेरे लिए वतन छोड़ गए और अपने घरों से निकले गये और सताये गये और लड़े और क़त्ल किये गये में उनके गुनाह दूर कर दूंगा । और उनको बहिश्तों में दाख़िल करूंगा, जिनके नीचे नहरें बह रही हैं । ( यह ) ख़ुदा के यहां से बदला है और ख़ुदा के यहां अच्छा बदला है ।
      -क़ुरआन , सूरा ३, आयत-१९५
      इस्लाम को बदनाम करने के लिए लिख-लिख कर प्रचारित किया गया की इस्लाम तलवार के बल पर प्रचारित व प्रसारित ————————————————————————————————-
      ( 26 )
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      मज़हब है । मक्का सहित सम्पूर्ण अरब व दुनिया के अधिकांश मुस्लमान,तलवार के जोर पर ही मुस्लमान बनाए गये थे इस तरह इस्लाम का प्रसार जोर-ज़बरदस्ती से हुआ ।
      जबकि इस्लाम में किसी को जोर ज़बरदस्ती से मुस्लमान बनाने की सख्त मनाही है । क़ुरआन माजिद में अल्लाह के ये आदेश :
      और अगर तुम्हारा परवरदिगार ( यानि अल्लाह ) चाहता, तो जितने लोग ज़मीं पर हैं, सब के सब इमा ले आते । तो क्या तुम लोगों पर ज़बरदस्ती करना चाहते हो की वे मोमिन ( यानि मुस्लमान ) हो जाएं ।
      -क़ुरआन, सूरा 10 , आयत-99
      ‘ शुरू अल्लह का नाम लेकर, जो बड़ा कृपालु, अत्यंत दयालु है ।’
      ( ऐ पैग़म्बर ! इस्लाम के इन नास्तिकों से ) कह दो कि ऐ काफ़िरों ! ( 1 )
      जिन ( बुतों ) को तुम पूजते हो, उन को मैं नहीं पूजता , ( 2 )
      और जिस ( ख़ुदा ) की मैं इबादत करता हूँ, उस की तुम इबादत नहीं करते, ( 3 )
      और ( मैं फिर कहता हूँ कि ) जिन की तुम पूजा करते हो, उन की मैं पूजा नहीं करने वाला हूँ । ( 4 )
      और न तुम उसकी बंदगी करने वाले ( मालूम होते ) हो, जिसकी मैं बंदगी करता हूँ । ( 5 )
      तुम अपने दीन पर, मैं अपने दीन पर । ( 6 )
      -क़ुरआन , सूरा १०९, आयत-१-६
      ऐ पैग़म्बर ! अगर ये लोग तुमसे झगड़ने लगें, तो कहना कि मैं
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      ( 27 )
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      और मेरी पैरवी करने वाले तो ख़ुदा के फ़रमाँबरदार ( अथार्त आज्ञाकारी ) हो चुके और अहले किताब और अन-पढ़ लोगों से कहो कि क्या तुम भी ( ख़ुदा के फ़रमाँबरदार बनते और ) इस्लाम लाते हो ? अगर ये लोग इस्लाम ले आयें तो बेशक हिदायत पा लें और अगर ( तुम्हारा कहा ) न मानें, तो तुम्हारा काम सिर्फ ख़ुदा का पैग़ाम पहुंचा देना है । और ख़ुदा ( अपने ) बन्दों को देख रहा है ।
      -क़ुरआन , सूरा 3 , आयात-20
      कह दो कि ऐ अहले किताब ! जो बात हमारे और तुम्हारे दरमियां एक ही ( मान ली गयी ) है , उसकी तरफ़ आओ, वह यह कि ख़ुदा के सिवा किसी की पूजा न करें और उसके साथ किसी चीज़ को शरीक ( यानि साझी ) न बनायें और हममें से कोई किसी को ख़ुदा के सिवा अपना करसाज़ न समझे । अगर ये लोग ( इस बात को ) न मानें तो ( उनसे ) कह दो कि तुम गवाह रहो कि हम ( ख़ुदा के ) फ़रमाँबरदार हैं ।
      -क़ुरआन , सूरा 3 , आयात-64
      इस्लाम में , ज़ोर ज़बरदस्ती से धर्म परिवर्तन कि मनाही के साथ-साथ इससे भी आगे बढ़ कर किसी भी प्रकार कि ज़ोर-ज़बरदस्ती कि इजाज़त नहीं है । देखिये अल्लाह का यह आदेश :
      दिने इस्लाम में ज़बरदस्ती नहीं है ।
      -क़ुरआन , सूरा 2 , आयात-256
      हाँ, जो बुरे काम करे और उसके गुनाह ( हर तरफ़ से ) उसको घेर लें तो ऐसे लोग दोज़ख ( में जाने ) वाले हैं । ( और ) हमेशा उसमें ( जलते ) रहेंगे ।
      -क़ुरआन , सूरा 2 , आयात-81
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      निष्कर्ष- पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की जीवनी व कुरआन मजीद की आयतों को देखने के बाद स्पष्ट है की हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) की करनी और कुरआन की कथनी में कहीं भी आतंकवाद नहीं है ।
      इससे सिद्ध होता है की इस्लाम की अधूरी जानकारी रखने वाले ही अज्ञानता के कारन इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ते हैं ।
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      भाग ३
      कुरआन की वे चौबीस आयतें
      कुछ लोग कुरआन की 24 आयतों वाला एक पैम्फलेट कई सालों से देश की जनता के बीच बाँट रहे हैं जो भारत की लगभग सभी मुख्य क्षेत्रीय भाषों में छपता है । इस पैम्फलेट का शीर्षक है ‘ कुरआन की कुछ आयतें जो इमानवालों ( मुसलमानों ) को अन्य धर्मावलम्बियों से झगड़ा करने का आदेश देती हैं । जैसा की किताब की शुरुआत में ‘ जब मुझे सत्य की ज्ञान हुआ ‘ में मैंने लिखा है की इसी पर्चे को पढ़ कर मैं भ्रमित हो गया था । यह परचा जैसा छपा है, वैसा ही नीचे दे रहा हूँ :
      कुरआन की कुछ आयतें जो इमानवालों ( मुसलमानों ) को अन्य धर्मावलम्बियों से झगड़ा करने का आदेश देती हैं ।
      1 -” फिर, जब हराम के महीने बीत जाएं , तो ‘ मुशरिकों’ को जहाँ कहीं पाओ क़त्ल करो, और पकड़ो , और उन्हें घेरो, और हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो । फिर यदि वे ‘तौबा ‘ कर लें नमाज़ क़ायम करें और, ज़कात दें, तो उनका मार्ग छोड़ दो । नि:संदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दया करने वाला है ।”
      – ( 10 ,9 ,5 )
      2 -” हे ईमान’ लेन वालो ! ‘ मुशरिक’ ( मूर्तिपूजक ) नापाक हैं ।”
      -( 10 ,9 , 28 )
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      ( 30 )
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      3 -” नि: संदेह ‘ काफ़िर ‘ तुम्हारे खुले दुश्मन हैं ।”
      – ( 5 ,4 ,101 )
      4 – ” हे ‘इमान’ लाने वालों ! ( मुसलमानों ! ) उन ‘ काफ़िरों ‘ से लड़ो जो तुम्हारे आस-पास हैं , और चाहिए कि वे तुममें सखती पायें ।”
      – ( 11 ,9 ,123 )
      5 – ” जिन लोगों ने हमारी ‘आयतों ‘ का इंकार किया, उन्हें हम जल्द अग्नि में झोंक देंगे । जब उनकी खालें पाक जायेंगी तो हम उन्हें दूसरी खालों में बदल देंगे ताकि वे यातना का रसास्वादन कर लें । नि: संदेह अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वदर्शी है । ”
      – ( 5 , 4 , 56 )
      6 – ‘ हे ‘ ईमान ‘ लेन वालो ! ( मुसलमानों ! ) अपने बापों और भाइयों को अपना मित्र मत बनाओ यदि वे ‘ ईमान ‘ की अपेक्षा ‘ कुफ़्र ‘ को पसंद करें । और तुम में से जो कोई उनसे मित्रता का नाता जोड़ेगा तो ऐसे ही लोग ज़ालिम होंगे ।” – ( 10 , 9 ,23 )
      7 – ” अल्लाह ‘काफ़िर ‘ लोगों को मार्ग नहीं दिखता ।”
      – ( 10 , 9 , 37 )
      8 – ” हे ‘ईमान’ लेन वालों ! ——और ‘काफ़िरों’ को अपना मित्र मत बनाओ । अल्लाह से डरते रहो यदि तुम ईमान वाले हो ।” – ( 6 , 5 , 57 )
      9 – ” फिट्कारे हुए लोग ( ग़ैरमुस्लिम ) जहाँ कहीं पाये जायेंगे पकड़े जायेंगे और बुरी तरह क़त्ल किये जायेंगे ।” – ( 22 , 23 , 61 )
      10 – ” ( कहा जायेगा ) : निश्चेय ही तुम और वह जिसे तुम अल्लाह के सिवा पूजते थे ‘ जहन्नम ‘ का इंधन हो । तुम अवश्य उसके घाट उतरोगे ।”
      – ( 17 , 21 , 98 )
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      ( 31 )
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      11 – ” और उससे बढ़ कर ज़ालिम कौन होगा जिसे उसके ‘ रब ‘ की ‘ आयतों ‘ के द्वारा चेताया जाये , और फिर वह उनसे मुंह फेर ले । निश्चय ही हमें ऐसे अपराधियों से बदला लेना है ।”
      – ( 22 , 32 , 22 , )
      12 – ‘ अल्लाह ने तुमसे बहुत सी ‘ गनिमतों ‘ ( लूट ) का वादा किया है जो तुम्हारे हाथ आयेंगी,”
      – ( 26 , 48 , 20 )
      13 – ” तो जो कुछ ‘ गनीमत ‘ ( लूट ) का माल तुमने हासिल किया है उसे ‘ हलाल ‘ व पाक समझ कर खाओ,”
      – ( 10 , 8 , 69 )
      14 – ‘ हे नबी ! ‘ काफ़िरों ‘ और ‘ मुनाफ़िकों ‘ के साथ जिहाद करो, और उन पर सख्ती करो और उनका ठिकाना ‘ जहन्नम ‘ है , और बुरी जगह है जहाँ पहुंचे ।”
      – ( 28 , 66 , 9 )
      15 ” तो अवश्य हम ‘ कुफ्र ‘ करने वालों को यातना का मज़ा चखाएंगे, और अवश्य ही हम उन्हें सबसे बुरा बदला देंगे उस कर्म का जो वे करते थे ।”
      – ( 24 , 41 , 27 )
      16 – ” यह बदला है अल्लाह के शत्रुओं का ( ‘ जहन्नम ‘ की ) आग । इसी में उनका सदा घर है । इसके बदले में की हमारी ‘ आयतों ‘ का इंकार करते थे ।”
      – ( 24 , 41 , 28 )
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      ( 32 )
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      17 – ” ” नि: संदेह अल्लाह ने ‘ ईमान वालों ( मुसलमानों ) से उनके प्राणों और मालों को इसके बदले में ख़रीद लिया है कि उनके लिये ‘ जन्नत ‘ है वे अल्लाह के मार्ग में लड़ते हैं तो मारते भी है और मारे भी जाते हैं ।”
      – ( 11 , 9 , 111 )
      18 – ” अल्लाह ने इन मुनाफ़िक़ ( अर्ध मुस्लिम ) पुरूषों और मुनाफ़िक़ स्त्रियों और ‘ काफ़िरों ‘ से ‘ जहन्नुम ‘ कि आग का वादा किया है जिसमें वे सदा रहेंगे । यही उन्हें बस है । अल्लाह ने उन्हें लानत की और उनके लिये स्थायी यातना हैं । ”
      – ( 10 , 9 , 68 )
      19 – हे नबी ! ‘ ईमान वालों ( मुसलमानों ) को लड़ाई पर उभारो । यदि तुम में 20 जमे रहने वाले होंगे तो वे 200 पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे , और यदि तुम में 100 हों तो 1000 ‘ काफ़िरों ‘ पर भरी रहेंगे , क्योंकि वे ऐसे लोग हैं जो समझ बूझ नहीं रखते । ”
      – ( 10 , 8 , 65 )
      20 – ” हे ईमान वालों ( मुसलमानों ) तुम ‘ यहूदियों ‘ और ‘ ईसाईयों ‘ को मित्र न बनाओ । ये आपस में एक दूसरे के मित्र हैं । और जो कोई तुम में से उनको मित्र बनायेगा, वह उन्हीं में से होगा । नि: संदेह अल्लाह ज़ुल्म करने वालों को मार्ग नहीं दिखाता । ”
      – ( 6 , 5 , 51 , )
      21 – ” किताब वाले ” जो न अल्लाह अपर ‘ईमान’ लाते हैं न अंतिम दिन पर, न उसे ‘ हराम ‘ करते जिसे अल्लाह और उसके ‘ रसूल ‘ ने हराम ठहराया है, और न सच्चे ‘ दीन ‘ को अपना ‘ दीन ‘ बनाते हैं , उनसे लड़ो यहाँ तक की वे अप्रतिशिष्ट ( अपमानित ) हो कर अपने हाथों से ‘ जिज़्या ‘ देने लगें ।”
      – ( 10 , 9 , 29 )
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      ( 33 )
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      22 ” ———– फिर हमनें उनके बीच ‘क़ियामत ‘ के दिन तक के लिए वैमनस्य और द्वेष की आग भड़का दी, और अल्लाह जल्द उन्हें बता देगा जो कुछ वे करते रहे हैं ।”
      -( 6 ,5 ,14 )
      23 – ” वे चाहते हैं की जिस तरह से वे ‘काफ़िर’ हुए हैं उसी तरह से तुम भी ‘ काफ़िर ‘ हो जाओ , फिर तुम एक जैसे हो जाओ तो उनमें से किसी को अपना साथी न बनाना जब तक वे अल्लाह की राह में हिजरत न करें, और यदि वे इससे फिर जावें तो उन्हें जहाँ कहीं पाओ पकड़ो और उनका ( क़त्ल ) वध करो । और उनमें से किसी को साथी और सहायक मत बनाना ।”
      -( 5 , 4 , 89 )
      24 – ” उन ( काफ़िरों ) से लड़ो ! अल्लाह तुम्हारे हाथों उन्हें यातना देगा , और उन्हें रुसवा करेगा और उनके मुक़ाबले में तुम्हारी सहायता करेगा , और ‘ईमान ‘ वालों के दिल ठंडे करेगा ।”
      -( 10 , 9 , 14 )
      उपरोक्त आयतों से स्पष्ट है की इनमें इर्ष्या, द्वेष , घृणा , कपट, लड़ाई-झगडा, लूट-मार और हत्या करने के आदेश मिलते हैं । इन्हीं कारणों से देश व विदेश में मुस्लिमों के बीच दंगे हुआ करते हैं ।
      दिल्ली प्रशासन ने सन् 1985 में सर्व श्री इन्द्रसेन शर्मा और राजकुमार आर्य के विरुद्ध दिल्ली के मैट्रोपोलिटन मैजिस्ट्रेट की अदालत में, उक्त पत्रक छापने के आरोप में मुक़द्दमा किया था । न्यायालय ने 31 जुलाई 1986 को उक्त दोनों महानुभावों को बरी करते हुए निर्णय दिया कि:
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      ( 34 )

