तिरंगा को दलगत राजनीति से धुंधलाना!

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ललित गर्ग-

भारत का राष्ट्रीय झंडा, भारत के लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं का प्रतिरूप है। यह राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है। हमने अपनी आजादी की लड़ाई इसी तिरंगे की छत्रछाया में लड़ी। विडंबना यह है कि अनगिनत कुर्बानियों के बाद हमने आजादी तो हासिल कर ली, शासन चलाने के लिए अपनी जरूरत के हिसाब से संविधान भी बना लिया, लेकिन अपने राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गान, राष्ट्रीय गीत एवं राष्ट्रीय पर्व को अपेक्षित सम्मान नहीं दे पाएं हैं। कितने ही स्वप्न अतीत बने। कितने ही शहीद अमर हो गए। कितनी ही गोद खाली और मांगंे सूनी हो गईं। कितने ही सूर्य अस्त हो गए। कितने ही नारे गूँजे– ”स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है“, ”वन्दे मातरम्“, ”भारत छोड़ो“, ”पूर्ण-स्वराज्य“, ”दिल्ली चलो“- लाल किले पर तिरंगा फहराने के लिए यह सब हुआ। आजादी का प्रतीक बन गया था – हमारा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा। इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस मनाते हुए राष्ट्रीय प्रतीकों विशेषतः राष्ट्रीय ध्वज को फहराने की बात को लेकर जिस तरह की विरोधाभासी दलगत एवं स्वार्थ-संकीर्ण राजनीतिक कुचालों को चलाकर जो माहौल बनाया गया है, वह अराष्ट्रीयता का द्योतक है। आखिर क्यों झंडा फहराने के नाम पर घटिया एवं विध्वंसक राजनीति की जा रही है ? क्या राष्ट्रीय प्रतीक के नाम पर ही राजनीति चमकाना शेष रह गया है?
क्या किसी ने सोचा था कि इन राष्ट्रीय पर्वों एवं प्रतीकों का महत्त्व इतनी जल्दी कम हो जाएगा? आज जबकि समाज विघटन एवं अनगिनत समस्याओं की कगार पर है। जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र और भाषा जैसे सवालों ने अपने जहरीले डैने पसार रखे हैं। हिंसक वारदातांे, प्राकृतिक आपदाओं एवं चारित्रिक अवमूल्यन की त्रासद घटनाओं से देश का हर आदमी सहमा-सहमा-सा है। मर्यादाओं के प्रति आस्था लड़खड़ाने लगी है। संस्कृति और परम्परा मात्र आदर्श बनकर रह गये हैं। जीवन मूल्यों की सुरक्षा में कानून और न्याय कमजोर पड़ने लगे हैं। राजनीति में घुस आये स्वार्थी तत्वों ने लोकतांत्रिक प्रतिष्ठा को धूमिल कर दिया है। इन जटिल से जटिलतर होते हालातों के दौर में हमारे राष्ट्रीय पर्वों एवं प्रतीकों की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। ये हमें न केवल एकता के सूत्र में बांधते हैं, बल्कि सवालों-वादों के खतरों के प्रति सचेत भी करते हैं। राष्ट्रीय पर्व एवं प्रतीक हमें सिर्फ इस बात का अहसास नहीं कराते कि अमुक दिन हमने अंग्रेजी हुकूमत से आजादी हासिल की थी या अमुक दिन हमारा अपना बनाया संविधान लागू हुआ था, बल्कि ये हमारी उन सफलताओं की ओर इशारा करते हैं जो इतनी लंबी अवधि के दौरान जी-तोड़ प्रयासों के फलस्वरूप मिलीं। ये हमारी विफलताओं पर भी रोशनी डालते हैं कि हम नाकाम रहे तो आखिर क्यों! क्यों हम पर्वों एवं प्रतीकों को उतना महत्त्व नहीं दे सके।
