दुर्भाग्यशाली इतिहास मगर आशावादी भविष्य

-अभिषेक तिवारी-
yojna bhawan

भारतीय इतिहास का शर्मनाक मोड़ तीसरी पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल

ऐसा जरूरी नहीं कि हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति एक अच्छा इंसान भी हो। उसके लिए जरूरी है तो वो अच्छाई जो नि:स्वार्थ भाव से अपने देश की सेवा के लिए सही निर्णय लेते हुए अपनी स्वार्थी महत्वकांशाओं को पीछे रखे। भारत की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा, भारत के योजना आयोग द्वारा विकसित, कार्यान्वित और इसकी देख-रेख में चलने वाली पंचवर्षीय योजनाओं पर आधारित है। बीते कुछ समय में भारत में कुछ ऐसे गलत फैसले लिए गए जिनका असर आज भी दिखता है। आजाद भारत एक ऐसे युवा की तरह था जिसे खुद को संभालने के साथ-साथ परिवार (देशवासियों) को भी समृद्ध बनाने की जिम्मेदारी थी। चुनौतियां पहाड़ जैसी सीना ताने सामने खड़ी थी। ऐसे में जरूरत थी तो एक ऐसी योजना की जो भारत को एक पूर्णतया समृद्ध राष्ट्र बना सके। 8 दिसम्बर 1951 को देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने एक ऐसी योजना बनाई जो देश की ऐसी जरूरतों को पूरा कर सके, और इस योजना को नाम दिया गया- पंचवर्षीय योजना। अब तक ग्यारह पंचवर्षीय योजनाएं योजनाएं पूरी हो चुकी हैं, जिसमें ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल मार्च 2012 में पूरा हो गया है और बारहवीं योजना इस समय चल रही है।

अब तक की पंचवर्षीय योजनाओं की अवधि-

– पहली पंचवर्षीय योजना (1951-1956)
– दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-1961)
– तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-1966)
– चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-1974)
– पांचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-1979)
– छठी पंचवर्षीय योजना (1980-1985)
– सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-1989)
– आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-1997)
– नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002)
– दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007)
– ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012)
– बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012 से अब तक)

20 नवंबर 1962 की सुबह आजाद भारत के लिए एक काले सपने की तरह थी। इस सपने की शुरूआत काफी पहले ही हो चुकी थी, इंतजार था तो बस सही मौके का। मौका देने वाले भी अपने थे और इसका को शिकार हुए वो भी। आजाद भारत के पहले भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू 8 दिसम्बर 1951 को भारत की संसद को पहली पाँच साल की योजना प्रस्तुत की। इसमें मुख्य रूप से बांधों और सिंचाई में निवेश सहित कृषि क्षेत्र में भारत को सक्षम करना सबसे प्रमुख और मुश्किल माना गया था। इस पंचवर्षीय योजना में विकास दर का लक्ष्य 2.1% वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) रखा गया जिसमें सरकार ने उम्मीद से बढ़ कर 3.6% की विकास दर हासिल की। दूसरी पंचवर्षीय योजना में टारगेट ग्रोथ 4.5% रखा गया। इस बार भी शानदार तरीके से 4.27% विकास की दर हासिल की गई। ये सीधा-सीधा उन देशों को जवाब था जो सोचते थे कि भारत आजादी के बाद बिखर जाएगा।

तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-1966)
तीसरी योजना कृषि और गेहूं के उत्पादन में सुधार पर जोर दिया, लेकिन 1962 के संक्षिप्त भारत-चीन युद्ध ने अर्थव्यवस्था की कमजोरियों को उजागर और रक्षा उद्योग की ओर ध्यान स्थानांतरित कर दिया। इस युद्ध के कारणों पर अगर नजर डालें तो पता चलता है कि तीसरी पंचवर्षीय योजना के समय तक भारतीय संसद में कुछ ऐसे लोग आ चुके थे जिनका जनता के हितों कुछ खास लेना-देना नहीं था। इनमें प्रमुखता से जो नाम उभरकर सामने आता है वो है तत्कालीन रक्षा मंत्री वीके कृष्णन मेनन।