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      ” कुरआन मजीद की पवित्र पुस्तक के प्रति आदर रखते हुए उक्त आयतों के सूक्षम अध्यन से स्पष्ट होता है कि ये आयतें बहुत हानिकारक हैं और घृणा की शिक्षा देती हैं, जिससे मुसलमानों और देश के अन्य वर्गों में भेदभाव को बढ़ावा मिलने की संभावना होती है ।”
      हिन्दू रायटर्स फोरम , नयी दिल्ली – 27 द्वारा पुनर्मुद्रित एवं प्रकाशित ।
      ऊपर दिए गए इस पैम्फलेट का सबसे पहले पोस्टर छापा गया था । जिसे श्री इन्द्रसेन शर्मा ( तत्कालीन उप प्रधान, हिन्दू महासभा, दिल्ली ) और श्री राज कुमार आर्य ने छपवाया था । इस पोस्टर में कुरआन मजीद की आयतें, मोहम्मद फारूख खां द्वारा हिंदी अनुवादित तथा मक्तबा अल हसनात रामपुर से 1996 में प्रकाशित कुरआन मजीद से ली गई थीं । यह पोस्टर छपने के कारण इन दोनों लोगों पर इंडियन पेनल कोड की धरा 153 ए और 165 ए के अंतर्गत ( एफ० आइ० आर० 237/83यू0 /एस,235ए, 1पी०सी० हौज़ क़ाज़ी , पुलिस स्टेशन दिल्ली ) में मुक़द्दमा चला था जिसमें उक्त फ़ैसला हुआ था ।
      अब हम देखेंगे की क्या इस पैम्फलेट की यह आयतें वास्तव में विभिन्न वर्गों के बीच घृणा फैलाने व झगड़ा करने वाली हैं ?
      पैम्फलेट में लिखी पहले क्रम की आयत है :
      1 – ‘ फिर जब हराम के महीने बीत जाएँ तो ” मुशरिकों ‘ को जहाँ कहीं पाओ क़त्ल करो , और पकड़ो , और उन्हें घेरो , और हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो। फिर यदि वे ‘तौबा’ कर लें नमाज़ क़ायम करें और, ज़कात दें , तो उनका मार्ग छोड़ दो । नि:संदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दया करने वाला है ।”
      -सूरा 9 आयत-5
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      ( 35 )
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      इस आयत के सन्दर्भ में-जैसा कि हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) की जीवनी से स्पष्ट है की मक्का में और मदीना जाने के बाद भी मुशरिक काफ़िर कुरैश , अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के पीछे पड़े थे । वह आप को सत्य-धर्म इस्लाम को समाप्त करने के लिए हर संभव कोशिश करते रहते । काफ़िर कुरैश ने अल्लाह के रसूल को कभी चैन से बैठने नहीं दिया । वह उनको सदैव सताते ही रहे । इसके लिए वह सदैव लड़ाई की साजिश रचते रहते ।
      अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) के हिजरत के छटवें साल ज़ीक़दा महीने में आप ( सल्ल० ) सैंकड़ों मुसलमानों के साथ हज के लिए मदीना से मक्का रवाना हुए । लेकिन मुनाफिकों ( यानि कपटचारियों ) ने इसकी ख़बर क़ुरैश को दे दी । क़ुरैश पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) को घेरने का कोई मौक़ा हाथ से जाने न देते । इस बार भी वह घात लगाकर रस्ते में बैठ गये । इसकी ख़बर आप ( सल्ल० ) को लग गई । आपने रास्ता बदल दिया और मक्का के पास हुदैबिया कुँए के पास पड़ाव डाला । कुँए के नाम पर इस जगह का नाम हुदैबिया था ।
      जब क़ुरैश को पता चला कि मुहम्मद अपने अनुयायी मुसलमानों के साथ मक्का के पास पहुँच चुके हैं और हुदैबिया पर पड़ाव डाले हुए हैं , तो काफ़िरों ने कुछ लोगों को आप की हत्या के लिए हुदैबिया भेजा, लेकिन वे सब हमले से पहले ही मुसलमानों द्वारा पकड़ लिए गये और अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के सामने लाये गये । लेकिन आपने उन्हें ग़लती का एहसास कराकर माफ़ कर दिया ।
      उसके बाद लड़ाई-झगड़ा, खून-ख़राबा टालने के लिए हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) को क़ुरैश से बात करने के लिए भेजा । लेकिन क़ुरैश ने हज़रत उस्मान ( रज़ि०) को क़ैद कर लिया । उधर हुदैबिया में पड़ाव
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      ( 36 )
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      डाले अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) को ख़बर लगी कि हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) क़त्ल कर दिए गये । यह सुनते ही मुस्लमान हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) के क़त्ल का बदला लेने के लिये तैयारी करने लगे ।
      जब क़ुरैश को पता चला कि मुस्लमान अब मरने-मारने को तैयार हैं और अब युद्ध निश्चित है तो बातचीत के लिये सुहैल बिन अम्र को हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) के पास हुदैबिया भेजा । सुहैल से मालूम हुआ कि उस्मान ( रज़ि० ) का क़त्ल नहीं हुआ वह क़ुरैश कि क़ैद में हैं । सुहैल ने हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) को क़ैद से आज़ाद करने व युद्ध टालने के लिये कुछ शातें पेश कीं ।
      [ पहली शर्त थी- इस साल आप सब बिना हज किये लौट जाएँ । अगले साल आएं लेकिन तीन दिन बाद चले जाएँ ।
      [ दूसरी शर्त थी- हम क़ुरैश का कोई आदमी मुस्लमान बन कर यदि आए तो उसे हमें वापस किया जाये । लेकिन यदि कोई मुस्लमान मदीना छोड़कर मक्का में आ जाए, तो हम वापस नहीं करेंगे ।
      [ तीसरी शर्त थी- कोई भी क़बीला अपनी मर्ज़ी से क़ुरैश के साथ या मुसलमानों के साथ शामिल हो सकता है ।
      [ समझौते में चौथी शर्त थी- कि:- इन शर्तों को मानने के बाद क़ुरैश औए मुसलमान न एक दुसरे पर हमला करेंगे और न ही एक दुसरे के सहयोगी क़बीलों पर हमला करेंगे । यह समझौता 10 साल के लिए हुआ , हुबैदिया समझौते के नाम से जाना जाता है ।
      हालाँकि यह शर्तें एक तरफ़ा और अन्यायपूर्ण थीं, फिर भी शांति और सब्र के दूत मुहम्मद ( सल्ल० ) ने इन्हें स्वीकार कर लिया , जिससे शांति स्थापित हो सके ।
      लेकिन समझौता होने के दो ही साल बाद बनू-बक्र नामक
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      ( 37 )
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      क़बीले ने जो मक्का के क़ुरैश का सहयोगी था, मुसलमानों के सहयोगी क़बीले खुज़ाआ पर हमला कर दिया । इस हमले में क़ुरैश ने बनू-बक्र क़बीले का साथ दिया ।
      खुज़ाआ क़बीले के लोग भाग कर हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) के पास पहुंचे और इस हमले कि ख़बर दी । पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल०) ने शांति के लिए इतना झुक कर समझौता किया था । इसके बाद भी क़ुरैश ने धोखा देकर समझौता तोड़ डाला ।
      अब युद्ध एक आवश्यकता थी , धोखा देने वालों को दण्डित करना शांति कि स्थापना के लिए ज़रूरी था । इसी ज़रुरत को देखते हुए अल्लाह कि ओर से सूरा 9 की आयत नाज़िल हुई ।
      इनके नाज़िल होने पर नबी ( सल्ल० ) ने सूरा 9 की आयतें सुनाने के लिए हज़रत ( रज़ि० ) को मुशरिकों के पास भेजा । हज़रत अली ( रज़ि० ) ने जाकर मुशरिकों से यह कहते हुए किमुसलमानों के लिए अल्लाह का फ़रमान आ चुका है उन को सूरा 9 की यह आयत सुना दी-
      ( ऐ मुसलमानों ! अब ) ख़ुदा और उसके रसूल की तरफ़ से मुशरिकों से, जिन तुम ने अह्द ( यानि समझौता ) कर रखा था, बे-ज़ारी ( और जंग की तैयारी ) है । (1 )
      तो ( मुशरिको ! तुम ) ज़मीन में चार महीने चल फिर लो और जान रखो कि तुम को आजिज़ न कर सकोगे और यह भी कि ख़ुदा काफ़िरों को रुसवा करने वाला है । ( 2 )
      और हज्जे-अकबर के दिन ख़ुदा और उसके रसूल कि तरफ़ से आगाह किया जाता है कि ख़ुदा मुशरिकों से बेज़ार है और उसका रसूल भी ( उन से दस्तबरदार है ) । पस अगर तुम तौबा कर लो , तो तुम्हारे हक़ में बेहतर है और न मानो ( और ख़ुदा से मुक़ाबला करो ) तो जान रखो
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      ( 38 )
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      कि तुम ख़ुदा को हरा नहीं सकोगे और ( ऐ पैग़म्बर ! ) काफ़िरों को दु:ख देने वाले अज़ाब कि ख़बर सुना दो । ( 3 )
      -कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत- 1 ,2 ,3 ,
      अली ने मुशरिकों से कह दिया कि ” यह अल्लाह का फ़रमान है अब समझैता टूट चुका है और यह तुम्हारे द्वारा तोड़ा गया है इसलिये अब इज़्ज़त के चार महीने बीतने के बाद तुम से जंग ( यानि युद्ध ) है ।