यह  जानबूझकर विवाद खड़े करने की मानसिकता को ही उजागर करता है कि जहां मदरसों में तिरंगा फहराने की इस वर्ष के परम्परागत आदेश को राजनीतिक रंग दे दिया गया। जबकि मध्यप्रदेश मदरसा बोर्ड के अध्यक्ष प्रोफेसर सय्यद इमादउद्दीन ने इसे नियमित आदेश बताया है। उत्तर प्रदेश के बाद मध्यप्रदेश में जारी किये गये इस तरह के आदेश को एक तुगलकी फरमान की संज्ञा देना हमारी संकीर्ण राजनीति को पोषित करने की कुचेष्टा ही कहा जायेगा। इन आदेशों में अक्सर आयोजन की फोटो  अपलोड किए जाने की बात कही जाती है, जिससे इन अच्छे कार्यों के लिए पुरस्कृत किए जाने की सतत् प्रक्रिया को न्यायपूर्ण एवं निष्पक्ष तरीके से संचालित किया जा सके है। राष्ट्रीय पर्व मनाने एवं राष्ट्रीय ध्वज फहराने के नाम पर जिस तरह का भयानक एवं दुर्भाग्यपूर्ण वातावरण निर्मित किया गया, वह हमारे राजनीतिक स्वार्थों की चरम परकाष्ठा है।
15 अगस्त मात्र तारीख, महीना या वर्ष ही नहीं है। न यह कोई जन्मदिन ही है कि हम केक काट लें, न ही यह कोई वार्षिक दिवस है कि एक रस्म के रूप में इसे मात्र मना लें। यह तो उजाला है जो करोड़ों-करोड़ों के संकल्पों, कुर्बानियों एवं त्याग से प्राप्त हुआ है। आजादी किसी एक ने नहीं दिलायी। एक व्यक्ति किसी देश को आजाद करवा भी नहीं सकता। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की विशेषता तो यह रही कि उन्होंने आजादी को राष्ट्रीय संकल्प और तड़प बना दिया।
इस उजाले को छीनने के कितने ही प्रयास हुए, हो रहे हैं और होते रहेंगे। उजाला भला किसे अच्छा नहीं लगता। आज हम बाहर से बड़े और भीतर से बौने बने हुए हैं। आज बाहरी खतरों से ज्यादा भीतरी खतरे हैं। आतंकवाद, नक्सलवाद और अलगाववाद की नई चुनौतियां हैं- लालकिले पर फहराते ध्वज के सामने। लोग समाधान मांग रहे हैं, पर गलत प्रश्न पर कभी भी सही उतर नहीं होता। हमें आजादी प्राप्त करने जैसे संकल्प और तड़प उसकी रक्षा करने के लिए भी पैदा करनी होगी। जब तक लोगों के पास रोटी नहीं पहुँृचती, तब तक कोई राजनीतिक ताकत उसे संतुष्ट नहीं कर सकती। रोटी के बिना आप किसी सिद्धांत को ताकत का इंजेक्शन नहीं दे सकते।
125 करोड़ के राष्ट्र को लालकिले का तिरंगा ध्वज कह रहा है कि मुझे आकाश जितनी ऊंचाई दो, भाईचारे का वातावरण दो, मेरे सफेद रंग पर किसी निर्दोष के खून के छींटे न लगें, आंचल बन लहराता रहे। मुझे फहराता देखना है तो सुजलाम् सुफलाम् को  सार्थक करना होगा। मुझे वे ही हाथ फहरायंे जो गरीब के आंसू पोंछ सकें, मेरी धरती के टुकड़े न होने दें, जो भाई-भाई के गले में हो, गर्दन पर नहीं। अब कोई किसी की जाति नहीं पूछे, कोई किसी का धर्म नहीं पूछे। मूर्ति की तरह मेरे राष्ट्र का जीवन सभी ओर से सुन्दर हो। लेकिन बिन राजनीति चरित्र के सबकुछ धुंधला रहा है, सून हो रहा है।
