निष्काम कर्मयोगी, पितृभक्त ब्रह्मचारी भीष्म

अशोक “प्रवृद्ध”

bhishm pitamah

महाभारत के सबसे महत्वपूर्ण पात्रों में से एक देवव्रत गंगा तथा हस्तिनापुर नरेश शान्तनु के पुत्र थे। गंगापुत्र देवव्रत का आजीवन ब्रह्मचर्य रहने की दृढ प्रतिज्ञा करने के कारण भीष्म नाम हुआ । भीष्म पाण्डव व कौरवों के पितामह थे इसलिए उन्हें भीष्म पितामह के नाम से भी जाना जाता है । अपनी भीष्म प्रतिज्ञा के लिये सर्वप्रसिद्ध भीष्म ने आजीवन विवाह नहीं किया और ब्रह्मचारी रहकर राजा बन सकने की क्षमता रहने के बावजूद आजीवन हस्तिनापुर के सिंहासन के संरक्षक की भूमिका निभाई। इसी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए महाभारत युद्ध में उन्होने कौरवों के पक्ष से महाभारत युद्ध में भाग लिया था। इन्हें इच्छा मृत्यु का वरदाऩ प्राप्त था। यह कौरवों के पहले प्रधान सेनापति थे, जो सर्वाधिक दस दिनों तक कौरवों के प्रधान सेनापति रहे थे। महाभारत युद्ध खत्म होने पर इन्होंने गंगा किनारे इच्छा मृत्यु ग्रहण की । इच्छा मृत्यु के पूर्व उन्होंने युद्धिष्ठिर व पाण्डवों के पूछने पर श्रीकृष्ण के समक्ष ही कई लौकिक , परलौकिक व इहलौकिक प्रश्नों के उत्तर भी दिए।भगवान परशुराम के शिष्य देवव्रत अपने समय के विद्वान व शक्तिशाली पुरुष थे। महाभारत के अनुसार सब प्रकार की शस्त्र  विद्या में निपुण देवव्रत को किसी भी तरह के युद्ध में हरा पाना असंभव था। संभवत: उनके गुरु परशुराम ही उन्हें हरा सकते थे लेकिन इन दोनों के बीच हुआ युद्ध पूर्ण नहीं हुआ और दो अति शक्तिशाली योद्धाओं के लड़ने से होने वाली क्षति को देखते हुए इस संग्राम को  भगवान शिव द्वारा रोक दिया गया।देवव्रत , भीष्म, भीष्म पितामह एक ऐसे निष्काम कर्मयोगी, पितृभक्त पुत्र का नाम है, जिसने अपना सम्पूर्ण जीवन एक प्रतिज्ञा को निभाने में व्यतीत कर दिया। पितृभक्त के रूप में लोकख्यात भीष्म ने अपने पिता के लिए अपनी इच्छाओं और सम्पूर्ण सुखों का परित्याग कर दिया। इनकी स्मृति में माघ मास के कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि को भीष्म पितामह की जयंती भक्तजन बड़े ही श्रद्धा भाव से मनाते हैं । पिता के प्रति प्रेम का सन्देश देती भीष्म जयंती के अवसर पर माताएँ अपने संतानों में भीष्म सदृश्य विद्वान व पराक्रमी गुणों की प्राप्ति हेतु व्रत रखती हैं वहीँ पूर्वजों व पितरों के शांति केलिए भी इस दिन लोग श्रद्धाभाव से जलार्पण करते हैं ।

