स्वच्छ भारत अभियान : अभियानों से नहीं सुधरेगी व्यवस्था

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 राजनेताओं के लिए मीडिया में बने रहना जरूरी है। दो दिन अखबार में चित्र न छपे, तो उनका पेट खराब हो जाता है। रक्तचाप और दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं। इसके लिए वे न जाने कैसे-कैसे पापड़ बेलते हैं। जब से नरेन्द्र मोदी ने स्वच्छता की बात कही है, तबसे झाड़ू लेकर फोटो खिंचाना नेताओं का शगल बन गया है। फिर भी ‘ढाक के पात तीन’ ही हैं। असल में अभियान या प्रचार से जागरूकता तो आती है; पर स्थायी व्यवस्था न होने पर फिर सब ठप्प हो जाता है।

कुछ उदाहरणों से ये बात स्पष्ट होगी। जयप्रकाश नारायण अपनी युवावस्था में गांधी, विनोबा और सर्वोदय से जुड़े। एक बार वे अपने कुछ साथियों को लेकर पास के गांव में गये। गांव बहुत गंदा था। जयप्रकाश जी तथा साथियों ने गांव वालों को सफाई को महत्व समझाया और वहां सफाई भी की। कुछ दिन बाद जयप्रकाश जी फिर वहां गये, तो गंदगी देखकर चौंक गये। उन्होंने पूछा, तो लोग उन्हें ही दोष देने लगे कि वे दोबारा सफाई के लिए क्यों नहीं आये ? जयप्रकाश जी ने सिर पकड़ लिया। गांव वालों ने उन्हें सफाई कर्मचारी समझ लिया था। यह घटना बताती है कि यदि लोगों का सफाई का स्वभाव और स्वप्रेरित व्यवस्था नहीं बनेगी, तो बात नहीं बनेगी। जयप्रकाश जी ने उन्हें फिर समझाया कि ‘‘सफाई करने से अधिक जरूरी सफाई रखना’’ है।

ऐसा ही एक उदाहरण पुरानी टिहरी का है, जो अब बांध में डूब चुकी है। वहां सीवर व्यवस्था न होने के कारण लोग घरों में पुराने किस्म के शौचालय प्रयोग करते थे। कई लोग सुबह निवृत्त होने के लिए गंगा तट पर आ जाते थे। इससे पड़ोसियों तथा वहां टहलने वालों को बड़ी परेशानी होती थी। अतः शहर के कुछ बुजुर्गों ने एक टीम बनायी और फिर हर दिन सुबह आठ-दस बुजुर्ग हाथ में डंडा और गले में सीटी डालकर तट पर आने लगे। जो कोई व्यक्ति तट के पास बैठने लगता, वे उसे डंडा दिखाकर दूर जाने को कहते थे। यदि वह नहीं मानता, तो वे सीटी बजाकर सब साथियों को बुला लेते थे। इतने लोगों को देखकर उसे भागना ही पड़ता था। बदतमीजी दिखाने वाले की डंडा परेड भी की जाती थी। इस व्यवस्था से कुछ ही दिन में पूरा गंगा तट साफ रहने लगा।

पिछले दिनों मैंने गंगा तट पर बसे एक छोटे नगर के बारे में पढ़ा। वहां भी घाटों पर गंदगी रहती थी। इस पर वहां के कुछ समाजसेवी लोगों ने नगर के स्कूल, बाजार, मंदिर, मस्जिद, धर्मशाला, जातीय पंचायतों आदि से सम्पर्क कर 52 टीम बनायीं। सफाई के लिए रविवार सुबह दो घंटे तय किये गये। एक टीम को वर्ष में एक बार 25 लोगों के साथ वहां आना होता है। इस प्रकार साल में 52 बार सफाई होने से तट साफ रहने लगा। लोगों में इतना उत्साह रहता है कि 25 के बदले 50 से भी अधिक लोग आ जाते हैं। महिला, पुरुष, बच्चे, बूढ़े सब सफाई करते हैं। ये दो उदाहरण बताते हैं कि अभियान से नहीं, बल्कि व्यवस्था बनाने से सफाई रहती है।

बाजारों में एक अजीब दृश्य दिखता है। लोग सुबह दुकान खोलते समय सफाई करते हैं और फिर कूड़ा सड़क पर डाल देते हैं। घरों में भी प्रायः ऐसा होता है। अब कई जगह नगरपालिकाएं सप्ताह में दो बार कूड़ागाड़ी भेजने लगी हैं; पर लोगों को आज नहीं तो कल समझना होगा कि सफाई करने की नहीं रखने की चीज है। ऐसी वस्तुएं प्रयोग करें, जो फिर काम आ सकें। घर का कूड़ा घर में ही खपाना या नष्ट करना होगा। वरना समस्या बढ़ती ही जाएगी।

