नामवर सिंह : मुझे जमाने से कुछ भी शिकवा नहीं

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एम0 अफसर खान ‘सागर’

हिन्दी साहित्य के पुरोधा, महान आलोचक, जिनके केवल एक कथन से भूचाल खड़ा हो जाता हो वो थें नामवर सिंह। नामवर सिंह के बारे में कहा जाता कि ‘उनकी पसन्द, नापसन्द और उनका मौन तथा उनकी सभी कार्यवाहीयां साहित्य जगत में तूफान को जन्म देती। कभी-कभी तो उनका मात्र एक कथन तूफान खड़ा कर देता।’ नामवर सिंह के व्यक्तित्व के कई कोण थे। उनमें से एक था उनका ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’। हिन्दी के लेखकों में प्रेमचंद के बाद वे अकेले ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ की पहचान वाले लेखक रहे। हिन्दी के लेखकों की नजर उनके हिन्दी पहलू से हटती नहीं थे। खासकर शिक्षकों-लेखकों का एक बड़ा हिस्सा उन्हें प्रोफेसर के रूप में ही देखता रहा। नामवर सिंह सिर्फ एक हिन्दी प्रोफेसर समीक्षक और विद्वान नहीं थे। प्रोफेसर, आलोचक, पुरस्कारदाता, नौकरीदाता, गुरू आदि से परे जाकर उनके व्यक्तित्व ने ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ की स्वीकृति पायी। उनके व्यक्तित्व में नया और पुराना दोनों एक ही साथ मिलेगा। वे भाषण पुराने देते थे लेकिन पैदा नया करते थे। उनके पुराने विषयों पर दिए गए भाषणों में पुरानापन नहीं रहता। यही वजह है कि उनके व्यक्तित्व और व्याख्यान में नया और पुराना एक ही साथ नजर आता था।

मोक्ष की नगरी काशी जो कि पावन गंगा के गोद में बसी है से तकरीबन 50 किमी0 पूरब उत्तर प्रदेश के चन्दौली जनपद के धानापुर ब्लाक के जीयनपुर गाँव में 28 जुलाई 1927 को नागर सिंह व वागेश्वरी देवी के घर में हिन्दी जगत के महान आलोचक नामवर सिंह का जन्म हुआ। 1997 से पूर्व जीयनपुर पहले गाजीपुर तथा बाद में वाराणसी जनपद का अंग हुआ करता था। नामवर सिंह की प्राथमिक शिक्षा पास के ही गाँव अवाजापुर में हुई जहाँ आपके पिता शिक्षक थे। हिन्दी का ककहरा आपने यहीं से सीखा तथा कक्षा चार की शिक्षा के लिए आप माधोपुर चले गये। इसके उपरान्त कक्षा पाँच की शिक्षा के लिए कमालपुर में नामांकन हुआ। एक पुरानी कहावत है ‘पूत के पाँव पालने में ही दिखाई देता है’ आपने इतनी कम उम्र में ही अपने पिता के मित्र व महान गाँधीवादी कामता प्रसाद विद्यार्थी के यहाँ जाने लगे जहाँ आपको ‘आज’ पढ़ने को मिला। अपने से छः साल बड़े साहित्यिक अभिरूची के मित्र जयचन्द सिंह के साथ पास के ही गांव कादिराबाद के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी प्रसिद्ध नारायण सिंह के यहां जाने लगे जहां उन्हे सस्ता साहित्य मडल की पुस्तकें पढ़ने को मिलने लगीं और यहीं से इनको साहित्यिक संस्कार मिलना शुरू हुआ। यहीं आपने गाँधी, नेहरू, टालसटाय, रूसो तथा माक्र्स को भी पढ़ा। इन साहित्यों का प्रभाव आपके उपर ऐसा पड़ा कि दर्जा छः में ही आपने ’पुनीत’ उपनाम से कविता लिखना शुरू कर दिया था। कक्षा आठ में की इन्होने नीम के फूल नाम से कविता संग्रह तैयार कर लिया था, जो कि प्रकाशित नहीं हो सका। जिसकी एक रचना बहुत चर्चित थी ‘‘ मत छाहं मांगते फिरो निठुर बबूल की’’।