देवव्रत अर्थात भीष्म पितामह के सम्बन्ध में विशद विवरणी महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता, पुराण साहित्य में अंकित प्राप्य है । महाभारत व अन्य ग्रंथों के अनुसार देवव्रत का ही अन्य नाम भीष्म , गंगापुत्र और पितामह है । वे धनुर्विद्या में पारंगत थे । कथा के अनुसार हस्तिनापुर के राजा शान्तनु के तीन पुत्र थे – देवव्रत, चित्रांगद और विचित्रवीर्य । देवव्रत ने अपनी पिता की कामना पूर्ण करने के लिए भीष्म प्रतिज्ञा की कि वह जीवनपर्यन्त ब्रह्मचारी रहेगा तथा सन्तान उत्पन्न नहीं करेगा। इसी कारण उसका नाम भीष्म पड़ा और पिता शान्तनु ने देवव्रत को इच्छामृत्यु का वरदान दिया। । चित्रांगद अविवाहित था और युद्ध करता हुआ मारा गया । तीसरा पुत्र विचित्रवीर्य प्रायः रूग्न रहा करता था । उसकी माँ सत्यवती ने सन्तान सूत्र टूटने से बचाने के लिए उसके बड़े भाई भीष्म को विचित्रवीर्य के विवाह का प्रबंध करने के लिए कहा ।  संयोगवशात उन्हीं दिनों काशिराज ने अपनी तीन कन्याओं के स्वयंवर की घोषणा की थी ।  स्वयंवर के दिन भीष्म वहाँ जा पहुँचा और उसकी तीन कन्याओं का अपहरण करके उन्हें हस्तिनापुर ले आया । इनमें से बड़ी बहन अम्बा ने कह दिया कि उसने अपने मन में शाल्वराज को वरा हुआ है । इस कारण अब वह किसी दूसरे की भार्या नहीं बनेगी। उसे छोड़कर अम्बिका तथा अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य से कर दिया गया। वे दोनों कन्याएँ अति सुन्दर थीं । विचित्रवीर्य तब अल्पायु होने पर भी अपने में संयम नहीं रख सका। परिणामस्वरूप कुछ वर्षों में ही यक्ष्मा के रोग में ग्रस्त होकर वह निःसन्तान मृत्यु को प्राप्त हो गया । इस पर विचित्रवीर्य के माता को बड़ा भारी दुःख हुआ। उसे कुलसूत्र के टूट जाने की चिन्ता सताने लगी। उसने अपने विवाह से पूर्व की अपने पति की , अवैध सन्तान व्यास मुनि को विचित्रवीर्य की की पत्नियों से नियोग करने को कहा । उस नियोग के फलस्वरूप विचित्रवीर्य की दोनों पत्नियों और अम्बिका के छल से उनकी एक सेविका से तीन पुत्र उत्पन्न हुए। ये तीनों विलक्षण थे। अम्बिका का पुत्र धृतराष्ट्र जन्म से चक्षुविहीन और अम्बालिका का पुत्र पाण्डु शिराओं से दुर्बल हुआ और उनकी सेविका का पुत्र विदुर अति बुद्धिमान परन्तु साधु स्वभाव का हुआ।  अंधे पुत्र धृतराष्ट्र का विबाह गांधार नरेश की कन्या गान्धारी से किया गया और उसकी एक सौ सन्तान हुई । सबसे बड़ी सन्तान थी दुर्योधन । पाण्डु के दो विवाह हुए कुन्ती तथा माद्री से।  पाण्डु वैसे तो बहुत वीर था, परन्तु स्नायु- दौर्बल्य रोग से ग्रस्त था। इस कारण पति बनने में वह सर्वथा अयोग्य था । परिणामस्वरूप नियोग द्वारा कुन्ती के तीन पुत्र – युद्धिष्ठिर, भीम और अर्जुन तथा माद्री से दो पुत्र नकुल व सहदेव हुए।इन कौरव- पाण्डवों में ही महाभारत युद्ध लड़ा गया , जिसमे एक ही स्थान पर अठारह दिनों में अठारह अक्षौहिणी सेना लड़ – कटकर मर गई ।

 

महाभारत आदि पर्व के कथा अनुसार पूर्व जन्म में भीष्म वसु थे । एक बार पृथु आदि वसु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे, जहाँ वसिष्ठ ऋषि का आश्रम भी था। एक वसु पत्नी की दृष्टि ऋषि वसिष्ठ के आश्रम में बंधी नंदिनी नामक गाय पर पड़ी तो उसने उसे अपने पति द्यौ नामक वसु को दिखाया तथा कहा कि वह यह गाय अपनी सखियों के लिए चाहती है।पत्नी की बात मानकर द्यौ ने अपने भाईयों के साथ उस नंदिनी गाय का हरण कर लिया। जब महर्षि वसिष्ठ अपने आश्रम आए तो नंदिनी को अपने स्थान पर न पा उन्होंने दिव्य दृष्टि से सारी बात जान ली। वसुओं के इस कार्य से क्रोधित होकर ऋषि ने उन्हें मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। जब सभी वसु ऋषि वसिष्ठ से क्षमा माँगने आए, तब ऋषि ने कहा कि तुम सभी वसुओं को तो शीघ्र ही मनुष्य योनि से मुक्ति मिल जाएगी, लेकिन इस द्यौ नामक वसु को अपने कर्म भोगने के लिए बहुत दिनों तक पृथ्वीलोक में रहना पड़ेगा। कथा के अनुसार द्यौ नामक वसु ने गंगापुत्र भीष्म के रूप में जन्म लिया और श्राप के प्रभाव से लंबे समय तक पृथ्वी पर रह अंत में इच्छामृत्यु से प्राण का त्याग किया ।

