इन दिनों मीडिया में इंटरनेट के माध्यम से स्मार्ट फोन या कम्प्यूटर पर खेले जाने वाले खेल ‘ब्लू व्हेल’ की बहुत चर्चा हो रही है। इसने अब तक भारत में कई बच्चों की जान ले ली है। इस हिंसक खेल में बच्चों को 50 दिन में 50 कठिन काम करने होते हैं। इन्हें करते हुए वह अपनी बांह पर कुछ निशान लगाता है। इससे धीरे-धीरे वहां व्हेल मछली का चित्र बनने लगता है। इसका अंतिम काम आत्महत्या है। छोटे और भोले बच्चे क्रमशः इसके जाल में फंस जाते हैं। सुना है कि भारत और अन्य कई देशों ने इसे प्रतिबंधित कर दिया है तथा इसके रूसी निर्माता को गिरफ्तार कर लिया है।
इस खेल की चर्चा से जिस समस्या की ओर लोगों का ध्यान गया है, वह है बच्चों का अकेलापन। यह कैसे हो सकता है कि घर में मां-बाप और भाई-बहिनों के रहते हुए भी ये पता न लगे कि बच्चे के मन में क्या चल रहा है ? इसका अर्थ है समस्या कहीं और है। असल में पिछले 25-30 साल में हमारे समाज में कई परिवर्तन हुए हैं। सम्पन्नता बढ़ी है तथा शहरीकरण की अति के चलते संयुक्त परिवार टूटे हैं। कैरियर के चक्कर में विवाह देर से होने लगे हैं। तलाक भी खूब होने लगे हैं। पति-पत्नी दोनों के कामकाजी होने से बच्चों की संख्या घटी है। शिक्षा, विवाह और चिकित्सा महंगे हुए हैं। मोबाइल जैसे उपकरण सर्वसुलभ हुए हैं; पर इनसे जहां अनेक सुविधाएं मिली हैं, तो अकेलापन, अवसाद, रक्तचाप, मधुमेह जैसे रोग भी तेजी से बढ़े हैं। इसी की चरम परिणिति आत्महत्या है।
आजकल समाज में मोटा पैसा कमाने वाले ही सफल माने जाते हैं। भले ही वे सही-गलत कुछ भी करें। जनसंख्या तो बढ़ी है; पर कम्प्यूटर के कारण नौकरियां घटी हैं। अतः उनके लिए मारामारी अधिक है। किसानों के बच्चे भी अब खेती करना नहीं चाहते। महीने में कई लाख रु. कमाने वाले व्यापारियों के बच्चे भी नौकरी के पीछे भाग रहे हैं। अतः बड़े शहरों में कैरियर संस्थान खुल गये हैं, जहां बच्चों को सफलता के शिखर पर पहुंचाने का दावा किया जाता है; पर हर बच्चा तो वहां नहीं पहुंच सकता। परिणाम वही शारीरिक और मानसिक रोग।
इसे विचारों का पीढ़ीगत अंतर भी कह सकते हैं; पर क्या यह सच नहीं है कि 25-30 साल पहले लोग अभावों के बावजूद अधिक सुखी थे। तब अवसाद, रक्तचाप, मधुमेह या आत्महत्या जैसे रोग बहुत कम थे। क्योंकि व्यक्ति के जीवन में परिवार का महत्व था। लोग आपस में खूब बातें करते थे, जबकि अब महत्व केवल पैसे का है। पहले परिवार प्रायः संयुक्त तथा हर दम्पति के चार-पांच बच्चे भी होते थे; पर अब सम्पन्नता के बावजूद यह संख्या कहीं दो से आगे नहीं है। कुछ लोग ये कहकर एक से ही संतोष कर ले रहे हैं कि इसे ही ठीक से पढ़ा लें। पता नहीं ये कहां और कैसी नौकरी करेगा ? ऐसे में यदि पैसा पास में होगा, तभी बुढ़ापा ठीक से कटेगा। इसलिए लोग आज के साथ ही कल के लिए भी भरपूर पैसा बचा लेना चाहते हैं। यद्यपि जनसंख्या की अति का समर्थन नहीं किया जा सकता; पर इसकी कमी भी ठीक नहीं है।
संयुक्त और मध्यम आकार के परिवार के कई लाभ थे। छोटी-मोटी बीमारी दादी के नुस्खों से ही ठीक हो जाती थीं। महिलाएं घर या बाहर कहीं व्यस्त हैं, तो बुजुर्गों के संरक्षण में बच्चे सुरक्षित रहते थे। बड़े बच्चे भी छोटों को संभाल लेते थे। इस तरह संयुक्त परिवार सेफ्टी वाल्व का काम करते थे; पर इनके अभाव में बच्चे हों या बड़े, सब टी.वी., मोबाइल या कम्प्यूटर की शरण में हैं।