   सन् 1941 में आपने प्रथम श्रेणी में मिडिल पास कर हीवेट क्षत्रिय स्कूल जो कि आज उदय प्रताप कालेज है, में दाखिला लिया। सन् 1941 में ही ‘क्षत्रिय मित्र’ नामक पत्रिका में आपकी दो कवितायें छपीं। इस बीच आपका परिचय त्रिलोचन शास्त्री से हुआ जिन्होने आपको पढ़ने और लिखने को पे्ररित किया। त्रिलोचन जी से प्रभावित हो कर आपने ‘आवारा की डायरी’ तथा ‘अनामिका’ खरीदा। सन् 1941 में ही  इलाहाबाद के प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में भाग लिया तथा इसी वर्ष निराला जी की स्वर्ण जयन्ती मनायी गयी और आपके कविता पाठ के लिए 100 रूपये का पुरस्कार मिला। इसी वर्ष आपका पहला लेख दैनिक आज में छपा जो कि वर्ष भर के साहित्यिक गतिविधियों का लेखा-जोखा था।

 सन् 1948 में नव संस्कृति संघ का गठन किया गया जिसमें नामवर सिंह को काशी इकाई का सचिव नियुक्त किया गया आपके साथ राजाराम शास्त्री, शम्भूनाथ, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और विजय नारायण शाही थें। सन् 1949 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में एम0 ए0 में प्रवेश लिया तथा एम0 ए0 पास करने के बाद आपको 100 रूपये शोधवृत्ति मिलने लगी। सन् 1951 में आपका पहला निबन्ध संग्रह ‘बकलम खुद’ छपा इसके बाद सन् 1952 में आपकी दूसरी किताब ‘हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग’ छपा। सन् 1953 में ही आपको काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी का प्राध्यापक पद मिला जहाँ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी आपके विभागाध्यक्ष थे। दो धुरन्धरों का जोड़ हो और द्वन्द न हो कहाँ हो सकता था आपने द्विवेदी जी के साथ ‘पृथ्वी राज रासो’ का सम्पादन करना प्रारम्भ किया। कम्यूनिस्ट पार्टी के दफ्तर की बहसों ने नामवर सिंह को माक्र्सवादी विचारधारा का धधकता गोला बना दिया तथा आप विशुद्ध रूप से माक्र्सवादी विचारधारा के वाहक के रूप में कार्य करने लगे। सन् 1956 से आपने विवादों का दामन थामा तथा आलोचना ही आपका शगल बन गया। इसी वर्ष आपकी दो पुस्तकें ‘छायावाद’ और ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां’ आलोचना पर छपीं। पृथ्वी राज रासो की भाषा और पुरानी राजस्थानी और वाद-विवाद संवाद इसी वर्ष प्रकाशित हुयी। सन् 1957 में ‘इतिहास और आलोचना’ छपी।

कम्यूनिस्ट विचारधारा के प्रबल समर्थक नामवर सिंह ने सन् 1959 के लोकसभा चुनाव में चन्दौली संसदीय सीट से जो कि आपका गृह क्षेत्र था से कम्युनिस्ट पार्टी से चुनाव लड़ा, जिसके आरोप में आपको काशी हन्दू विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया। चुनाव हारने के बाद आप सागर विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर नियुक्त हुये मगर विवाद से तो आपका चोली दामन का साथ था अतः एक वर्ष भी न बीत सका कि आपका विवाद विभागाध्यक्ष नन्ददुलार वाजपेयी से हुआ तथा आपने नौकरी छोड़ दी। नामवर सिंह ने एक बार फिर 1960 में काशी की तरफ रूख किया तथा तरीबन पाँच साल काशी प्रवास के दौरान आपने गहन चिन्तन व मनन किया। सन् 1965 में जनयुग के सम्पादन के लिए दिल्ली गये तो फिर लौटे नहीं मानो आपने घर का राह ही भूल गये। वहाँ आपको राजकमल प्रकाशन का साहित्यिक सलाहकार नियुक्त किया गया। जिसको मन्जिल की उँचाइयों को छूना होता है वह स्थान व परिधि में बाँधे नहीं जा सकते। दरिया के रवानी को क्या किसी ने रोक पाया है सो आपने सन् 1967 में दोनों कार्यों से मुक्ति पाकर आलोचना का सम्पादन शुरू किया। इस दौरान ‘कविता के नये प्रतिमान’ पर भी काम जारी रखा जो कि सन् 1968 में राजकमल प्रकाशन में छपी। सन् 1969 में आपको इसके लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन् 1969 में ही आप प्रोफेसर हो कर जोधपुर विश्वविद्यालय गये तथा सन् 1974 में यहाँ से छोड़कर कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी विश्वविद्यालय आगरा आ गये जहाँ आपका मन न लगा तथा सन् 1974 में ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केन्द्र में संस्थापक अध्यक्ष व प्रोफेसर नियुक्त हुये। सन् 1982 में नामवर सिंह ने गुरू हजारी प्रसाद द्विवेदी पर ‘दूसरी परम्परा की खोज’ लिखी। सन् 1987 में पदमुक्ती के बाद भी आपको तीन वर्ष के लिए पुर्ननियुक्ति मिली। इसके उपरान्त आपको राजा राम मोहन राय फाउण्डेशन लाइब्रेरी ने अध्यक्ष के रूप में अपनाया। इसके बाद सन् 1996 में यहाँ से मुक्त होकर आप दूरदर्शन पर सुबह सवेरे में साहित्यिक समीक्षक के रूप में प्रत्येक शुक्रवार को सेवा देने लगे। डा0 नामवर सिंह महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा में बतौर चांसलर सेवा दिया। आपने ‘नामवर के विमर्श’ की रचना की तथा आपको साहित्य अकादमी, यश भारती समेत अनेक सम्मान मिले।