      समझौता तोड़ कर हमला करने वालों पर जवाबी हमला कर उन्हें कुचल देना मुसलमानों का हक़ बनता था, वह भी मक्के के उन मुशरिकों के विरुद्ध जो मुसलमानों के लिए सदैव से अत्याचारी व आक्रमणकारी थे । इसलिये सर्वोच्च न्यायकर्ता अल्लाह ने पांचवीं आयत का फ़रमान भेजा ।
      इस पांचवी आयत से पहले वाली चौथी आयत ” अल-बत्ता, जिन मुशरिकों के साथ तुम ने अह्द किया हो, और उन्होंने तुम्हारा किसी तरह का क़ुसूर न किया हो और न तुम्हारे मुक़ाबले में किसी कि मदद की हो, तो जिस मुद्दत तक उसके साथ अह्द किया हो , उसे पूरा करो ( कि ) ख़ुदा परहेज़गारों को दोस्त रखता है ।”
      – कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत-4
      से स्पष्ट है कि जंग का यह एलान उन मुशरिकों के विरुद्ध था जिन्होनें युद्ध के लिए उकसाया, मजबूर किया, उन मुशरिकों के विरुद्ध नहीं जिन्होनें ऐसा नहीं किया । युद्ध का यह एलान आत्मरक्षा व धर्मरक्षा के लिए था ।
      अत: अन्यायियों , अत्याचारियों द्वारा ज़बदस्ती थोपे गये युद्ध से अपने बचाव के लिए किये जाने वाला नहीं कहा जा सकता ।
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      ( 39 )
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      अत्याचारियों और अन्यायियों से अपनी व धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करना और युद्ध के लिए सैनिकों को उत्साहित करना धर्म सम्मत है ।
      इस पर्चे को छापने व बाँटने वाले लोग क्या यह नहीं जानते कि अत्याचारियों और अन्यायियों के विनाश के लिए ही योगेश्वर श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था । क्या यह उपदेश लड़ाई-झगड़ा करने वाला या घृणा फैलाने वाला है? यदि नहीं, तो फिर कुरआन के लिए ऐसा क्यों कहा जाता है?
      फिर यह सूरा उस समय मक्का के अत्याचारी मुशरिकों के विरुद्ध उतारी गयी । जो अल्लाह के रसूल के ही भाई-बन्धु क़ुरैश थे । फिर इसे आज के सन्दर्भ में और हिन्दुओं के लिए क्यों लिया जा रहा है ? क्या हिन्दुओं व अन्य ग़ैरमुस्लिमों को उकसाने और उनके मन में मुसलमानों के लिए घृणा भरने तथा इस्लाम को बदनाम करने की घृणित साज़िश नहीं है?

      पैम्फलेट में लिखी दुसरे क्रम की आयत है:

      2 – ” हे ‘ईमान’ लाने वालों ! ‘मुशरिकों’ ( मूर्तिपूजक ) नापाक हैं ।”
      – सूरा 9 , आयत- 28
      लगातार झगड़ा-फ़साद, अन्याय-अत्याचार करने वाले अन्यायी , अत्याचारी अपवित्र नहीं, तो और क्या हैं ?

      पैम्फलेट में लिखी तीसरी क्रम की आयत है:

      3 – ” नि:संदेह ‘ काफ़िर’ तुम्हारे खुले दुश्मन हैं ।”
      – सूरा 4 , आयत-101

      वास्तव में जान-बूझ कर इस आयत का एक अंश ही दिया गया है । पूरी आयात ध्यान से पढ़ें- ” और जब तुम सफ़र को जाओ, तो तुम पर कुछ गुनाह नहीं कि नमाज़ को कम पढो, बशर्ते कि तुमको
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      ( 40 )
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      डर हो कि काफ़िर लोग तुमको ईज़ा ( तकलीफ़ ) देंगे । बेशक काफ़िर तुम्हारे खुले दुश्मन हैं ।”
      -कुरआन, पारा 5 , सूरा 4 , आयत-101
      इस पूरी आयात से स्पष्ट है कि मक्का व आस-पास के काफ़िर जो मुसलमानों को सदैव नुक़सान पहुँचाना चाहते थे ( देखिए हज़रत मुहम्मद सल्ल० की जीवनी ) । ऐसे दुश्मन काफ़िरों से सावधान रहने के लिए ही इस 101 वीं आयात में कहा गया है :- ‘कि नि:संद

      • ( 40 )
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        डर हो कि काफ़िर लोग तुमको ईज़ा ( तकलीफ़ ) देंगे । बेशक काफ़िर तुम्हारे खुले दुश्मन हैं ।”
        -कुरआन, पारा 5 , सूरा 4 , आयत-101
        इस पूरी आयात से स्पष्ट है कि मक्का व आस-पास के काफ़िर जो मुसलमानों को सदैव नुक़सान पहुँचाना चाहते थे ( देखिए हज़रत मुहम्मद सल्ल० की जीवनी ) । ऐसे दुश्मन काफ़िरों से सावधान रहने के लिए ही इस 101 वीं आयात में कहा गया है :- ‘कि नि:संदेह ‘ काफ़िर ‘ तुम्हारे खुले दुश्मन हैं ।’
        इससे अगली 102 वीं आयात से स्पष्ट हो जाता है जिसमें अल्लाह ने और सावधान रहने का फ़रमान दिया है कि :
        और ( ऐ पैग़म्बर ! ) जब तुम उन ( मुजाहिदों के लश्कर ) में हो और उनके नमाज़ पढ़ाने लगो, तो चाहिए कि एक जमाअत तुम्हारे साथ हथियारों से लैस होकर खड़ी रहे, जब वे सज्दा कर चुकें, तो परे हो जाएँ , फिर दूसरी जमाअत , जिसने नमाज़ नहीं पढ़ी ( उनकी जगह आये और होशियार और हथियारों से लैस होकर ) तुम्हारे साथ नमाज़ अदा करे । काफ़िर इस घात में हैं कि तुम ज़रा अपने हथियारों और अपने सामानों से गाफ़िल हो जाओ, तो तुम पर एक बारगी हमला कर दें ।
        -कुरआन, पारा 5 , सूरा 4 , आयत-102

        पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल०) कि जीवनी व ऊपर लिखे तथ्यों से स्पष्ट है कि मुसलमानों के लिए काफ़िरों से अपनी व अपने धर्म कि रक्षा करने के लिए ऐसा करना आवश्यक था । अत: इस आयत में झगड़ा करने, घृणा फैलाने या कपट करने जैसी कोई बात नहीं है, जैसा कि पैम्फलेट में लिखा गया है । जबकि जान-बूझ कर कपटपूर्ण ढंग से आयात का मतलब बदलने के लिये आयत के केवल एक अंश को लिख कर
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        और शेष छिपा कर जनता को वरगालाने , घृणा फैलाने व झगड़ा करने का कार्य तो वे लोग कर रहे हैं, जो इसे छापने व पूरे देश में बाँटने का कार्य कर रहे हैं ।जनता ऐसे लोगों से सावधान रहे ।

        में लिखी चौथे क्रम कि आयत है :

        4 – “हे ‘ईमान’ लेन वालों ! ( मुसलमानों !) उन ‘काफ़िरों’ से लड़ो जो तुम्हार आस-पास हैं, और चाहिये कि वे तुममें सख्ती पायें ।”
        -सूरा 9 , आयत-123
        पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) कि जीवनी व ऊपर लिखे जा चुके तथ्यों से स्पष्ट है कि मुसलमानों को काफ़िरों से अपनी व अपने धर्म कि रक्षा करने के लिये ऐसा करना आवश्यक था । इसलिए इस आत्मरक्षा वाली आयात को झगड़ा करने वाली नहीं कहा जा सकता ।

        पैम्फलेट में लिखी 5वें क्रम कि आयत है :

        5 – ; जिन लोगों ने हमारी ‘ आयतों ‘ का इंकार किया , उन्हें हम जल्द ही अग्नि में झोंक देंगे । जब उनकी खालें पक जायेंगी तो हम उन्हें दूसरी खालों से बदल देंगे ताकि वे यातना का रसास्वादन कर लें । नि:संदेह अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वदर्शी है । ”
        -सूरा 5 , आयत-56
        यह तो धर्म विरुद्ध जाने पर दोज़ख़ ( यानि नरक ) में दिया जाने वाला दंड है । सभी धर्मों में उस धर्म की मान्यताओं के अनुसार चलने पर स्वर्ग का अकल्पनीय सुख और विरुद्ध जाने पर नरक का भयानक दंड है । फिर कुरआन में बताये गए नरक ( यानि दोज़ख़ ) के दंड के लिये एतराज़ क्यों? इस मामले में इन पर्चा छापने व बाँटने वालों को हस्तक्षेप करने का क्या अधिकार है?
        या फिर क्या इन लोगों को नरक में मानवाधिकारों की चिंता
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        ( 42 )
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        सताने लगी है ?

