एक दिन बिक जायेगा माटी के मोल जग में रह जायेंगे प्यारे तेरे बोल

1
166

मनमोहन कुमार आर्य

               मनुष्य के जीवन का आरम्भ जन्म से होता है और मृत्यु पर समाप्त हो जाता है। बहुत से लोग इस बात से परिचित नहीं होते कि उनका यह जन्म पहला अन्तिम जन्म नहीं है। हमारी आत्मा अनादि अनश्वर है। यह सदा से है और सदा रहेगी। आत्मा का अध्ययन करने के बाद हमारे ऋषियों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि आत्मा जन्म मरण धर्मा है। जन्म का कारण मनुष्य के पूर्वजन्म के कर्म होते हैं और हमारी मृत्यु का कारण हमारा वृद्ध, जर्जरित रोगी शरीर हुआ करता है। मृत्यु के बाद आत्मा अपने कर्मानुसार नया शरीर प्राप्त करता है। यह नया शरीर आत्मा को परमात्मा की व्यवस्था से प्राप्त होता है। इसका ज्ञान परमात्मा ने मनुष्यों को सृष्टि के आदि काल में वेदों का ज्ञान प्रदान कर किया था और इस ज्ञान को गुरु-शिष्य परम्परा से जारी रखने की परम्परा भी आरम्भ की थी। सृष्टि के 1.96 अरब वर्षों से अधिक समय व्यतीत हो जाने के बाद भी वेदों का ज्ञान उपलब्ध है जिससे हम लाभ उठा सकते हैं।

               मनुष्य आत्मा एवं शरीर की एक संयुक्त सत्ता है। आत्मा में ज्ञान प्राप्त करने, उसे बढ़ाने तथा उसके अनुकूल विपरीत कर्म करने की सामथ्र्य होती है। मनुष्य को तब तक ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये जब तक की उसकी आत्मा संसार विषयक सभी भ्रान्तियां दूर हो जायें। यदि वह ऐसा नहीं करता तो अपनी ही हानि करता है। अधूरे ज्ञान के कारण मनुष्य का जीवन भी अधूरा रह जाता है और वह अनेक महत्वपूर्ण बातों को जानने के कारण उनके आचरण से होने वाले लाभों से भी वंचित हो जाता है। अतः मनुष्य को प्रातः व सायं इस संसार के रचयिता तथा पालक तथा आत्मा को मनुष्यादि शरीर एवं सुख व दुःख रूपी भोग की सामग्री प्रदान करने के लिए उस जगस्रष्टा का स्मरण करते हुए उसका भलीभांति ध्यान करना चाहिये। ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव को जानकर हमें अपने गुणों का सुधार व वृद्धि भी करनी चाहिये जिससे दोनों चेतन सत्ताओं में एकता स्थापित हो सके और जीवात्मा का मनुष्य जन्म सार्थक एवं सफल हो सके। ऐसे भाव मनुष्य के भीतर तभी आ सकते हैं जब उसके पुण्य कर्म जाग्रत हों अथवा उसे कोई सच्चा साधु व ज्ञानी पुरुष प्राप्त हो जो उसे सन्मार्ग का परिचय कराये और उसके लाभों को बता कर उस पर चलने की प्रेरणा करें। ऋषि दयानन्द जी के जीवन पर विचार करें तो उन्हें शिवरात्रि के दिन शिव की मूर्ति वा शिव लिंग की असमर्थता व निष्क्रियता का बोध हुआ था तथा सच्चे शिव को प्राप्त करने की प्रेरणा प्राप्त हुई थी। इसके कुछ समय उनकी बहिन और चाचा की मृत्यु ने उनमें वैराग्य का भाव उत्पन्न कर दिया था। वह मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के उपायों पर भी विचार करते थे और ऐसे गुरु की तलाश में थे जो उनकी अविद्या को दूर कर सच्चे ईश्वर वा शिव सहित उन्हें मृत्यु पर विजय प्राप्त करा सके।

