—विनय कुमार विनायक
नारी तुम्हारी बांहों में सोता है शिशु नर,
नारी तुम्हारी बांहों में बंधा आकाशी नर!
नारी तुम्हारी बांहों में रोता है मुमुक्षु नर,
नारी तुम्हारी बांहों में शांति से मरता नर!
नारी के प्यार में नर आता पुनः देह धर,
नारी तुम्हारी गहराई को क्या नापेगा नर?
नारी तुम्हारी सीमा को क्या बांधेगा नर?
नारी तुम्हारा पग वामन के पग से भारी!
नारी तुम जबतक हो इस जगती तल पर,
देवता यहां आता रहेगा नर तन धर कर!
नारी स्वाधीन, रहता नर नारी पर निर्भर,
नारी ना होती तो पलायन कर जाता नर!
नारी जनती नर, नर नहीं जनता नारी को,
नारी की रचना पर ही विज्ञान होता निर्भर!
स्वमाता औ सासुमां का‘एक्स’ गुण लेकर,
नारी आती सदा शुद्ध नारी का तन धरकर!
नारी पुत्री ही नही वो माता है पिता का भी,
नारी द्विज-अद्विज से परे होती पराशक्ति!
नर द्विज होता सिर्फ नहीं उपनयनादि से,
ये तो है संस्कार बाहरी, सब होता अंदर!
स्वमाता से जन्मा नर,स्वपत्नी के गर्भ से,
पुनः पुत्र भाव से पुनर्जन्म पा लेता है नर!
नारी तुम बहन और पुत्री का तन धर कर,
बार-बार मां बनकर हमें देखने आती हो!
बहन रुप में लम्बी उम्र की दुआ करती हो,
पुत्री रुप में डांट पिलाती दवा खिलाती हो!
साठ साल के पिता का तुम सिर सहलाती,
अस्सी वर्षीय बाबा का तुम बनके डाक्टर!
शतजीवी बना रखनेवाली छोटी सी मां हो,
अस्तु नारी माता सबकी है ईश्वर से ऊपर!
चाहो मोक्ष तो मांगो, ईश्वर नहीं, नारी से
नारी जब देगी मुक्ति तो मोक्ष पाएगा नर!
—विनय कुमार विनायक