        पैम्फलेट में लिखी 6वें क्रम की आयत है :

        6 – ‘”हे ‘ईमान’ लेन वालों ! ( मुसलमानों ) अपने बापों और भाइयों को मित्र न बनाओ यदि वे ‘ ईमान ‘ की अपेक्षा ‘ कुफ्र’ को पसंद करें । और तुम में जो कोई उनसे मित्रता का नाता जोड़ेगा, तो ऐसे ही लोग ज़ालिम होंगे ।”
        -सूरा 9 ‘ आयत-23
        पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) जब एकेश्वरवाद का सन्देश दे रहे थे, तब कोई व्यक्ति अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) द्वारा तौहीद ( यानि एकेश्वरवाद ) के पैग़ाम पर ईमान ( यानि विश्वास ) लाकर मुसलमान बनता और फिर अपने मां-बाप, बहन-भाई के पास जाता, तो वे एकेश्वरवाद से उसका विश्वास ख़त्म कराके फिर से बहुईश्वरवादी बना देते । इस कारण एकेश्वरवाद की रक्षा के लिये अल्लाह ने यह आयात उतारी जिससे एकेश्वरवाद के सत्य को दबाया न जा सके । अत: सत्य की रक्षा के लिये आई इस आयत को झगड़ा करने वाली या घृणा फैलाने वाली आयत कैसे कहा जा सकता है ? जो ऐसा कहते हैं वे अज्ञानी हैं ।

        पैम्फलेट में लिखी 7वें क्रम की आयत है :

        7 – ” अल्लाह ‘ काफ़िरों’ लोगों को मार्ग नहीं दिखता ।”
        -सूरा 9 , आयत-37
        आयात का मतलब बदलने के लिये इस आयत को भी जान-बूझ कर पूरा नहीं दिया गया, इसलिए इसका सही मकसद समझ में नहीं आता । इसे समझने के लिये हम आयात को पूरा दे रहे हैं ।:
        अम्न के किसी महीने को हटाकर आगे-पीछे कर देना कुफ्र में बढ़ती करता है । इस से काफ़िर गुमराही में पड़े रहते हैं । एक साल तो
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        ( 43 )
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        उसको हलाल समझ लेते हैं और दूसरे साल हराम, ताकि अदब के महीनों की, जो खुदा ने मुक़र्रर किये हैं, गिनती पूरी कर लें और जो खुदा ने मना किया है , उसको जायज़ कर लें । उनके बुरे अमल उन को भले दिखाई देते हैं और अल्लाह काफ़िर लोगों को मार्ग नहीं दिखता ।
        -कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत- 37
        अदब या अम्न ( यानि शांति ) के चार महीने होते हैं, वे हैं – ज़ीकादा, ज़िल्हिज्जा, मुहर्रम,और रजब । इन चार महीनों में लड़ाई-झगड़ा नहीं किया जाता । काफ़िर कुरैश इन महीनों में से किसी महीने को अपनी ज़रुरत के हिसाब से जान-बूझ कर आगे-पीछे कर लड़ाई-झगड़ा करने के लिये मान्यता का उल्लंघन किया करते थे । अनजाने में भटके हुए को मार्ग दिखाया जा सकता है , लेकिन जानबूझ कर भटके हुए को मार्ग इश्वर भी नहीं दिखाता । इसी सन्दर्भ में यह आयात उतरी । इस आयत का लड़ाई-झगड़ा करने या घृणा फैलाने से कोई सम्बन्ध नहीं है ।

        पैम्फलेट में लिखी 8वें क्रम की आयत है :

        8 – ” हे ‘ईमान’ लाने वालों ! ———— और ‘काफ़िरों’ को अपना मित्र न बनाओ । अल्लाह से डरते रहो यदि तुम ईमान वाले हो । ”
        यह आयात भी अधूरी दी गयी है । आयात के बीच का अंश जान बूझ कर छिपाने की शरारत की गयी है । पूरी आयात है –
        ऐ ईमान लाने वालों ! जिन लोगों को तुमसे पहले किताबें दी गयी थीं, उन को और काफ़िरों को जिन्होंने तुम्हारे धर्म को हंसी और खेल बना रखा है, मित्र न बनाओ और अल्लाह से डरते रहो यदि तुम ईमान वाले हो ।
        -कुरआन, पारा 6 , सूरा 5 , आयत-57
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        ( 44 )
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        आयत को पढ़ने से साफ़ है कि काफ़िर क़ुरैश तथा उन के सहयोगी यहूदी और ईसाई जो मुसलमानों के धर्म की हंसी उड़ाया करते थे , उन को दोस्त न बनाने के लिए यह आयात आई । ये लड़ाई-झगड़े के लिए उकसाने वाली या घृणा फैलाने वाली कहाँ से है ? इसके विपरीत पाठक स्वयं देखें की पैम्फलेट में ‘ जिन्होंने तुम्हारे धर्म को हंसी और खेल बना रखा है’ को जानबूझ कर छिपा कर उसका मतलब पूरी तरह बदल देने की साजिश करने वाले क्या चाहते हैं?

        पैम्फलेट में लिखी 9वें क्रम कि आयत है:

        9 -” फिटकारे हुए ( ग़ैर मुस्लिम ) जहाँ कहीं पाये जायेंगे पकडे जायेंगे और बुरी तरह क़त्ल किये जायेंगे ।”
        -सूरा 33 ,आयत-61
        इस आयात का सही मतलब तभी पता चलता है जब इसके पहली वाली 60वीं आयत को जोड़ा जाये ।
        अगर मुनाफ़िक ( यानि कपटचारी ) और वे बुरे लोग जिनके दिलों में मर्ज़ है और जो mado ( के शहर ) में बुरी-बुरी ख़बरें उड़ाया करते हैं, ( अपने किरदार से ) रुकेंगे नहीं, तो हम तुम को उनके पीछे लगा देंगे , फिर वहां तुम्हारे पड़ोस में न रह सकेंगे, मगर थोड़े दिन । ( 60 )
        ( वह भी फिटकारे हुए ) जहाँ पाये गए, पकडे गए और जान से मार डाले गए । ( 61 )
        – कुरआन , पारा 22 , सूरा 33 , आयत- 60 -61
        उस समय मदीना शहर जहाँ अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) का निवास था, कुरैश के हमले का सदैव अंदेशा रहता था । युद्ध जैसे माहौल में कुछ मुनाफिक ( यानि कपटचारी ) और यहूदी तथा ईसाई जो मुसलामनों के पास भी आते और काफ़िर क़ुरैश से भी मिलते रहते और
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        ( 45 )
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        अफहवाहें उड़ाया करते थे। युद्ध जैसे माहौल में जहाँ हमले का सदैव अंदेशा हो, अफवाह उड़ाने वाले जासूस कितने ख़तरनाक हो सकते हैं, अंदाज़ा किया जा सकता है । आज क़ानून में भी ऐसे लोगों की सज़ा मौत हो सकती है । वास्तव में शांति की स्थापना के लिए उनको यही दण्ड उचित है । यह न्यायसंगत है । अत: इस आयत को झगड़ा करने वाली कहना दुर्भाग्यपूर्ण है ।

        पैम्फलेट में लिखी 10वें क्रम की आयत है :

        10 – ” ( कहा जायगा ) : निश्चय ही तुम और वह जिसे तुम अल्लाह के सिवा पूजते थे ‘ जहन्नम ‘ का ईधन हो । तुम अवश्य उसके घाट उतरोगे ।
        -सूरा 21 , आयात-98
        इस्लाम एकेश्वरवादी मज़हब है, जिसके अनुसार एक इश्वर ‘ अल्लाह ‘ के अलावा किसी दूसरे को पूजना सबसे बड़ा पाप है । इस आयात में इसी पाप के लिए अल्लाह मरने के बाद जहन्नम ( यानि नरक ) का दण्ड देगा ।
        पैम्फलेट में लिखी पांचवें क्रम की आयत में हम इस विषय में लिख चुके हैं अत: इस आयत को भी झगड़ा करने वाली आयत कहना न्यायसंगत नहीं है ।

        पैम्फलेट में लिखी 11वें क्रम की आयत है :

        11- ‘ और उससे बढ़कर ज़ालिम कौन होगा किसे उसके ‘ रब ‘ की ‘ आयातों ‘ के द्वारा चेताया जाये, और फिर वह उनसे मुंह फेर ले । निश्चय ही हमें ऐसे अपराधियों से बदला लेना है ।”
        -सूरा 32, आयत- 22
        इस आयत में भी पहले लिखी आयत की ही तरह अल्लाह
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        ( 46 )
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        उन लोगों को नरक का दण्ड देगा जो अल्लाह की आयतों को नहीं मानते । यह परलोक की बातें है अत: इस आयत
        का सम्बन्ध इस लोक में लड़ाई-झगड़ा कराने या घृणा फैलाने से जोड़ना शरारत पूर्ण हरकत है।

        पैम्फलेट में लिखी 12वें क्रम की आयत है :

        12 – ” अल्लाह ने तुमसे बहुत सी ‘ गनिमतों ‘ ( लूट ) का वादा किया है जो तुम्हारे हाथ आएँगी,”
        -सूरा 48 ,आयत-20
        पहले में यह बता दूं कि ग़नीमत का अर्थ लूट नहीं बल्कि शत्रु की क़ब्ज़ा की गई संपत्ति होता है । उस समय मुसलमानों के अस्तित्व को मिटने के लिए हमले होते या हमले की तैयारी हो रही होती । काफ़िर और उनके सहयोगी यहूदी व ईसाई धन से शक्तिशाली थे । ऐसे शक्तिशाली दुश्मनों से बचाव के लिए उनके विरुद्ध मुसलमनों का हौसला बढ़ाये रखने के लिए अल्लाह की ओर से वायदा हुआ ।
        यह युद्ध के नियमों के अनुसार जायज़ है । आज शत्रु की क़ब्ज़ा की गई संपत्ति विजेता की होती है ।
        अत: इसे झगड़ा कराने वाली आयत कहना दुर्भाग्यपूर्ण है ।

        पैम्फलेट में लिखी 13वें क्रम की आयत है :

        13 – ” तो जो कुछ ‘ ग़नीमत ‘ ( लूट ) का माल तुमने हासिल किया है उसे ‘ हलाल ‘ व पाक समझ कर खाओ ,”
        – सूरा 8 , आयत -69
        बारहवें क्रम की आयत में दिए हुए तर्क के अनुसार इस आयात का भी सम्बन्ध आत्मरक्षा के लिए किये जाने वाले युद्ध में मिली चल संपत्ति से है, युद्ध में हौसला बनाये रखने से है । इसे भी झगड़ा बढ़ाने
        ————————————————————————————————
        ( 47 )
        ————————————————————————————————
        वाली आयत कहना दुर्भाग्यपूर्ण है ।

        पैम्फलेट में लिखी 14वें क्रम की आयत है :

        14 – ” हे नबी ! ‘ काफ़िरों ‘और ‘ मुनाफ़िकों ‘ के साथ जिहाद करो , और उन पर सख्ती करो और उनका ठिकाना ‘ जहन्नम ‘ है, और बुरी जगह है जहाँ पहुंचे ।”
        जैसे कि हम ऊपर बता चुके हैं कि काफ़िर कुरैश अन्यायी व अत्याचारी थे और मुनाफ़िक़ ( यानि कपट करने वाले कपटचारी ) मुसलमानों के हमदर्द बन कर आते, उनकी जासूसी करते और काफ़िर कुरैश को सारी सूचना पहुंचाते तथा काफ़िरों के साथ मिल कर अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) कि खिल्ली उड़ाते और मुसलमानों के खिलाफ़ साजिश रचते । ऐसे अधर्मियों के विरुद्ध लड़ना अधर्म को समाप्त कर धर्म की स्थापना करना है । ऐसे ही अत्याचारी कौरवों के लिए योगेश्वर श्री कृष्णन ने कहा था:
        अथ चेत् त्वामिमं धमर्य संग्रामं न करिष्यसि ।
        तत: स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्य्सी ।।
        -गीता अध्याय 2 श्लोक-33
        हे अर्जुन ! किन्तु यदि तू इस धर्म युक्त युद्ध को न करेगा तो अपने धर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ।
        तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धं ।
        – अध्याय 11 , श्लोक-33
        इसलिए तू उठ ! शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर, यश को प्राप्त कर धन-धान्य से संपन्न राज्य का भोग कर ।
        ———————————————————————————————–
        ( 48 )
        ———————————————————————————————–
        पोस्टर या छापने व बाँटने वाले श्रीमद् भगवद् गीता के इस आदेश को क्या झगड़ा- लड़ाई कराने वाला कहेंगे ? यदि नहीं, तो इन्हीं परिस्थतियों में आत्मरक्षा के लिए अत्याचारियों के विरुद्ध जिहाद ( यानि आत्मरक्षा व धर्मरक्षा के लिए युद्ध ) करने का फ़रमान देने वाली आयत को झगड़ा कराने वाली कैसे कह सकते हैं? क्या यह अन्यायपूर्ण निति नहीं है ? आखिर किस उद्देश्य से यह सब किया जा रहा है ?