मेरे एक मित्र का निजी स्कूल है। वहां शनिवार को अंतिम वेला में सब छात्र अपनी कक्षा साफ करते हैं। अध्यापक भी उनके साथ लग जाते हैं। 25-30 बच्चे घंटे भर में पूरी कक्षा चमका देते हैं। महीने के अंतिम कार्यदिवस पर सब अध्यापक और लिपिक आदि भी अपने कक्ष साफ करते हैं। प्राचार्य और प्रबंधक भी इसमें अपवाद नहीं हैं। चूंकि बच्चे और अध्यापक स्वयं सफाई करते हैं, तो वे गंदगी फैलाने से भी परहेज करते हैं। सफाई से पढ़ाई पर भी अच्छा परिणाम हुआ। यदि यह व्यवस्था हर सरकारी और निजी विद्यालय तथा कार्यालय में हो, तो चमत्कार हो सकता है। मोहल्ले और बाजारों में भी महीने में एक बार सब सामूहिक सफाई करें, तो सफाई के साथ आपसी प्रेम बढ़ेगा तथा लोग गंदगी करने से भी बचेंगे।

भारत में निजी सफाई का तो लोग काफी ध्यान रखते हैं; पर सार्वजनिक स्थानों का नहीं। लोग सोचते हैं कि इसके लिए सफाई कर्मचारी है। जब सरकार उसे पैसे दे रही है, तो फिर हम हाथ और कपड़े गंदे क्यों करें ? यहां तक कि सफाई करने वालों की एक अलग जाति ही बना दी गयी है। जिन गांधी जी की जयंती से नरेन्द्र मोदी ने ‘स्वच्छ भारत अभियान’ शुरू किया है, उनके आश्रम में लोग अपने कपड़े और बरतन ही नहीं, शौचालय भी साफ करते थे। उन दिनों फ्लश के शौचालय नहीं होते थे। इससे छुआछूत की बीमारी पनपती ही नहीं थी।

यदि हमें देश स्वच्छ रखना है, तो एक-दो दिन के अभियान या फोटोबाजी से कुछ नहीं होगा। इसके लिए तो प्रचार और प्रसिद्धि से दूर कोई व्यावहारिक व्यवस्था बनाकर उसमें शीर्षस्थ व्यक्ति को भी लगातार योगदान देना होगा। यदि 20-25 साल ऐसा हुआ, तो यह स्वभाव बन जाएगा। क्योंकि सफाई करने से नहीं रखने से आती है।

– विजय कुमार

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  1. मुझ गंवार पंजाबी ने कई दशकों से संयुक्त राष्ट्र अमरीका में रहते जब अधेड़ आयु में हिंदी भाषा को फिर से सीख ऑनलाइन हिंदी समाचारपत्र व पत्रिकाएँ पढ़ने में रूचि बनाई तो देखता हूँ कि अधिकतर लेखक सड़क पर खड़े सामान्य नागरिक की मानसिकता में सामाजिक कठिनाइयों को शब्दों के ताने-बाने में प्रस्तुत कर अपना सामाजिक दायित्व निभा लेते हैं| सड़क पर इकट्ठा हुए वर्षा के वाष्पीकृत जल के समान मन की भड़ास निकाल सभी अपनी यथोचित स्थिति में लौट जाते हैं| वर्षा-जल संचयन की बात कोई नहीं करता| विडंबना तो यह है कि हाथ पर हाथ धरे हम प्रायः परदेशी अथवा स्वदेशी शासन में संरक्षक को ढूँढ़ते हैं और इस कारण असहाय और अभागे उनके अधिपत्य में शोषित हुए जाते हैं|

    विजय कुमार जी अविरल और निर्मल गंगा किनारे फिर से सीटी बजा लोगों को गंगा-तट से दूर भगाने के अतिरिक्त औरों को इकट्ठा कर “स्वच्छ भारत” अभियान द्वारा उत्पन्न आर्थिक लाभ का सोचने की आवश्यकता नहीं समझते| सबका साथ, सबका विकास के अंतर्गत “स्वच्छ भारत” नारे को कार्यान्वित कर उसके आर्थिक व सामाजिक ढाँचे को बनाने में पंगुता नहीं पुरुषार्थ की आवश्यकता है|

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