 

महाभारत की एक प्रसंग के अनुसार भीष्म ने एक बार श्रीकृष्ण को भी क्रोधित कर दिया था । पाण्डवों व कौरवों के मध्य युद्ध प्रारंभ हुआ, तो कौरवों के सेनापति भीष्म पितामह को ही नियुक्त किया गया । युद्ध के तीसरे दिन भीष्म पितामह ने पाण्डवों की सेना पर भयंकर बाण वर्षा कर भयभीत कर दिया। इस पर श्रीकृष्ण की सलाह से अर्जुन और भीष्म पितामह में भयंकर युद्ध हुआ, लेकिन अर्जुन युद्ध में कमजोर पड़ गए और पाण्डवों की सेना में भगदड़ मच गई। यह देखकर श्रीकृष्ण को बहुत क्रोध आया और वे रथ से उतर अपने हाथ में सुदर्शन चक्र लेकर बड़ी तेजी से भीष्म की ओर झपटे। श्रीकृष्ण को ऐसा करते देख अर्जुन रोकने के लिए उनके पीछे दौड़े। अर्जुन के द्वारा युद्ध सुचारुपूर्वक लड़ने के प्रति आश्वस्त किये जाने पर श्रीकृष्ण शांत हुए और पुन: अर्जुन का रथ हांकने लगे।

 

महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह के द्वारा पाण्डव सेना में भयंकर मारकाट मचाये जाने पर उनके इस रूप को पाण्डवों में भय व्याप्त हो गया । तब अर्जुन के द्वारा श्रीकृष्ण से भीष्म पितामह को हराने का उपाय पूछे जाने पर श्रीकृष्ण ने कहा कि यह उपाय तो स्वयं भीष्म ही बता सकते हैं। इस पर पाँचों पाण्डव श्रीकृष्ण के साथ भीष्म पितामह से मिलने गए और उनसे पूछा कि आपको युद्ध में कैसे पराजित किया जा सकता है? तब भीष्म ने बताया कि तुम्हारी सेना में जो शिखंडी है, वह पूर्व में एक स्त्री था, बाद में पुरुष बना। शिखंडी जब युद्ध में मेरे समक्ष  होगा तो मैं बाण नहीं चलाऊँगा। इस अवसर का लाभ उठाकर अर्जुन अथवा कोई अन्य मुझे बाणों से घायल कर दें। इस प्रकार मुझ पर विजय प्राप्त कर युद्ध को दुर्योद्धन के विपरीत किया जा सकता है ।

महाभारत युद्ध के दसवें दिन भी भीष्म पितामाह के द्वारा पाण्डवों की सेना में भयंकर मारकाट मचाये जाते देखकर युधिष्ठिर ने अर्जुन से भीष्म पितामह को रोकने के लिए कहा।इस पर अर्जुन शिखंडी को आगे करके भीष्म से युद्ध करने पहुँच गया। शिखंडी को देखकर भीष्म ने अर्जुन पर बाण नहीं चलाए लेकिन अर्जुन अपने तीखे बाणों से भीष्म पितामह को बींधने का प्रयास करने लगा शिखंडी को आगे कर अर्जुन के द्वारा छोड़े गये बाणों से छलनी होकर भीष्म पितामह सूर्यास्त के समय अपने रथ से गिर गए। उस समय उनका मस्तक पूर्व दिशा की ओर था। उन्होंने देखा कि इस समय सूर्य अभी दक्षिणायन में है, अभी मृत्यु का उचित समय नही हैं, इसलिए उन्होंने उस समय अपने प्राणों का त्याग नहीं किया।जब भीष्म पितामह के इन तीखे बाणों पर शयन करते हुए 58 दिन हो गए तथा सूर्यदेव उत्तरायण हो मकर राशि में प्रवेश कर गएतब भीष्म पितामह ने योग बल से अपने देह के सभी द्वारों को बंद करके प्राण को सब ओर से रोक लिया, इसलिए प्राण उनका मस्तक का ब्रह्म रंध्र फोड़कर आकाश में विलीन हो गया।

 

 

 

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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