        पैम्फलेट में लिखी 15वें क्रम की आयत है :

        15 – ” तो अवश्य हम ‘ कुफ्र ‘ करने वालों को यातना का मज़ा चखायेंगे, और अवश्य ही हम उन्हें सबसे बुरा बदला देंगे उस कर्म का जो वो करते थे ।”
        -सूरा 41 , आयत-27
        उस आयत को लिखा जिसमें अल्लाह काफ़िरों को दण्डित करेगा, लेकिन यह दण्ड क्यों मिलेगा ? इसकी वजह इस आयत के ठक पहले वाली आयत ( जिस की यह पूरक आयत है ) में है, उसे ये छिपा गए । अब इन आयतों को हम एक साथ दे रहे हैं । पाठक स्वयं देखें कि इस्लाम को बदनाम करने कि साजिश कैसे रची गई है ? :
        और काफ़िर कहने लगे कि इस कुरआन को सुना ही न करो और ( जब पढने लगें तो ) शोर मचा दिया करो , ताकि ग़ालिब रहो । ( 26 )
        तो अवश्य हम ‘ कुफ्र ‘ करने वालों को यातना का मज़ा चखायेंगे, और अवश्य ही हम उन्हें सबसे बुरा बदला देंगे उस कर्म का जो वे करते थे । ( 27 )
        – कुरआन , पारा 24 , सूरा 41, आयत- 26 -27
        अब यदि कोई अपनी धार्मिक पुस्तक का पाठ करने लगे या नमाज़ पढने लगे, तो उस समय बाधा पहुँचाने के लिए शोर मचा देना
        ———————————————————————————————–
        ( 49 )
        ———————————————————————————————–
        क्या दुष्टतापूर्ण कर्म नहीं है? इस बुरे कर्म कि सज़ा देने के लिये ईश्वर कहता है, तो क्या वह झगड़ा कराता है?
        मेरी समझ में नहीं आ रहा कि पाप कर्मों का फल देने वाली इस आयत में झगड़ा कराना कैसे दिखाई दिया ?

        पैम्फलेट में लिखी 16वें क्रम की आयत है :

        16 – ” यह बदला है अल्लाह के शत्रुओं का ( ‘जहन्नम’ की ) आग । इसी में उनका सदा घर है , इसके बदले में कि हमारी ‘ आयातों ‘ का इंकार करते थे ।”
        -सूरा 41 , आयत- 28
        यह आयत ऊपर पन्द्रहवें क्रम कि आयात की पूरक है जिसमें काफ़िरों को मरने के बाद नरक का दण्ड है, जो परलोक की बात है इसका इस लोक में लड़ाई-झगड़ा कराने या घृणा फैलाने से कोई सम्बन्ध नहीं है ।

        पैम्फलेट में लिखी 17वें क्रम की आयत है :

        17- ” नि:संदेह अल्लाह ने ‘ ईमान’ वालों ( मुसलमानों ) से उनके प्राणों और मालों को इसके बदले में ख़रीद लिया है कि उनके लिये ‘ जन्नत’ है, वे अल्लाह के मार्ग में लड़ते हैं तो मारते भी हैं और मारे भी जाते हैं ।”
        -सूरा 9 , आयत-11
        गीता में है ;
        हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्स्ये महीम् ।
        तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय: ।।
        -गीता अध्याय 2 श्लोक-37
        ————————————————————————————————
        ( 50 )
        ————————————————————————————————
        या ( तो तू युद्ध में ) मारा जा कर स्वर्ग को प्राप्त होगा ( अथवा ) जीत कर , पृथ्वी का राज्य भोगेगा । इसलिए हे अर्जुन ! ( तू ) युद्ध के लिए निश्चय कर क्र खड़ा हो जा ।
        गीता के यह आदेश लड़ाई-झगड़ा बढ़ने वाला भी नहीं है , यह अधर्म को बढ़ने वाला भी नहीं है , क्योंकि यह तो अन्यायियों व अत्याचारियों का विनाश कर धर्म की स्थापना के लिए किये जाने वाले युद्ध के लिए है ।
        इन्हीं परिस्थितियों में अन्यायी , अत्याचारी, मुशरिक काफ़िरों को समाप्त करने के लिए ठीक वैसा ही अल्लाह ( यानि परमेश्वर ) का फरमान भी सत्य धर्म की स्थापना के लिये है , आत्मरक्षा के लिए है। फिर इसे ही झगड़ा करने वाला क्यों कहा गया ? ऐसा कहने वाले क्या अन्यायपूर्ण निति नहीं रखते ? जनता को ऐसे लोगों से सावधान हो जाना चाहिए ।

        पैम्फलेट में लिखी 18वें क्रम की आयत है :

        18 – ” अल्लाह ने इन मुनाफ़िक़ ( अर्ध मुस्लिम ) पुरुषों और मुनाफ़िक स्त्रियों और ‘ काफिरों ‘ से जहन्नुम ‘ की आग का वादा किया है जिसमें वह सदा रहेंगे । यही उन्हें बस है । अल्लाह ने उन्हें लानत की और उनके लिये स्थायी यातना है।”
        -कुरआन, पारा 10 ,सूरा 9 ,आयात-68
        सूरा 9 की इस 68वीं आयत के पहले वाली 67वीं आयत को पढने के बाद इस आयत को पढ़ें, पहले वाली 67वीं आयत है ।
        मुनाफ़िक मर्द और मुनाफ़िक़ औरतें एक दुसरे के हमजिंस ( यानि एक ही तरह के ) हैं, कि बुरे काम करने को कहते और नेक कामों से मना करते और ( खर्च करने में ) हाथ बंद किये रहते हैं, उन्होंने ख़ुदा को भुला दिया तो खुदा ने भी उनको भुला दिया । बेशक मुनाफ़िक
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        ( 51 )
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        न -फ़रमान है ।
        -कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत-67
        स्पष्ट है मुनाफ़िक़ ( कपटचारी ) मर्द और औरतें लोगों को अच्छे कामों से रोकते और बुरे काम करने को कहते । अच्छे काम के लिए खोटा सिक्का भी न देते । खुदा ( यानि परमीश्वर ) को कभी याद न करते , उसकी अवज्ञा करते और खुराफ़ात में लगे रहते । ऐसे पापियों को मरने के बाद क़ियामत के दिन जहन्नम ( यानि नरक ) की सज़ा की चेतावनी देने वाली अल्लाह की यह आयात बुरे पर अच्छाई की जीत के लिए उतरी न की लड़ाई-झगड़ा करने के लिए ।

        पैम्फलेट में लिखी 19वें क्रम की आयत है :

        19 – ” हे नबी ! ‘ ईमान ‘ वालों ( मुसलमानों ) को लड़ाई पर उभारो । यदि तुम 20 जमे रहने वाले होंगे तो वे 200 पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे , और यदि तुम में 100 हों तो 1000 ‘ काफ़िरों ‘ पर भारी रहेंगे , क्योंकि वे ऐसे लोग हैं जो समझ बूझ नहीं रखते ।
        -सूरा 8 , आयत-65

        मक्का के अत्याचारी क़ुरैश व अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के बीच होने वाले युद्ध में क़ुरैश की संख्या अधिक होती और सत्य के रक्षक मुसलमानों की कम । ऐसी हालात में मुसलमानों का हौसला बढ़ाने व उन्हें युद्ध में जमाये रखने के लिए अल्लाह की ओर से यह आयत उतरी । यह युद्ध अत्याचारी व आक्रमणकारी काफ़िरों से था न कि सभी काफ़िरों या ग़ैर-मुसलमानों से । अत: यह आयात अन्य धर्मावलम्बियों से झगड़ा करने का आदेश नहीं देती । इसके प्रमाण में एक आयत दे रहे हैं । :
        जिन लोगों ( यानि काफ़िरों ) ने तुमसे दीन के बारे में जंग नहीं
        ————————————————————————————————–
        ( 52 )
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        की और तुम को तुम्हारे घरों से निकाला, उनके साथ भलाई और इंसाफ़ का सुलूक करने से ख़ुदा तुमको मना नहीं करता । ख़ुदा इंसाफ करने वालों को दोस्त रखता है ।
        -कुरआन, पारा 28 , सूरा 60 , आयत-8

        पैम्फलेट में लिखी 20वें क्रम की आयत है :

        20 – ” हे ईमान वालों ( मुसलमानों ) तुम ‘यहूदियों’ और ‘ ईसाईयों’ को मित्रं न बनाओ । ये आपस में एक दुसरे के मित्र हैं । और जो कोई तुम में से उनको मित्र बनायेगा , वह उन्हीं में से होगा । नि:संदेह अल्लाह ज़ुल्म करने वालों को मार्ग नहीं दिखता ।”
        -सूरा 5 , आयत-51
        यहूदी और ईसाई ऊपरी तौर पर मुसलमानों से दोस्ती की बात करते थे लेकिन पीठ पीछे क़ुरैश को मदद करते और कहते मुहम्मद से लड़ो हम तुम्हारे साथ हैं । उनकी इस चाल को नाकाम करने के लिए ही यह आयत उतरी जिसका उद्देश्य मुसलमानों को सावधान करना था, न कि झगड़ा करना । इसके प्रमाण में कुरआन की एक आयत दे रहे हैं-
        ख़ुदा उन्हीं लोगों के साथ तुम को दोस्ती करने से मना करता है , जिन्होनें तुम से दीन के बारे में लड़ाई की और तुम को तुम्हारे घरों से निकाला और तुम्हारे निकालने में औरों कि मदद की, तो जो लोग ऐसों से दोस्ती करेंगे, वही ज़ालिम हैं । ”
        – कुरआन, पारा 28 , सूरा 60 , आयत-9

        पैम्फलेट में लिखी 21 वें क्रम की आयत है :

