राष्ट्रीय विद्रोही दल

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विजय कुमार, 

शर्मा जी की बेचैनी इन दिनों चरम पर है। 2019 सिर पर है और चुनाव लड़ने के लिए अब तक राष्ट्रीय तो दूर, किसी राज्य या जिले स्तर की पार्टी ने उनसे संपर्क नहीं किया। उन जैसे समाजसेवी यदि संसद में नहीं जाएंगे, तो क्या होगा देश का ?शर्मा जी ने कई पार्टियों को संदेश भेजे कि वे उनसे निवेदन करें; पर किसी ने उन्हें घास नहीं डाली। झक मारकर वे खुद ही नेताओं के घर और पार्टियों के दफ्तरों में गये; पर कई नेताओं ने तो उन्हें पहचानने से ही मना कर दिया। पार्टी दफ्तरों में भी उन्हें वी.आई.पी. की बजाय आम आदमियों की भीड़ में बैठा दिया गया। अतः वे इस ओर से भी निराश हो गये।उन्होंने आसपास नजर दौड़ाई, तो उन जैसे सैकड़ों लोग थे। वे सब चुनाव तो लड़ना चाहते थे; पर कोई पार्टी उन्हें टिकट देने को तैयार नहीं थी। विचारधारा का तो अब कोई महत्व रहा नहीं। पहले नेता क्षेत्र के विकास की बात करते हैं; पर चुनाव जीतकर परिवार के विकास में लग जाते हैं। इसलिए टिकट कोई भी पार्टी दे, पर दे। यही शर्मा जी और उन जैसे लोगों का एकमात्र उद्देश्य था।

शर्मा जी के ध्यान में ये भी आया कि कई लोग ऐसे हैं, जिन्हें मजबूत दावेदारी के बावजूद पिछली बार टिकट नहीं मिला। उनमें से कई ने हाई कमान पर दबाव बनाने के लिए लाखों रु. चुनाव से पहले ही प्रचार में खर्च कर दिये; पर टिकट कोई और ले उड़ा। कुछ लोग ऐसे भी थे, जो विधायक या सांसद रह चुके थे; पर जनता से कटे रहने और बेहूदे बयानों के कारण पार्टी ने उन्हें इस बार मना कर दिया। कई जगह जनता ही प्रदर्शन कर रही थी कि इस बार इन्हें टिकट मिला, तो खैर नहीं। पिछली बार हमने इन्हें जिताने में मेहनत की थी, इस बार उससे अधिक मेहनत इन्हें हराने में करेंगे। अतः पार्टी ने उनके आगे लाल निशान लगा दिया था।

शर्मा जी ने सूची बनायी, तो सौ से भी अधिक ऐसे नाम हो रहे थे। उन्होंने कुछ मित्रों से परामर्श कर इनकी एक बैठक गांधी पार्क में बुला ली। वैसे तो ऐसी बैठकें होटलों में होती हैं; पर वहां का बिल कौन भरता ? इसलिए मैदान ही सही। बड़ी गाड़ियों की भीड़ देख निठल्ले लोग और पत्रकार भी जुट गये।

शर्मा जी के सफेद बालों का सम्मान करते हुए सबने उन्हें इस बैठक का अध्यक्ष बना दिया। बैठक का मुद्दा तो एक ही था कि चुनाव में किसी बड़ी पार्टी से टिकट कैसे मिले ? बैठक चलते हुए दो घंटे हो गये; पर वक्ताओं की सूची ही पूरी नहीं हो रही थी। कुछ लोग वर्तमान सत्ताधारी पार्टी को कोस रहे थे, तो कुछ पिछली बार वाली को। तीन घंटे बाद शर्मा जी का नंबर आया। उन्होंने कहा कि बड़ी पार्टियों की बेरुखी देखते हुए हम ‘राष्ट्रीय विद्रोही दल’ बनाएं और इसके बैनर पर ही चुनाव लड़ें।

सबने इसका समर्थन किया और ‘जो बोले सो कुंडी खोले’ की तर्ज पर शर्मा जी को इसका संयोजक घोषित कर दिया। कुछ लोगों ने चुनाव में खर्च की बात उठायी। शर्मा जी ने साफ कह दिया कि चुनाव के इच्छुक नेताओं पर पैसे की कोई कमी नहीं है। इसलिए हम किसी को धन नहीं देंगे; पर इसके सदस्यों को शपथ लेनी होगी कि यदि कोई बड़ी पार्टी टिकट देगी, तो भी हम उसे ठुकरा कर इस दल से ही चुनाव लड़ेंगे।

शर्मा जी एक रजिस्टर साथ लाये थे। उन्होंने उस पर यह शपथ लिखकर हस्ताक्षर किये और आगे बढ़ा दिया। बैठक चलते बहुत देर हो चुकी थी। शर्मा जी काफी समय से प्राकृतिक दबाव में थे। उससे मुक्ति के लिए वे पार्क के सार्वजनिक शौचालय में चले गये। वहां से लौटे, तो सभी विद्रोही नदारद थे।

पार्क में घूमते एक आदमी ने उन्हें बताया कि अभी-अभी चुनावों की घोषणा हो गयी है। इसलिए सब नेता एक बार फिर गुलदस्ते, लिफाफे और उपहारों के साथ नेताओं के घर और पार्टियों के दफ्तरों की ओर प्रस्थान कर गये हैं।

 

शर्मा जी ने गुस्से में आकर उस रजिस्टर को फाड़ दिया।

 

 

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