               सौभाग्य से ऋषि दयानन्द को सच्चे योग गुरु मिले जिन्होंने उन्हें ईश्वर का ध्यान करने समाधि अवस्था को प्राप्त करने की विद्या सिखाई। विद्या गुरु के रूप में ऋषि दयानन्द को प्रज्ञाचक्षु महाविद्वान स्वामी विरजानन्द सरस्वती मिले जिन्होंने उनकी समस्त अविद्या को दूर कर उन्हें सद्ज्ञान वा आर्ष ज्ञान से परिचित कराया जिसको धारण कर मनुष्य अपनी शारीरिक तथा आत्मिक उन्नति करते हुए धर्म, अर्थ, काम मोक्ष को प्राप्त हो सकता है। इस अवस्था को प्राप्त होने पर भी उन्होंने अपने कर्तव्यों की उपेक्षा न कर अपने गुरु की प्रेरणा से संसार से अविद्या, अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, अधर्म, पाप, मिथ्या परम्पराओं, अन्याय, शोषण व अत्याचार को दूर करने के लिये देश भर में घूम कर विद्या व ज्ञान का प्रचार किया और विलुप्त वेदों को प्रकाशित कर देशवासियों को सुलभ कराया। उन्होंने वेदों का भाष्य किया और सभी मत-मतान्तरों व विचारधाराओं की निष्पक्ष समीक्षा कर वेद से इतर मत-मतान्तरों के ग्रन्थों को विद्या व अविद्या का मिश्रण बताया। उन्होंने बताया कि मत-मतान्तर के ग्रन्थ विष मिले अन्न के समान हैं। उन्होंने वेद को सूर्यवत् स्वतःप्रमाण तथा अन्य ग्रन्थों को वेदानुकूल होने पर ही परतः प्रमाण स्वीकार करने का सिद्धान्त दिया। आज भी यह सिद्धान्त तर्क एवं युक्ति पर सत्य सिद्ध है जिसकी आलोचना व खण्डन करने वाला संसार में किसी मत का कोई विद्वान व आचार्य सामने नहीं आता। ऋषि दयानन्द ने त्रैतवाद का सिद्धान्त भी दिया और संसार के लोगों का भ्रम दूर किया। इसकी महत्ता का अनुमान विद्वतजन ही लगा सकते हैं। ऋषि दयानन्द मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतार, मृतक श्राद्ध, जन्मना जातिवाद के मिथ्यात्व का भी प्रकाश किया जिससे मनुष्य की अवनति होने से बचती है और मनुष्य ईश्वर के सत्यस्वरूप को प्राप्त होता है।

               मनुष्य का जन्म आत्मा और माता-पिता के जन्मधारक तत्वों सहित पृथिवी माता की मिट्टी अर्थात् मिट्टी से उत्पन्न वनस्पतियों आदि से हुआ है। हमारा शरीर नाशवान है। हम जब जन्म लेते हैं तो हमारा शरीर बहुत छोटा व सामथ्र्यहीन होता है। माता के दूध तथा बाद में गोदुग्ध एवं अन्य पोषणयुक्त आहारों से इसमें वृद्धि होने सहित ज्ञान एवं बल की भी वृद्धि होती है। माता-पिता सहित आचार्यों की मनुष्य के जीवन निर्माण अर्थात् उसके ज्ञान में वृद्धि आदि में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हम ज्ञान प्राप्ति में सृष्टि के आरम्भ से हुए अनेक ऋषियों व महर्षियों के बनाये शास्त्रों के भी ऋणी होते हैं। हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं, वह हमने व हमारे माता-पिता ने नहीं बनाई है अपितु इसका निर्माण प्रथम ईश्वर ने वेदों के द्वारा और उसके बाद ज्ञान के ह्रास व लोगों की परस्पर दूरी एवं भौगोलिक कारणों से विकार उत्पन्न होने से होता है। ऐसा कह सकते हैं कि अनेक भाषाओं के होने का कारण देश, काल व परिस्थितियां, उच्चारण में दोष तथा मूल स्थान व मूल भाषा के बोलने वालों से दूरी का होना होता है। मनुष्य के जीवन में उत्पत्ति, वृद्धि, ह्रास और मृत्यु के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। हम जीवन में कितने अच्छे व बुरे काम कर लें परन्तु वृद्धावस्था आने के बाद लगभग एक सौ वर्ष की आयु के भीतर अधिकांश लोगों को संसार को छोड़ कर जाना ही पड़ता है। काल की अवधि अनन्त है। हमारा जीवन भी अनन्त है। इस दृष्टि से 50 से 100 वर्ष का समय वा मनुष्य की आयु महत्वपूर्ण भी है और तुच्छ भी। मृत्यु होने पर हमारा शरीर जिसका हम जीवन काल में बहुत ध्यान रखते हैं, एक वृथा वस्तु बन जाता है जिसे घर परिवार के लोग श्मशान में ले जाकर अन्त्येष्टि संस्कार कर देते हैं अर्थात् अग्नि को समर्पित कर देते हैं। कुछ ही समय में यह पूरा शरीर राख का ढेर बन जाता है जिस का मूल्य शायद कुछ भी नहीं होता। यह वास्तविकता है। यही हमारे जीवन का भी सत्य है व होना है। अतः हमें इस रहस्य को जानकर अपने आचरण व कर्तव्यों के पालन में सजग एवं सावधान रहना चाहिये।