        21 – ” किताब वाले ‘ जो न अल्लाह पर ‘ईमान’ लाते हैं न अंतिम दिन पर, न उसे ‘हराम’ करते हैं जिसे अल्लाह और उसके ‘ रसूल ‘ ने
        ——————————————————————————–
        ( 53 )
        ———————————————————————————
        हराम ठहराया है, और न सच्चे ‘दीन’ को अपना ‘दीन’ बनाते हैं, उनसे लड़ो यहाँ तक की वे अप्रतिष्ठित ( अपमानित ) होकर अपने हाथों से ‘ जीज़या’ देने लगें । ”
        इस्लाम के अनुसा तौरात, ज़ूबूर ( Old Testament ) व इंजील ( New Testament ) और कुरआन मजीद अल्लाह की भेजी हुई किताबें हैं, इसलिए इन किताबों पर अलग-अलग ईमान वाले क्रमश: यहूदी, ईसाई और मुस्लमान ‘ किताब वाले ‘ या ‘अहले किताब’ कहलाए । यहाँ इस आयत में किताब वाले से मतलब यहूदियों और ईसाईयों से है ।
        ईश्वरीय पुस्तकें रहस्यमयी होती हैं इसलिए इस आयत को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है की इनमें यहूदियों और ईसाईयों को ज़बरदस्ती मुस्लमान बनाने के लिए लड़ाई है । लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है क्योंकि इस्लाम में किसी भी प्रकार की ज़बरदस्ती की इजाज़त नहीं है ।
        कुरआन में अल्लाह मना करता है की किसी को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाया जाये । देखिये :
        ऐ पैग़म्बर ! अगर ये लोग तुम से झगड़ने लगें, तो कहना की मैं और मेरी पैरवी करने वाले तो ख़ुदा के फ़रमाँबरदार हो चुके और ‘ अहलेकिताब ‘ और अनपढ़ लोगों से कहो की क्या तुम भी ( खुदा के फ़रमाँबरदार बनते हो और ) इस्लाम लाते हो ? अगर यह लोग इस्लाम ले आयें तो बेशक हिदायत पा लें और अगर ( तुम्हारा कहा ) न मानें, तो तुम्हारा काम सिर्फ खुदा का पैगाम पहुंचा देना है ।
        -कुरआन, पारा 3, सूरा 3, आयत-20
        और अगर तुम्हारा परवरदिगार ( यानि अल्लाह ) चाहता, तो जितने लोग ज़मीन पर हैं, सब के सब ईमान ले आते, तो क्या तुम लोगों पर ज़बरदस्ती करना चाहते हो कि वे मोमिन ( यानि मुस्लमान ) हो जाएँ ।
        ——————————————————————-
        (54)
        ———————————————————————
        -कुरआन, पारा 11, सूरा 10 , आयत-९९
        इस्लाम के प्रचार-प्रसार में किसी तरह कि ज़ोर-ज़बरदस्ती न करने की इन आयतों के बावजूद इस आयत में ‘ किताबवालों’ से लड़ने का फरमान आने के कारण वही है , जो पैम्फलेट में लिखी 8वें, 9वें व 20वें क्रम कि आयतों के लिए मैंने दिए हैं । आयत में जीज़या नाम का टैक्स ग़ैर-मुसलमानों से उन की जान-माल की रक्षा के बदले लिया जाता था । इस के अलावा उन्हें कोई टैक्स नहीं देना पड़ता था । जबकि मुसलमानों के लिए भी ज़कात देना ज़रूरी था । आज तो सर्कार ने बात-बात पर टैक्स लगा रखा है । अपना ही पैसा बैंक से निकलने तक में सर्कार ने टैक्स लगा रखा है ।
        पैम्फलेट में लिखी २२ वें क्रम की आयत :
        22 – ” ———- फिर हमनें उनके बीच ‘ कियामत ‘ के दिन तक के लिए वैमनस्य और द्वेष की आग भड़का दी, और अल्लाह जल्द उन्हें बता देगा जो कुछ वे करते हैं ।”
        -सूरा 5 , आयत-14
        कपटपूर्ण उद्देश्य के लिये पैम्फलेट में यह आयत भी जान-बूझ कर अधूरी दी गयी है । पूरी आयत है :
        और जो लोग ( अपने को ) कहते हैं की हम नसारा ( यानि इसाई ) हैं, हम ने उन से भी अहद ( यानि वचन ) लिया था । मगर उन्होंने भी उस नसीहत का, जो उन को की गयी थी, एक हिस्सा भुला दिया, फिर हमनें उनके बीच ‘ कियामत’ के दिन तक के लिये वैमनस्य और द्वेष की आग भड़का दी, और अल्लाह जल्द उन्हें बता देगा जो कुछ वे करते रहे हैं ।
        -कुरआन , पारा 6 , सूरा 5 , आयत-14
        पूरी आयत पढने से स्पष्ट है कि वडा खिलाफ़ी, चालाकी
        ———————————————————————————————–
        (55 )
        ———————————————————————————————–
        और फरेब के विरुद्ध यह आयत उतरी, न कि झगडा करने के लिये ।
        पैम्फलेट में लिखी 23 वें क्रम की आयत है :
        23 – ” वे चाहते हैं कि जिस तरह से वे ‘ काफ़िर ‘ हुए हैं उसी तरह से तुम भी ‘ काफ़िर’ हो जाओ तो उनमें से किसी को अपना साथी न बनाना जब तक वे अल्लाह कि राह में हिजरत न करें, और यदि वे फिर जावें तो उन्हें जहाँ कहीं पाओ पकड़ो और उनका ( क़त्ल ) वध करो । और उनमें से किसी को साथी और सहायक मत बनाना ।”
        -सूरा 4 , आयत-89
        इस आयत को इससे पहले वाली 88वीं आयत के साथ मिला कर पढ़ें, जो निम्न है :-
        तो क्या वजह है की तुम मुनाफिकों के बारे में दो गिरोह ( यानि दो भाग ) हो रहे हो ? हां यह है की खुदा ने उनके करतूतों की वजह से औंधा कर दिया है , क्या तुम चाहते हो की जिस शख्स को खुदा ने गुमराह कर दिया उसको रस्ते पर ले आओ ?
        -सूरा 4 , आयत- 88
        स्पष्ट है की इससे आगे वाली 89वीं आयत, जो पर्चे में दी है, उन मुनाफ़िकों ( यानि कपटाचारियों ) के सन्दर्भ में हैं, जो मुसलमानों के पास आकार कहते है की हम ‘ईमान’ ले आये और मुस्लमान बन गये और मक्का में काफ़िरों के पास जा कर कहते कि हम अपने बाप-दादा के धर्म में ही हैं, बुतों को पूजने वाले ।
        हम तो मुसलमानों के बीच भेद लेने जाते हैं, जिसे हम आप को बताते हैं । यह मुसलमानों के बीच बैठ कर उन्हें अपने बाप-दादा के धर्म ‘ बुत पूजा’ पर वापस लौटने को भी कहते ।
        ————————————————————————————————
        ( 56 )
        ————————————————————————————————-
        इसलिए यह आयत उतरी कि इन कपटाचारियों को दोस्त न बनाना क्योंकि यह दोस्त हैं ही नहीं, तथा इनकी सच्चाई की परीक्षा लेने के लिये इनसे कहो कि तुम भी मेरी तरह वतन छोड़ कर हिजरत करो अगर सच्चे हो तो । यदि न करें तो समझो कि यह नुक़सान पहुँचाने वाले कपटाचारी जासूस है, जो काफ़िरों से अधिक खतनाक हैं । उस समय युद्ध का माहौल था, युद्ध के दिनों में सुरक्षा कि दृष्टी से ऐसे जासूस बहुत ही खतनाक हो सकते थे, जिनकी एक ही सजा हो सकती थी: मौत । उनकी संदिग्ध गतिविधियों के कारण ही मना किया गया है कि उन्हें न तो अपना साथी बनाओ और न ही मददगार , क्योंकि ऐसा करने पर धोखा ही धोखा है ।
        यह आयत मुसलमानों कि आत्मरक्षा के लिये उतरी न कि झगडा कराने या घृणा फैलाने के लिये ।
        पैम्फलेट में लिखी 24वें क्रम की आयत है :
        24 – “उन ( काफ़िरों ) से लड़ो ! अल्लाह तुम्हारे हाथों उन्हें यातना देगा, और उन्हें रुसवा करेगा और उनके मुक़ाबले में तुम्हारी सहायता करेगा, और ‘ ईमान ‘ वालों के दिल ठन्डे करेगा ।”
        पैम्फलेट में लिखी पहले क्रम की आयत में हम विस्तार से बता चुके हैं कि कैसे शांति का समझौता तोड़ कर हमला करने वालों के विरुद्ध सूरा 9 की यह आयतें आसमान से उतरीं । पैम्फलेट में 24वें क्रम में लिखी आयत इसी सूरा की है जिसमें समझौता तोड़ हमला करने वाले अत्याचारियों से लड़ने और उन्हें दण्डित करने का अल्लाह का आदेश है जिससे झगड़ा-फ़साद करने वालों के हौसले पस्त हों और शांति का स्थापना हो । इसे और स्पष्ट करने के लिये कुरआन मजीद की सूरा नौ की इस 14वीं आयत के पहले वाली दो आयत दे रहे हैं ।:
        ————————————————————————————————-
        ( 57 )
        ————————————————————————————————–
        और अगर अहद ( यानि समझौता ) करने के बाद अपनी अपनी कसमों को तोड़ डालें और तुम्हारे दीं में ताने करने लगें, तो उन कुफ्र के पेशवाओं से जंग करो , ( ये बे-ईमान लोग है और ) इनकी कसमों का कुछ ऐतबार नहीं है । अजब नहीं कि ( अपनी हरकतों से ) बाज़ आ जाएँ ।
        -कुरआन , पारा 10 , सूरा 9 , आयत-12
        भला तुम ऐसे लोगों से क्यों न लड़ो, जिन्होनें अपनी क़स्मों को तोड़ डाला और ( ख़ुदा के ) पैग़म्बर के निकालने का पक्का इरादा कर लिया और उन्होंने तुमसे ( किया गया अहद तोड़ना ) शुरू किया । तुम ऐसे लोगों से डरते हो, हालाँकि डरने के लायक ख़ुदा है, बशर्ते कि ईमान रखते हो ।
        – कुरआन, परा 10 , सूरा 9 , आयत-13
        अत: शांति कि स्थापना के उद्देश्य से उतरी सूरा 9 की इन आयतों को शांति भंग करने वाली या झगड़ा- फ़साद करने वाली कहने वाले या तो धूर्त है अथवा अज्ञानी ।
        निष्कर्ष :-
        40 वर्ष की उम्र में हज़रात मुहम्मद ( सल्ल० ) को अल्लाह से सत्य का सन्देश मिलने के बाद से अंतिम समय ( यानि २३ वर्षों ) तक अत्याचारी काफ़िरों ने आप ( सल्ल० ) को चैन से न बैठने नहीं दिया । इस बीच लगातार युद्ध और साजिशों का माहौल रहा ।
        ऐसी परिस्थितियों में आत्मरक्षा के लिये दुश्मनों से सावधान रहना, माहौल गन्दा करने वाले मुनाफ़िकों ( यानि कपटाचारियों ) और अत्याचारियों का दमन करना या उन पर सख्ती करना या उन्हें द्नादित करना एक आवश्यकता नहीं, कर्तव्य था ।
        ऐसे दुष्टों, अत्याचारियों और कपटाचारियों के लिये ऋग्वेद में परमेश्वर का आदेश है-
        ————————————————————————————————–
        ( 58 )
        ————————————————————————————————–
        मायाभिरिन्द्र मायिनं त्वं शुष्णमवातिर : ।
        विदुष्टं तस्य मेधिरास्तेषां ॠवांस्युत्तिर ॥
        -ऋग्वेद , मण्डल 1 , सूक्त 11 , मन्त्र 7
        भावार्थ – बुद्धिमान मनुष्यों को इश्वर आदेश देता है कि –
        साम , दाम, दण्ड , और भेद की युक्त से दुष्ट और शत्रु जनों का नाश करके विद्या और चक्रवर्ती राज्य कि यथावत् उन्नति करनी चाहिये तथा जैसे इस संसार में कपटी , छली और दुष्ट पुरुष वृद्धि को प्राप्त न हों , वैसा उपाय निरंतर करना चाहिये ।
        -हिंदी भाष्य महर्षि दयानंद

        मायाभिरिन्द्र मायिनं त्वं शुष्णमवातिर : ।
        विदुष्टं तस्य मेधिरास्तेषां ॠवांस्युत्तिर ॥
        -ऋग्वेद , मण्डल 1 , सूक्त 11 , मन्त्र 7
        भावार्थ – बुद्धिमान मनुष्यों को इश्वर आदेश देता है कि –
        साम , दाम, दण्ड , और भेद की युक्त से दुष्ट और शत्रु जनों का नाश करके विद्या और चक्रवर्ती राज्य कि यथावत् उन्नति करनी चाहिये तथा जैसे इस संसार में कपटी , छली और दुष्ट पुरुष वृद्धि को प्राप्त न हों , वैसा उपाय निरंतर करना चाहिये ।
        -हिंदी भाष्य महर्षि दयानंद
        अत: पैम्फलेट में दी गयी आयतें अल्लाह के वे फ़रमान हैं , जिनसे मुस्लमान अपनी व एकेश्वरवादी सत्य धर्म इस्लाम की रक्षा कर सके । वास्तव में ये आयतें व्यवाहरिक सत्य हैं । लेकिन अपने राजनितिक फायदे के लिए कुरआन मजीद की इन आयतों की ग़लत व्याख्या कर उन्हें जनता के बीच बंटवा कर कुछ स्वार्थी लोग , मुसलमानों व विभिन्न धर्मावलम्बियों के बीच क्या लड़ाई-झगडा करने व घृणा फैलाने का बीज बो नहीं रहे ? क्या यह सुनियोजित तरीके से जनता को बहकाना व वरगालाना नहीं है ?
        1986 में छपे इस पर्चे को अदालत के फ़ैसले की आड़ लेकर आख़िर किस मक़सद से छपवाया और बंटवाया जा रहा है ?
        जनता ऐसे लोगों से सावधान रहे, जो अपने राजनितिक फायदे के लिए इस तरह के कार्यों से देश में अशांति फैलाना चाहते हैं ।
        ऐसे लोग क्या नहीं जानते की दूसरों से सम्मान पाने के लिये पहले ख़ुद दूसरों का सम्मान करना चाहिए ।
        ————————————————————————————————-
        ( 59 )
        ————————————————————————————————-
        ऐसे लोगों को चाहिए की वे पहले शुद्ध मन से कुरआन को अच्छी तरह पढ़ लें और इस्लाम को जान लें फिर उसके बाद ही इस्लाम पर टिप्पणी करें, अन्यथा नहीं ।
        हो सकता है इस पर्चे को छापने व बाँटने वाले भी मेरी तरह ही अनजाने में भ्रम में हों , यदि ऐसा है, तो अब सच्चाई जानने के बाद कई भाषाओँ में छपने वाले इस पर्चे को छपवाना-बंटवाना बंद करें और अपने किए के लिए प्रायश्चित कर सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगे ।