फेसबुक के निर्माता और दुनिया के शीर्ष धनपति मार्क जुकरबर्ग के अनुसार उसके अभिभावकों ने 12 साल का होने तक उसे कम्प्यूटर नहीं दिया और वह भी अपने बच्चों के साथ यही करेगा। ऐसा कहने वाले जुकरबर्ग की बुद्धिमत्ता पर संदेह का कोई कारण नहीं है। पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने अपने दूसरे कार्यकाल के लिए वोट मांगते समय अमरीकी परिवार बचाने के लिए प्रयास करने का वायदा किया था। स्पष्ट है कि परिवार का महत्व अब विदेशी भी समझ रहे हैं।
महिलाएं नौकरी करें या नहीं, और करें तो कब करें, इस पर मतभिन्नता हो सकती है; पर प्रकृति ने उन्हें संतानोत्पत्ति और उनके पालन की विशेष जिम्मेदारी दी है। इसकी उपेक्षा घातक हो सकती है। आजकल पुरुष भी काफी व्यस्त हो गये हैं। बड़े शहरों में आने-जाने में ही कई घंटे लग जाते हैं। पहले बाजार में साप्ताहिक बंदी होती थी। बच्चे इसकी प्रतीक्षा करते थे, जिससे पिता के साथ समय बिता सकें; पर सरकार चाहती है कि पश्चिमी देशों की तरह बाजार सातों दिन और 24 घंटे खुलें। इससे व्यापार कितना बढ़ेगा, ये तो पता नहीं; पर परिवार जरूर बरबाद हो जाएंगे। यहां हमें अमरीका की बजाय भूटान का अनुसरण करना होगा, जहां प्रगति का आधार ‘खुशहाली इंडैक्स’ को बनाया गया है।
पैसे और परिवार का ये संघर्ष हमारे समाज की नयी परिघटना है। इसमें कौन जीतेगा, ये कहना कठिन है। लोग कोल्हू के बैल बनकर बच्चों के लिए पैसा कमाते हैं; पर इस चक्कर में उनकी आपस में कई दिन तक बात ही नहीं होती। बुजुर्ग तो जैसे-तैसे समय गुजार लेते हैं; पर बच्चे इस अकेलेपन को नहीं झेल पाते। ऐसे में उनका साथी बनता है कम्प्यूटर, मोबाइल और ‘ब्लू व्हेल’जैसे घातक खेल।
मेरे पड़ोस में कई कोचिंग केन्द्र हैं। वहां दिन भर भीड़ लगी रहती है। युवाओं को देखकर अच्छा लगता है; पर जब एक दुपहिये पर तीन (और कभी-कभी चार) लड़के-लड़कियां अशालीन कपड़ों में फंसे दिखते हैं, तो आंखें झुक जाती हैं। सिगरेट वहां आम चीज है। शनिवार की शाम, गली की आड़ में प्रायः पीना-पिलाना और इससे आगे भी बहुत कुछ हो जाता है। गांव और छोटे नगरों के हजारों युवा कोचिंग के लिए बड़े शहरों में रहते हैं। अभिभावक सोचते हैं कि हम अपना कर्तव्य निभा रहे हैं; पर उन्हें पता ही नहीं लगता कि उनके बच्चे किससे दोस्ती कर रहे हैं ? इसमें से ही ‘लव जेहाद’जैसी दुर्घटनाएं भी हो रही हैं, जिससे प्रायः साम्प्रदायिक तनाव और दंगे हो जाते हैं।
यद्यपि कैरियर और पैसे के महत्व को नकारा नहीं जा सकता; पर इन दोनों में संतुलन जरूरी है। ऐसा न हो कि जिनके लिए पैसा कमा रहे हैं, वे ही हाथ से निकल जाएं। इसके लिए समाजशास्त्री कुछ सूत्र बताते हैं। इनके सपरिवार पालन से किसके मन में क्या चल रहा है, ये पता लगेगा। कोई समस्या होगी, तो ‘ब्लू व्हेल’जैसे विस्फोट से पहले ही उसका समाधान हो जाएगा। ये सूत्र हैं – 1. रात का भोजन, 2. अपने इष्ट की साप्ताहिक पूजा, 3. मासिक मनोरंजन, तथा 4. वार्षिक तीर्थयात्रा।
कई लोगों ने इनके प्रयोग से घर की खुशियां बढ़ाई हैं। आप भी करके देखें।
– विजय कुमार