3 मई 1896 को जन्मे मेनन ने लंदन से मनोविज्ञान में एमए और राजनीतिशास्त्र से एमएससी तक की शिक्षा भी लंदन स्कूल आॅफ इकोनॉमिक्स से पूरी की। भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के करीबी मित्र मेनन ने भले ही विदेशों में रहकर मनोविज्ञान, राजनीतिशास्त्र और कानून का गहन अध्ययन किया हो लेकिन संकट के समय उनके लिए गए कमजोर फैसलों से फैली तनाव की जड़ें आज भी ‘बोडोलैंड’ जैसे तनावपूर्ण मुद्दों के रूप में सामने आती हैं। 1956 में नॉर्थ बॉम्बे की लोकसभा सीेट जीतने के बाद भारत के रक्षामंत्री का दायित्व इन्हें दिया गया। लेकिन इन्होंने अपने दायित्वों का निर्वहन किस प्रकार से किया इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1961 में लोक सभा में आयोजित सभा में मेनन ने एक प्रस्ताव रखा। इसके अनुसार ‘1948 में एक संधि के अनुसार पाकिस्तान भारत पर हमला नहीं करेगा और चीन तो अपना मित्र है, इसके अलावा एशिया और बाकी पूरी दुनिया में भारत का कोई दुश्मन तो है नहीं। फिर हमें सेना की क्या जरूरत? हमें सेना हटा देनी चाहिए।’ ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के अतिआत्मविश्वास ने उस समय कई गलत फैसले लेने पर मजबूर किया, जिसके चलते मेनन ने कहा कि हमें सैन्य खर्चे कम करने चाहिए। इस पर सवाल उठा कि अगर दुर्भाग्यवश कभी कोई जरूरत आ गई तो हम क्या करेंगे? जवाब आया कि उसके लिए हमारी पुलिस ही काफी है। ऐसा बेतुका जवाब के मेनन जैसा बुद्धिजीवी ही दे सकता था। ये भारत का दुर्भाग्य ही था कि संसद में खड़ा भारत का रक्षामंत्री ऐसी बातें कर रहा था। मेनन थे तो रक्षामंत्री लेकिन काम विदेशमंत्री वाले करते थे। कभी अमेरिका, कभी यूरोप तो कभी कहीं और घूमते रहते थे। भारत में तो उनका मन ही नहीं लगता था। दूसरे देशों में जाकर कूटनीतिक बातें करना ही उन्हें पसंद था। मतलब, जो काम उन्हें दिया गया था वही नहीं करना था। मेनन को टाइम पत्रिका के 1962 के कवर पर एक सपेरे के रूप में दर्शाया गया था। एक बार कैबिनेट कमेटी की मीटिंग में उन्होंने एक अजीब प्रस्ताव रख दिया कि ‘देखो, सेना की जरूरत तो है नहीं फिर सेना के ऊपर खर्च क्यों करें। इसका बजट कम कर दिया जाए।’ तो इस तरह भारत की सेना के ऊपर खर्च होने वाले बजट को कम कर दिया गया। कुछ ऐसी विचित्र हालत हो गई थी भारत की कि जिन स्थानों पर सेना के आयुध निर्माण के लिए कारखानों थे वहां उन्हें बंद करा कर उनकी जगह चाय-कॉफी के प्याले बनाने का धंधा शुरू करवा दिया गया। ऐसी मानसिकता के व्यक्ति थे वीके कृष्णन मेनन। इसिलिए मैने शुरू में कहा कि वो बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण समय था, जब चीन ने भारत पर हमला किया। 1959 में दलाई लामा को भारत में शरण देने से खफा चीन पहले से ही किसी मौके की तलाश में था। ऐसे में भारत के रक्षामंत्री की ओर इस तरह के बयानों से चीन को लगा कि भारत के रक्षा की कमान इस समय एक कमजोर रक्षा मंत्री के हाथों में है। साथ ही एक और बात से इस मुद्दे को बल मिला और वो है कि चीन को लगता था कि मेनन पंडित जवाहर लाल नेहरू के आदमी हैं और उनकी भी यही राय है देश की सुरक्षा को लेकर। तभी तो उन्होंने उन्हे रक्षा मंत्री बनाया है। जबकि सच्चाई तो यह थी कि मेनन पंडित जी के करीबी मित्र थे जिसकी वजह से उन्हे रक्षा मंत्री बनाया गया था, अन्यथा उनकी छवि का जनता में बहुत बड़ा प्रभाव हो, ऐसा कुछ नहीं था। ऐसे में चीन को लगा ये अच्छा मौका है, भारत पर हमला करने का क्योंकि भारत में सीमा से सेना वापस बुलाई जा रही है, उनके रक्षा का बजट भी कम कर दिया जा रहा है। इसलिए भारत का एक खास इलाका जो दुर्भाग्य से अब हमारे पास नहीं है- अक्साईचिन। जिस पर काफी दिनों से नजर गड़ाए हुआ चीन इस मौके को जाने नहीं देना चाहता था। तो ऐसे में चीन ने भारत पर भयंकर हमला कर दिया। चीन के हमले के पहले हमारे देश की परिस्थितियां क्या थी ये तो आप जान ही चुके हैं- आर्मी को कई जगहों से वापस बुला लिया गया था, आर्मी का बजट कम कर दिया गया था, आर्मी की सप्लाई लाइन कमजोर हो चुकी थी। चीन ने हमला किया नॉर्थ-ईस्ट से। आज जिसे हम अरूणाचल प्रदेश कहते हैं पचास साल पहले वो नेफा प्रदेश के नाम से जाना जाता था। उस इलाके में चीन ने पूरी ताकत से हमला किया और चूंकि वहां बॉर्डर पर हमारे सैनिक नहीं थे, सीमाएं करीब-करीब खुली पड़ी थी, ऐसे में चीनी सेना दनदनाते हुए भारत में घुस आई। और जब भारतीय सैनिकों की तरफ से चीनी सैनिकों का कोई प्रतिरोध नहीं हुआ तो उन्होने सबसे खराब काम किया कि हजारों की संख्या में नौजवानों काट डाला गया। हजारों महिलाओं-बेटियों के साथ बलात्कार किया गया और साथ ही देश का 72 हजार वर्गमील का हिस्सा कब्जा लिया गया। ऐसे में एक सवाल उठता ये भी उठता है कि भारतीय सेना को वायुसेना का प्रयोग करने का आदेश क्यों नहीं दिया गया जबकि उस समय हमारी वायुसेना चीन से ज्यादा उन्नत थी।