 नामवर सिंह ने जीवन के अति सक्रीय व व्यस्तम समय में भारतीय साहित्य व प्रगतिशील आन्दोलन के ध्वजवाहक के रूप में भारत समेत विदेशों में भी हिन्दी के प्रचार व प्रसार की जिम्मेदारी उठायी। आपने इंग्लैण्ड, पूर्वी जर्मनी, हंगरी, फ्रांस, रूस, इटली, बुल्गारीया, सिंगापुर, माॅरीशस, वियतनाम, नेपाल आदि राष्ट्रों का दौरा कर हिन्दी के प्रचारक के रूप में काम किया। नामवर सिंह आधुनिक ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ के मार्ग पर चलते रहे, और उनके आलोचक पीछे -पीछे उनकी असंगतियों का शोर मचाते रहे। साहित्य के दायित्व को उन्होंने राष्ट्रीय दायित्व के रूप में ग्रहण किया और अन्य दायित्वों को इसके मातहत बना दिया। यही उनकी महान विभूति का प्रधान कारण रहे। नामवर सिंह ने अपना व्यक्तित्व अपने परिश्रम, मेधा और संघर्षों के आधार पर बनाया। वे अपनी सारी शक्ति एक चीज के लिए लगाते रहे वह है ज्ञानप्रेम। ज्ञानप्रेम ने उन्हें महान बनाया।

इस मूर्धन्य साहित्यकार व आलोचक का जाना हिन्दी साहित्य में कभी न भरने वाला खालिपन है। डॉ. नामवर सिंह नयी पीढ़ी को लगातार प्रोत्साहित करते रहते थे। तकरीबन एक सदी के लम्बे जीवन में नामवर सिंह से कई पीढ़ियों ने बहुत कुछ सीखा। बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण ही आप पिछले तीन दशकों से हिन्दी साहित्य के केन्द्र में बने रहे। आपने लिखने से ज्यादा बोलने पर जोर दिया, किताबों की तुलना में संगोष्ठियों को तरजीह दिया। नामवर सिंह कम लिखते थे, घर में कम रहते थे। अधिकांश समय देशाटन करते थे। व्याख्यान देते रहे। अनेकबार कुछ नहीं बोलते लेकिन सैकड़ों किलोमीटर चलकर जाते थे। नामवर सिंह जानते थे भाषणों से संसार बदलने वाला नहीं है। इसके बावजूद वे भाषण देने जाते थे, जो भी बुलाता उसके कार्यक्रम में चले जाते। नामवर सिंह ने अपने भाषणों में राष्ट्रवाद, हिन्दीवाद, कट्टरता, फंडामेंटलिज्म, अतिवादी वामपंथ, साम्प्रदायिकता, आधुनिकतावाद, नव्य उदारतावाद, पृथकतावाद आदि का कभी समर्थन नहीं किया। वे इन विषयों पर बोलते हुए बार-बार सभ्यता के बड़े सवालों की ओर चले जाते हैं। आलोचना के साथ कविता की परंपरा से भी गहरा सम्बंध था। उन्होने लिखा भी –

बुरा जमाना, बुरा जमाना, बुरा जमाना

लेकिन मुझे जमाने से कुछ भी शिकवा नहीं

नहीं है दुःख कि क्यों हुआ मेरा आना

ऐसे युग में जिसमें ऐसी ही बही हवा।

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