        • अहमद साहब,
          आपने मेरा ज्ञानवर्धन किया इसकी लिए आपका धन्यवाद। लेकिन आपने विषयांतर कर दिया है। चर्चा कुछ और थी। आपने स्वंय स्वीकार किया है कि इस्लाम कि लड़ाई बहू देवतावादियों से है-तो क्या आप बताएँगे वो बहुदेवतावादी कौन है?
          पाकिस्तान में इन बहू देवतावादियों की करोड़ों कि संख्या आज लाखो में सिमटकर रह गई है,तो क्या आप नहीं मानते कि वहाँ उन बहू देवतावादियों के साथ आज भी घोर अत्याचार हो रहें है।
          भारत में आजादी के समय जीतने मुसलमान थे उनके पाँच छह गुना मुसलमान यहाँ हो गया,तो क्या आप नहीं मानते कि हिन्दू स्वभावत कितना शांतिपूर्ण सह अस्तित्व में विश्वास रखता है और हमारे लेख का उद्देस्य भी इसी भावना का विकास करना है उस पर आप मुस्लिम समाज को कैसे लाएँगे। कृपया इस पर मेरा ज्ञान वर्धन करें।
          बहुदेवतावादियों का सफाया करते-करते बांग्लादेश में जो कुछ हुआ है और कश्मीर में जो कुछ हो रहा है उसकी निंदा आप किन शब्दों में करेंगे और वहाँ बहुदेवतावादियों को आबाद करने के लिए आपके पास क्या कार्य योजना है इस पर भी मार्ग दर्शन करें।
          कुरान की जिन आयतों पर आपने स्पष्टीकरण दिया है उनके विषय में मैं कुरान की पवित्रता का पूरा सम्मान करते हुए आपसे अपेक्षा करता हूँ कि आप इन्हे ऐसे ही अर्थों में सभी मुस्लिम आतंकी संगठनो और धार्मिक संगठनो से मनवाने का कष्ट करें। वेदों की और श्री कृष्ण जी की बातें मुस्लिम मत के या किसी अन्य मत के विरूद्ध नहीं है ना ही वेद किसी को केवल इस आधार पर अपना शत्रु मानने की आज्ञा देता है कि वह आपसे विपरीत मत या विचार रखता है।
          मैंने बहुत पहले किसी मुस्लिम विद्वान का लेख पढ़ा था कि इस्लाम का जो स्वरूप आज हमारे सामने है वह वास्तविक नहीं है इसे खून खराबे से भरा मझाब बनाने में मुहम्मद साहब की शिक्षाएँ नहीं बल्कि उन बादशाहों के खूनी संघर्ष हैं जिनहोने इस्लाम की ओट में लोगों का खून बहाकर अपने साम्राज्य खड़े किए है। मैं इस लेखक कि इस व्याख्या का सम्मान करता हूँ आप जैसे विद्वानो को उसी इस्लाम की स्थापना का प्रयास करना चाहिए जो पूरी मानवता को साथ लेकर चले।

          धन्यवाद

        • फिर राष्ट्र गान गाने में परहेज क्यों ? १ घंटे में हिन्दुओं का सफाया करने की बातें क्यों (हैदराबाद प्रकरण )? बर्मा के दंगों को लेकर शहीद समारक पे तोड़ फोड़ क्यों? कश्मीर से हिन्दुओं की सफाई क्यों ? अमरनाथ यात्रा पे हमले क्यों ?

          उपरोक्त बातें और करनी में जमीन आसमान का फर्क क्यों ? है कोई जवाब?

        • आपकी बात बहुत ही तर्क सनगत है तथा आपके मजहब का बहुत अच्छा बचाव या कहूँ तो सही व्याख्या है आपके अनुसार ,पर प्रश्न ये है की इतिहास क्या कहात है??वर्तमान क्या कहता है ??इतिहास में ये प्रमाण है की खुद इस्लाम को बनाने वाले ने कही मूर्तियों को तोड़ा या तोड़ने की आज्ञा दी ,इतिहास इस बात का प्रमाण है की जत्थे के जत्थे हमारे देश में आते थे हमारे मंदिरों को तोड़ने मूर्ति को विखंडित करने ,हमारा कत्ले आम करने हमको जबरदस्ती से इस्लाम अपनाने को मजबूर करने ,और अभी तक मुझे एस एक भी अतंग वादी नहीं मिला जो ये कहता हो की कृष्ण ने काह है इस लिए में गैर हिन्दुओ को मारूंगा पर ,इस्लाम के नाम पर तो हत्याए दिखाती ही है |मई आपकी ये बात भी मान लू की वो सब गलत व्याख्या के शिकार है पर जनाब अपनी व्याख्या चाहे गलत हो सही उसके कारन दुसरे क्यों मरे??काफ़िर कौन है??अब आप कहंगे जो बदमाश है आदि आदि पर नहीं जनाब काफ़िर वो है जो इस्लाम की सत्ता को नहीं मानते है तब ही तो पूरा पाकिस्थान हिन्दू विहीन कर दिया गया कश्मीर कर दिया गया ,आप किसको मुर्ख बनाना चाहते है??हम पर्चो से नहीं सीधे किताब से ही पढ़ते है ,हिन्दुओ को कभी भी इतने आसानी से बरगलाया नहीं जा सकता है हम हिन्दू है सब धर्म की किताबे पढ़ते है खुले मन से और सब धर्म की बाते जानते है …………………..पूरा का पूरा इस्लाम तलवार के जोर से फैला है अगर हाथ में तलवार नहीं तो इस्लाम नहीं है वो किसी राष्ट्रीयता को नहीं मानता है

  2. लेख में अनेक तर्क से एक स्पष्ट बात रखी गयी है की भारत में सर्वधर्म समभाव की बातें करते हुए हिंदू मुस्लिम ईसाई के भाई भाई होने की बात कही जाती है जबकि हिन्दू के बांकी विरोधी हैं । हिंदुत्व ने संसार में मानवतावाद फैलाया और इसी को मानव धर्म के रूप में स्थापित किया।

    ब्रह्मापुत्र सनक ,सनंदन ,सनातन ,सनत का बताया मार्ग सदाचार है जिस के विरोधी दुष्टों को ही दैत्य, असुर, राक्षस, अनार्य जैसे शब्दों से हमारे यहां पुकारा गया है। आज की प्रचलित परिभाषा में जिन्हें धर्म समझा जाता है वो धर्म नही अपितु सम्प्रदाय हैं।

    हर मुसलमान पाक व साफ है और खुदा की संतान है, बाकी सब शैतान हैं। इस भाव के रहते भला कैसे मुसलमान अपने पड़ोसी किसी गैर मुसलमान से प्यार करेगा? यह भी सत्य है की ‘’भारत धर्मनिरपेक्ष राज्य इसलिए बना हुआ है कि दस हिंदुओं में से नौ अल्पसंख्यकों के विरूद्घ हिंसा में विश्वास नही करते।’ देशद्रोह और अनैतिक, अविधिक कार्य के एव्यख्या उत्तम है

    • डाक्टर धनाकर जी,
      आपकी प्रतिकृया के लिए धन्यवाद।
      विखंडित मानसिकता और खंडित मानवता को आज जोड़ने की आवश्यकता है लेकिन यह जुड़ाव ऊपरी-ऊपरी मीठी-मीठी बातें करने से नहीं बनेगा हर मत,पंथ,संप्रदाय अपनी-अपनी सर्वोच्ता के झंडे लिए खड़ा है उसमे से गंभीरता के साथ अच्छी बातों को हमें ग्रहण करना होगा मानवता के हिट में इससे बेहतर कोई बात नहीं हो सकती। वेद ज्ञान के आदि स्रोत है।उनके ज्ञान की पवित्रता को कोई भंग नहीं कर सकता। वेद किसी संप्रदाय को बढ़ावा नहीं देते और ना ही संप्रदाय खतम करने की आज्ञा देते हैं इसलिए मेरे इस तत्व को विज्ञान की कसौटी पर कसकर देखा जाए और तब वेदों के मानवतावाद को दुनिया का धरम घोषित किया जाए।
      धन्यवाद

  3. राकेश कुमार जी,बहुत दिनों पहले मैने एक पुस्तक पढ़ी थी,इस्लाम: चैलेंज टू रेलिजन .हमलोग जिस तरह कहते हैं कि हिंदुत्व कोइ धर्म या रेलिजन नहीं,यह तो एक जीवन पद्धति है,उसी तरह उस पुस्तक में भी विभिन्न उदाहरणों द्वारा यह प्रमाणित करने की चेष्टा की गयी है कि इस्लाम कोई धर्म या मज़हब नहीं, वह तो आदर्श जीवन जीने की एक पद्धति है. मुझे लेखक तर्क असंगत नहीं लगे. बात आकर रूकती है देश प्रेम और देश भक्ति पर. मेरे ग्यानानुसार हिंदू धर्म मानवता और विश्व वंधुत्व पर तो बहुत ज़ोर देता है,पर हमारे पुरातन धर्म ग्रंथों में मुझे राष्ट्र पेम के बारे कुछ देखने को नहीं मिला.( हो सकता है कि ग्यान के इस अथाह सागर में ऐसा बहुत कुछ हो,पर मेरे जैसे अल्पग्यानि की उस पर नज़र न पड़ी हो.)
    अब बात आती है भ्रष्टाचार ,मिलावट और प्रदूषण को ,खास कर पवित्र नदियों को मौत के कगार पर पहुँचाने को देशद्रोहसे जोड़ने की,तो मेरे विचार से कोई भी ऐसा कार्य जिस से देश को या उसके वासिंदों को हानि हो ,देश द्रोह की श्रेणी में आता है.
    मैने क़ुरान नहीं पढ़ा है. उसके कुछ छिट पुट अंशों का अवलोकन अवश्य किया है. उसमे तो मुझे कोइ आपति जनक चीज़ नहीं मिली.

    • आप वास्तव में ही अलाप ग्यानी है जो आपको भारतीय शास्त्र में राष्ट्र प्रेम नहीं मिला ,अरे क्या हमारे राम व् कृष्ण चुरन खाने के लिए भारत के कोने कोने में शास्त्र लिए राक्षसों को मारते थे क्या आपने नहीं पढ़ा ??”आपि स्वर्ण मयि लंका न में लक्ष्मण रोचते जननी जन्म भुमिश्य च : स्वर्गादपि गरीयसी ”
      क्या अपने नहीं पढ़ा शस्त्रेण रक्षम राष्ट्रं ,आपने नहीं पढ़ा भीष्म को वो वाक्य जो बहुत ज्यादा प्रसिद्द है राष्ट्र की सीमाए वस्त्र के सामान होती है जिनकी रक्षा करना हमारा {पुत्र } धर्म है “………………आप को फर्जी लेखकों को छोड़ कर पहले अपने शास्त्रों का अध्धयन कर लेना चाहिए पहले उसके बाद ही कुछ लिखना चाहिए |आपने कुरआन पढ़ी ही नहीं है तो क्यों जबरदस्ती उसकी तारीफ कर रहे है ??आप कहे तो मैं लिंक दे दू उसके सो कोल्ड राष्ट्र प्रेम के ??