धुंधलेपन की परतें कितनी गहरी हैं, सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि स्वतन्त्र भारत में हम किस तरह किसी भी व्यक्ति को आजादी का जश्न मनाने से रोक सकते हैं और किसी भी राज्य की सरकार किस तरह किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले ध्वजारोहण पर आपत्ति कर सकती है। लेकिन ऐसा हुआ और  ऐसा होना विडम्बनापूर्ण ही कहा जायेगा। केरल की माक्र्सवादी पार्टी की सरकार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत द्वारा पलक्कड के एक विद्यालय में 15 अगस्त पर झंडा फहराने का विरोध किया और इस जिले के जिलाधीश ने उन्हें ऐसा न करने के लिए कहा। इसकी परवाह श्री भागवत ने नहीं की और नियत कार्यक्रम के अनुसार तिरंगा फहराया। 19 साल पहले भी 26 जनवरी को बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने श्रीनगर जाकर सेना के घेरे में लाल चैक पर तिरंगा फहराया था। ऐसा करके भागवत या जोशी ने किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया क्योंकि स्वतन्त्र देश भारत के किसी भी स्थान पर 15 अगस्त को तिरंगा फहराने से तब तक कोई भी सरकार किसी को नहीं रोक सकती जब तक कि सार्वजनिक जीवन खतरे में पड़ जाने का डर न हो। श्री भागवत के केरल की धरती पर जाने से ऐसा कुछ भी होने का अन्देशा नहीं था जिसका प्रमाण उनके कार्यक्रम के सम्पन्न हो जाने से भी मिला मगर इस मामले से यह साबित हो गया कि केरल में माक्र्सवादी अजीब असुरक्षा की भावना से भर गये हैं। यह जनजीवन की नहीं, बल्कि राजनीति की असुरक्षा की भावना है। इस तरह की स्थितियां इसलिये उत्पन्न हो रही है कि हमारे देश में सब कुछ बनने लगा पर राष्ट्रीय चरित्र नहीं बना और बिन चरित्र सब सून है। मनुष्य के जीवन में मजबूरियां तब आती हैं, जब उसके सामने कुछ पाने के लिए कुछ छोड़ने की तुलनात्मक स्थिति आती है। यही क्षण होता है जब हमारा कत्र्तव्य कुर्बानी मांगता है। ऐसी स्थिति झांसी की रानी, भगतसिंह से लेकर अनेक शहीदों के सामने थी। नये दौर में मोहन भागवत एवं मुरलीमनोहर जोशी के सामने भी आयी तो उन्होंने मातृभूमि की माटी के लिए समझौता नहीं किया। कत्र्तव्य और कुर्बानी को हाशिये के इधर और उधर नहीं रखा।
जब भागवत केरल में स्वतंत्रता दिवस समारोह में भाग लेने के लिये गये तो वहां के मुख्यमंत्री पिनयारी विजयन उनके स्वागत को तत्पर होते, स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं देते और केरल में प्रेम व भाईचारा बढ़ाने की कामना करते। उल्टा उन्होंने विरोध प्रदर्शित करने की स्थितियां बना दी, अलोकतांत्रिक वातावरण बना दिया। जबकि लोकतंत्र हमें यही तो सिखाता है कि अपने राजनीतिक या वैचारिक प्रतिद्वन्द्वी को भी समुचित सम्मान दो। यह सिद्धान्त दोनों ही पक्षों पर समान रूप से लागू होता है। इसी प्रकार श्री विजयन या उनकी पार्टी के कोई दूसरे नेता जब किसी भाजपा शासित राज्य में जायें तो उनके कार्यक्रमों को समुचित सम्मान मिले। ऐसी सौहार्दपूर्ण स्थितियों को निर्मित करके ही हम लोकतंत्र को मजबूत कर सकेंगे और आजादी के वास्तविक उद्देश्यों को पा सकेंगे। प्रेषकः

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