               यह संसार अपने आप नहीं चल रहा है। कोई गाड़ी अपने आप न तो बनती है और न ही चलती है। वैज्ञानिक व इंजीनियर इसे बनाते हैं और एक चालक इसे चलाता है। इसी प्रकार से यह समस्त सृष्टि परमात्मा द्वारा बनाई गई है और वहीं इसका संचालक तथा व्यवस्थापक के रूप में इसे चला रहा है। हम एक भोक्ता वा उपभोक्ता है। संसार में तो हमें हर सेवा के लिये दूसरों को धन देना होता है परन्तु हमारा परमात्मा हमारे माता-पिता-आचार्य के समान एक विशेष देवता है जो बिना मूल्य हमें सब कुछ देता है। इसके बदले में वह चाहता है कि हम उसे व स्वयं को जानें और अपने उचित व आवश्यक कर्तव्यों की पूर्ति करें। हमारी सहायता के लिये उसने हमें वेदों का ज्ञान भी दिया है। यह ज्ञान उसने सृष्टि के आरम्भ में ही प्रदान कर दिया था। हमें इसका यह लाभ है कि वेद ज्ञान के साथ हमें ऋषियों के अनेक ग्रन्थ उपनिषद, दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति, संस्कार व राजधर्म के ग्रन्थ, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, संस्कारविधि, संस्कृत व्याकरण, रामायण तथा महाभारत आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इनकी सहायता से हम वह ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं जो हमसे पूर्व के लोग प्राप्त नहीं कर सकते थे। यह हमारा सौभाग्य है। हमें इसका लाभ उठाना चाहिये। वैदिक धर्म में सद्कर्मों से धन कमाने की स्वतन्त्रता है और असत्यारण की मनाही है। हमें केवल यह करना है कि हमें आध्यात्मिक एवं सांसारिक दोनों प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करना है। दोनों का सन्तुलन रखकर जीवन जीना है। निजी कार्यों के साथ हमें पारमार्थिक कार्यों को भी करना है। ऐसा करने पर हमारा जीवन यश को प्राप्त होगा। मरना तो सबको होता है। कालान्तर में हम भी इस संसार से चले जायेंगे। तब हमारे शरीर, अर्थात् उससे बनी राख का कोई मोल नहीं होगा। होता तो भी हमारे किसी काम का न होता। हमारा आत्मा ही हमारा अपना मित्र है। इसका भोजन व सुख परमात्मा की उपासना व सान्निध्य में है। वही इसका अभीष्ट एवं लक्ष्य है। जिसने ईश्वर को प्राप्त कर लिया या जीवन में अपनी पूर्व स्थिति से आगे बढ़ा है, उस मनुष्य का जीवन धन्य है। महर्षि दयानन्द जी का सारे संसार व सभी मनुष्यों पर ऋण है। उन्होंने लुप्त वेदों को प्राप्त किया और उनका संस्कृत व हिन्दी में सरल व सुबोध भाष्य कर हमें प्रदान किया है। यह वेदभाष्य महाभारत के बाद से संसार व देशवासियों को उपलब्ध नहीं था। उन्होंने न केवल वेदों का सत्य ज्ञान हमें दिया अपितु हमें वेदपाठ और वेदार्थ सहित ईश्वर व आत्मा आदि अनादि, नित्य व अमर पदार्थों के यथार्थस्वरूप से परिचय कराकर आत्मा के कर्तव्यों के विषय में भी बताया है। आत्मा का उद्देश्य ईश्वर को जानना, साधना द्वारा उसे प्राप्त करना, दोषों व दुर्गुणों का त्याग करना, परिवार, समाज व देश का उपकार करना, अविद्या का नाश तथा विद्या की उन्नति करना, वेदों का प्रचार व प्रसार, सत्य को ग्रहण करना, असत्य का त्याग करना, सत्य को मानना व मनवाना, अपने मान प्रतिष्ठा के लिये अनुचित साधनों का प्रयोग न कर सरल व सहज रहकर दूसरों को सम्मान देना तथा उन्हें सन्मार्ग पर लाना है। ऐसे काम करके ही मनुष्य माटी के मोल से अनमोल बनता है। उसका शरीर अवश्य मरता है परन्तु वह अपने यशः शरीर से दीर्घ काल तक जीवित रहता है और उसे उपासना आदि श्रेष्ठ यज्ञीय कर्मों को करने से मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। हम जब उत्पन्न हुए तो साधारण थे परन्तु हमें शेष जीवन में साधारण को असाधारण बनाने का प्रयास करना है। सत्यार्थप्रकाश का बार बार अध्ययन इन लक्ष्यों को प्राप्त कराने में सहायक हो सकता है। हमें अपनी मृत्यु को याद कर अशुभ व पाप कर्मों का त्याग कर श्रेय मार्ग पर बढ़ना है। इससे हम निश्चय ही अनमोल बन जायेंगे।

1 COMMENT

  1. आर्य जी मेरा एक प्रश्न है। ऐतरेय उपनिषद के अनुसार पुरुष में आदि से जननबीज होता है और वही बीज जिसे अपनी पत्नी में स्थापित किया जाता है
    और गर्भ में 9 माह बाद शिशु रूप में जन्म होता है इससे यह सिद्ध होता है कि पुरुष में ही यह होता है मादा में नही

    सवाल यह है
    1 अगर शिशु नर है तो क्या उसमे भी जननबीज जन्म लेते समय मौजूद होगा अन्यथा नही
    2 जब मृत्यु होती है तो जीव शरीर छोड़ देता है और अन्य शरीर धारण करता है लेकिन किस माध्यम से वह अन्य शरीर धारण करता है
    नमस्ते
    ईश्वर उदयपुर राजस्थान
    8764269707

Leave a Reply to Ishwar nagda Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here