      • मैं तो अग्यानि हूँ ही और अबतो उस पर आप जैसे ग्यानियो ने मुहर भी लगा दी,पर मैं अपने आप को कोस रहा हूँ कि आपने जो उदाहरण दिए,वह भी थोड़ा ही मेरी ग्यान वृद्धि कर सका. भागवत गीता तो मैने पढ़ी है मेरे विचार से कृष्ण के असल रूप के दर्शन वहीं होते हैं. उसके साथ महाभारत का युद्ध भी जुड़ा हुआ है. पहली बात तो यह है कि यह दो राष्ट्रों के बीच संघर्ष नहीं थ. कृष्ण ने भी यही कहा था:
        यदा यदा धर्मस्य ग्लानिर भवति भारत.
        अभ्युत्थानम अधर्मस्य तदात्मांम सृजाभ्यहम.
        इसमे राष्ट्र शब्द तो कहीं भी नहीं आया है.
        इसी तर्ज पर राम का जीवन और चरित्र है. वहाँ भी तुलसी दास ने लिखा है:
        जब जब होहि धर्म की हानि, बढ़े असुर महा अभिमानी.
        इससे तो केवाल इतना पता चलता है कि जब जब धर्म पर अधर्म हावी हो जाता है तो सनातन धर्म के अनुसार भगवान अवतरित होते हैं.
        आपने जननी जनंभूमिश्च स्वर्गदापि गरियसि का उदाहरण पेश किया है. जन्मभूमि तो मेरा या आपका गाँव या शहर भी हो सकता है.
        आपने यह भी लिखा है,”शस्त्रेण रक्षम राष्ट्रं ,आपने नहीं पढ़ा भीष्म को वो वाक्य जो बहुत ज्यादा प्रसिद्द है राष्ट्र की सीमाए वस्त्र के सामान होती है जिनकी रक्षा करना हमारा {पुत्र } धर्म है ”
        हो सकता है कि महाभारत में यह प्रसंग आया हो,पर मैं यह जानना चाहूँगा कि यह किस प्रसंग में आया है और वहाँ किस राष्ट्र का वर्णन है?

        • इसे ही कहते है असली कम्युनिस्ट बुद्धि ,जो अपने सीमित ज्ञान को ही सब कुछ मानती है और जब कोई तर्क भी दिया जाए तो सुनना नहीं ,कृष्ण भारत मे ही क्यू राक्षसो को मारते है???वो चाहे तो पूरे विश्व मे जहां भी है वहाँ जाकर मार दे??राम को भारत के गाँव गाँव घूम घूम कर निशाचरों को मारने की क्या जरूरत पड़ी??अयोध्या से दक्षिण भारत बहुत दूर है बहुत दूर ,अपना वनवास तो आराम से छतीस घर मे काट लेते ??आज्ञा भी ये ही थी डंकरण्य जाओ ,फिर??ये तरुक क्या है जन्म भूमि कोई भी हो सकती है ??गाँव शहर राज्य सब राष्ट्र मे ही होता है ।अपने न महाभारत पढ़ी है न भागवत गीता केवल बंडल मार रहे है ,अगर मेरी स्मृति सही है तो महाभारत के शांति पर्व में ये आया है और यहाँ राष्ट्र का मतलब देश ही है फिर में भी कही गलत हो उ तो बताना अगर मुझे ठीक से याद है तो इस प्रवक्ता पर ही किसी लेखक ने इस पर शायद कोई लेख भी लिखा था ,वैसे भी वामपंथी दिमाग की कोशिश ये ही रहती है की कैसी भी ये सिद्ध करे की भारत एक राष्ट्र कभी रहा ही नहीं और खास बात ये है की आप का श्लोक भी भारत को ही कह रहा है यहाँ भारत का अर्थ अर्जुन है लेकिन गीता केवल अर्जुन के लिए नहीं है ये बात तो आप जानते ही होंगे ,कृष्ण ने इस श्लोक में भारत ही क्यों कहा??वो चाहते तो कौन्तेय अर्जुन धनजय आ दी कह सकते थे और बाकी जगह कहा भी है पर यहाँ सिर्फ भारत कहा है अब भी आपकी बुद्धि नहीं चलती तो क्या कहे??चलिए एक और बतात हु श्लोक पूरा
          ण का है नाम भूल गया हूँ “उत्तर यत समुद्रस्य हिमद्र स्च्येव दक्षिणं .वर्ष तद नाम भारत यत्र सन्तति ||”एक और लीजिये शायद भूमि सूक्त है “माता भूमि पृत्वी ओ अहम् “……………..

          • आप जैसे लोगों के साथ यही मुसीबत है. आपलोग जब कुछ समझ में नहीं पाते है तो किसी को वाम पंथी और किसी को दक्षिण पंथी मान लेते हैं. संस्कृत का ज्ञान नहीं के बराबर है,अतः यह तो नहीं कह सकता कि मैने मूल गीता का अध्ययन किया है,पर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि मैने हिन्दी अनुवाद सहित एक से अधिक बार गीता का अध्ययन किया है. अगर आप कहते हैं तो मैं फिर से उसको पढ़ने का प्रयत्न करता हूँ. गीता पर तीन पुस्तकें अभी भी मेरे पास हैं.१. गीता रहस्य.२ गीता ऐज इट इज.३. भागवत गीता फार डेली लिविंग . अगर इसमे किसी के साथ जोड़कर आप वह सन्दर्भ पेश कर सकें तो मुझे समझने में आसानी होगी. महाभारत तो मेरे पास नहीं है,पर वह भी नेट पर अवश्य उपलब्ध होगा. शांति पर्व में आपके द्वारा ब्ताए गये सन्दर्भ को ढूँढने का प्रयत्न करूँगा. इससे मेरे ग्यान में इज़ाफा होगा. रह गयी बंडल बाजी की बात तो किसी को पूरी तरह जाने बिना इस तरह का आक्षेप आप जैसे सर्वग्य ही लगा सकते हैं,अतः उसके बारे में मैं यही कहूँगा कि ऐसे तो बंडल बाजी मेरे स्वभाव में नहीं है ,पर आपको शायद इसका ज्ञान ज़्यादा हो.

    • आर सिंह जी,
      चौदह सौ वर्ष से इस्लाम बहुदेवतावादियों को धरती से खतम करने के लिए जिहाद कर रहा है लेकिन वह अपने उद्देश्य में अभी तक सफल नहीं हुआ है परिणाम अब ये आ रहा है कि इस्लाम और इसाइयत दो परस्पर विरोधी खेमो में विश्व विभाजित हो गया है यानि अगले चौदह सौ वर्ष तक दुश्मनी के नए दौर की नई शुरुआत।वैसे इस्लाम और इसाइयत पूर्व में भी लगातार तीन सौ वर्षों तक युद्ध लड़ चुके है। परिणाम क्या निकला सिवाय नफरत को बढ़ावा देने के। मझाब की खासियत ही ये होती है कि वह आपस में बैर रखना सिखाता है जबकि धर्म की खासियत है कि वह हमें जोड़ता है। क्योंकि धर्म संसार के तमाम नैतिक और न्याय संगत नियमों और विचारों का संग्रह है जो सिवाय वेदो के अतिरिक्त काही नहीं मिलता। वेदो में और हमारे अन्य शास्त्रो में राष्ट्र और राष्ट्रप्रेम के बारे में बहुत कुछ कहा है। जिसका हल्का सा संकेत आपको पुरोहित जी ने अपनी प्रतिकृया में दिया है।
      चौदह सौ वर्ष तक इस्लाम बहुदेवतावादियों को जिस प्रकार खतम करता रहा है क्या अब इस्लाम के लिए इस विषय पर रुककर सोचने का वक्त नहीं आ गया है।सचमुच एक दूसरे की सोचने की आवश्यकता है ।आशा है आप मेरी बात पर अवश्य ही चिंतन करेंगे।
      धन्यवाद

      • सभी विद्वत गणो से क्षमा याचना के साथ यह अल्पज्ञानी यह अर्ज़ करना चाहता है कि मेरे विचारनुसार कोई भी धर्म ग्रंथ युग की वाणी भी बोलता है और युग युग की वाणी भी. मेरा कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म ग्रंथ जिस काल में ,जिन परिस्थितियों में लिखा गया है,उन परिस्थितियों का प्रभाव उन पर साफ दृष्टिगोचर होता है. इसको मद्दे नज़र अगर धर्म ग्रंथों का अध्ययन किया जाए तो पता चलेगा किपरिस्थियों और काल के प्रभाव से कोई भी धर्म ग्रंथ अछूता नहीं रहा है. इसीलिए वेदों में कही हुई बहुत सी बातें आज शायद ठीक नहीं लगे. मेरे विचारनुसार ईसाई धर्म और इस्लाम या उसके पहले बौद्ध या जैन धर्म सब सनातन धर्म के देश और काल के अनुसार एक तरह से विकास की ओर अग्रसर होते हुए रूप हैं. कल्पना कीजिए कि अगर इनमे आपस में टकराव नहीं होता तो अपने आप में ये ठीक ही थे.इस्लाम का जन्म जिन परिस्थतियों में हुआ था ,वहाँ उनके कृत्य शायद जायज़ थे,पर जब उसके अनुयायी उस युग धर्म को बिना विचारे युग युग का धर्म मान लेते हैं तो असल कठिनाइ आरम्भ हो जाती है एकेश्वर वाद आर्य समाज भी मानता है.बौद्ध धर्म तो इश्वर को मानता ही नहीं,पर शायद या तो इनकी परिस्थितियाँ वैसी नहीं थी,जैसी परिस्थितियों में इस्लाम या ईसाईं धर्म के साथ था या सनातन धर्म यहाँ फिर भी एक सुदृढ़ रूप में अपने दर्शन के साथ विद्यमान था,जैसा कि उन्न देशों में नहीं था..
        मेरे विचारनुसार किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने के पहले हम एक दूसरे के धर्म को अच्छी तरह समझें तो सही.
        बात आगे आती है राष्ट्र और राष्ट्र प्रेम की ,तो मेरी यह मान्यता है कि जिस समय वेदों की रचना हुई थी,उस समय या उसके बहुत बाद भी राष्ट्र के वर्तमान संकल्पना (कोन्सेपट) का उद्भव ही नहीं हुआ था.

      • मुस्लिम मजहब के अनुसार ३ तरह के जिहाद होते हैं, उनमे से एक जिहाद, ‘जिहाद बिल सैफ है’ जिहाद बिल सैफ उस समय वाजिब है जब दुश्मन ने देश पर हमला कर दिया हो |
        मुस्लिम मजहब की पुस्तकों के अनुसार खुद को किसी भी तरह मारना (suicide) या किसी दुसरे को देश में शांति के समय मारना कुफर है | स्वार्थी लोग अपने फायदे के लिए जवान मुस्लिम लोगों को उनके सही रास्ते से भटकाते हैं कि, अमुस्लिम लोगों को मारने से उनको जन्नत में स्थान मिलेगा लेकिन यह मजहब के अनुसार गलत है क्योंकि बेकसूर लोगों को मारने से उनका या मजहब का कोई उदेश्य पूरा नहीं होगा, क्योंकि खुद को मारने या किसी निर्दोष को मारने से यह लोग न तो अपनी कौम के प्रति, या अपने मां बाप के प्रति या अपने बच्चों के प्रति अपना फर्ज़ निभाते हैं | मुस्लिम मजहब कि पुस्तकों के अनुसार ऐसे लोग दोजख में जायेंगे | इस तरह वह बिना किसी PURPOSE के अपनी जान गवां लेते हैं | निम्न पंक्तियाँ उनके लिए ही हैं , “न खुदा ही मिला न विसाले सनम , न इधर के रहे न उधर के रहे .”|

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