अगर आप कभी नॉर्थ-ईस्ट के इलाके में जाएं तो आपको पता चलेगा कि वहां के लोगों का दैनिक जीवन खुद ही एक संघर्ष की तरह होता है, ऐसे में कोई हमला करके हजारों लोगों को काट डाले, उनके अपनों के साथ दुराचार करे तो उनकी मन में उबल रहे लावे को आप महसूस स्वयं कर सकते हैं। क्योंकि हमारी आर्मी वहां से हट चुकी थी तो वहां के नौजवानों के मन में एक तरह की घृणा, एक तरह का विद्रोह पनपने लगा था, भारत की सरकार के विरूद्ध। किसी भी देश के लिए ये एक सबसे दुर्भाग्य की बात होती है कि उस देश की जनता का सरकार पर से भरोसा उठ जाए। यही घृणा और विद्रोह अरूणाचल प्रदेश के लोगों में आज भी विद्यमान है। अगर आप वहां जाए तो वो एक मौलिक सवाल पूछते हैं जिसका जवाब शायद किसी के पास नहीं होगा कि आपकी भारतीय सेना उस वक्त कहां थी जब चीन ने हमला कर सबकुछ तहस-नहस कर दिया था। जब 1962 के हमले के दौरान भारतीय सेना ने हमारा साथ नहीं दिया तो तुम कैसे कहते हो हम भारत में रहें। इस तरह नेफा के इलाके में अलगाव की भावना इतनी जबरदस्त पैदा हुई है कि वो अब कहते हैं कि हम चाहिए अपना अलग- बोडोलैंड। ये सब 1962 के चीनी हमले का दुष्परिणाम है। चीन ने जिस हिस्से को कब्जाया था उसी 72 हजार वर्ग मील के अंतर्गत हमारा के बहुत पवित्र तीर्थ स्थान आता है कैलाश मानसरोवर। अब अगर हम में से कोई भी भारतीय कैलाश मानसरोवर जाना चाहें तो जा नहीं सकते। वहां जाने से पहले हमें चीन से आज्ञा लेनी होती है। जरा सोचिए, अपने ही देश के तीर्थ स्थान में जाने के लिए हमें एक विदेशी सरकार से वीजा के रूप में अनुमति लेनी पड़ती है, इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है।

कोई अन्य चारा न देखते हुए युद्ध की समाप्ति के लिए पंडित जी ने एक निजी पत्र अमरीका के राष्ट्रपति को लिखा। जिससे अमरीका को भी भारत पर कूटनीतिक दबाव बनाने का मौका मिल गया। अमरीका ने किया कुछ नहीं बस युद्ध समाप्ति का दिखावा किया, क्योंकि चीन ने इस शर्त पर युद्ध खत्म किया कि जो 72 हजार वर्ग मील हमने कब्जाया है वो हम वापस नहीं देंगे। तो ऐसे समझौता का क्या मतलब। मदद तो तब होती जब चीन वो जमीन वापस लौटाता। इस मामले में अमरीका ने सिर्फ करने का दिखावा किया। जब 1962 में पाकिस्तान ने ये सब देखा तब उसे भी हिम्मत आई 1965 में हमला करने की। साथ ही एक और भी बड़ा कारण था जिससे पाकिस्तान की हिम्मत बढ़ी और वो घटना इस प्रकार है कि 1962 के युद्ध समाप्ति के बाद लोकसभा में एक विशेष बैठक बुलाई गई जिसमें देश के सभी सांसद- मंत्री अपनी- अपनी बात रखने के लिए शामिल हुए। वहां पर आए सभी लोगों की बातों में एक सवाल मुख्य रूप से सामने आया कि भारत सरकार 72 हजार वर्ग मील जमीन कब वापस लाने वाली है। सभी के इस एक ही प्रश्न से पंडित नेहरू परेशान हो गए और एक अजीब सा तर्क दिया कि ‘जिस जमीन की बात की जा रही है वो तो एकदम बेकार जमीन थी, बंजर थी, ऊसर थी, उस पर तो घास का एक तिनका भी नहीं उगता था। चली गई तो जाने दो उसके लिए क्या रोना।’ वहां मौजूद में से किसी को भी ऐसे बेतुके जवाब की अपेक्षा नहीं थी। इस बात से पाकिस्तान को भी बल मिला जिससे प्रेरित होकर उसने भी 1965 में हमला किया।

इन हमलों का असर देश पर कुछ यूं हुआ कि जो देश पिछले दस सालों से अपने निर्धारित लक्ष्य से बढ़-चढ़कर उन्नति कर रहा था, युद्ध के बाद उसकी विकास गति ठप्प हो गई। तीसरी पंचवर्षीय योजना में निर्धारित विकास दर का लक्ष्य 5.6 प्रातिशत था और हासिल हुआ मात्र 2.84 प्रतिशत। देश में भुखमरी के हालात हो चुके थे। इसके बाद चौथी पंचवर्षीय योजना में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद विकास दर 5.7 प्रतिशत रखी गई लेकिन जो हालात देश में हो चुके थे उससे ये लक्ष्य प्राप्त करना संभव नहीं हो पाया और मात्र 3.3 प्रतिशत ही हासिल कर पाया। बात सिर्फ इतनी सी है कि कुशल नेतृत्व ही देश को आगे बढ़ाता है न कि किसी भी प्रकार के अहंकार में डूबे हुए किसी नामी गिरामी राजनेता के चोचले भाषणों से। भले वो कितना भी पढ़ा लिखा क्यों न हो। अगर उस समय हमारे प्रतिनिधि अपनी योग्यता का परिचय देते तो संभवत: भारत भी आज एक विकसित राष्ट्र होता। तब उसे किसी पंचवर्षीय योजनाओं की जरूरत नहीं पड़ती। हाल ही हुए नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शिक्षित होने के साथ ही सटीक फैसले लेने वाले प्रतीत होते हैं। इस बार किसी कठपुतली के बजाय एक दमदार प्रधानमंत्री की दरकार देश की जनता को थी जो शायद पूरी हुई है। अब आने वाले दिन बताएंगे कि हमने फिर से कोई गलती की है या फिर वाकई अच्छे दिन आ गए हैं।

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