समग्र विकास का दावा छलावा नहीं तो और क्या है ?

-आलोक कुमार-  nitish

सामाजिक समीकरणों से सत्ता को साधने की कोशिश कोई स्थायी नतीजे नहीं दे सकती, बल्कि एक ऐसी राजनीतिक दिशा का निर्माण करती है जिसमें जनता को “सताया” ज्यादा जाता  है और जनता की “सेवा” कम की जाती है। आज यही हो रहा है  बिहार में। आजकल बिहार में एक और महत्त्वपूर्ण ‘मिशन’ जारी है जिसमें सामाजिक यथास्थितिवाद को उजागर  करने वाली  किसी भी सोच को बड़े करीने से किनारे लगाया जा रहा है।

मुझे अच्छी तरह याद है कि आज से लगभग साढ़े तीन साल पहले राजधानी पटना में  नीतीश जी के ही सुशासनी शासन के सौजन्य से ‘बिहार की ब्रांडिंग में मीडिया की भूमिका’ विषय पर गोष्ठी हुई थी। इसका जिक्र यहां पर इसलिए जरूरी है कि क्या मीडिया का काम किसी राज्य की ‘ब्रांडिंग’ करना है, या फिर उसकी प्राथमिकताओं में ‘जनता’ की जगह ‘राज्य’ ऊपर आ गया है। सच तो यह है कि बिहार में नीतीश सरकार के सत्ता संभालने और ‘तीन महीने में सब कुछ ठीक कर देने’ के वायदे  के कुछ ही समय बाद से मीडिया को सब कुछ ‘अच्छा ही अच्छा ’ दिखाई देने लगा था। ‘अपराधियों के आतंक से मुक्त बिहार’ के प्रचार में मशगूल मीडिया के लिए खुद बिहार सरकार की ओर से विधानसभा में पेश आंकड़े अगर कोई मायने नहीं रखते तो इसके पीछे के कारण को समझना  बहुत मुश्किल काम नहीं है। हालिया सोहेल हिंगोरा अपहरण-काण्ड का उदाहरण इस तरह के प्रचार की सच्चाई का अंदाजा लगाने के लिए काफी है कि ‘बिहार में आज अपराधी घबराता है कोई हरकत करने से।’ जहां तक ‘बड़े अपराधियों’ को काबू में करने का सवाल है, मामला सिर्फ ‘अपने’ और ‘दूसरों’ के पक्ष का है।

इसके उलट यह जरूर हुआ है कि पिछले कुछ  सालों में बिहार में अपनी मांगों को लेकर आंदोलन करने वाले किसी भी वर्ग या समूह की शामत ही आ गयी है। विरोध प्रदर्शनों को लाठियों, पानी के फव्वारों या गोली के सहारे कुचल देना नीतीश  सरकार की खासियत बन चुकी है। नीतीश की  पुलिस शिक्षकों से लेकर ‘आशा’ की महिला कार्यकर्ताओं तक, यहां तक की कॉलेज की छात्राओं पर भी पूरी क्षमता से लाठियां  बरसाती हैं। लेकिन यह सुशासनी लाठी ‘विकास’ की नयी ऊंचाइयों की ओर अग्रसर भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं चलती। तमाम दावों के उलट व्यवहार में भ्रष्टाचार की कितनी नयी परतें तैयार हुई हैं बिहार में। इस सच का अंदाजा पंचायत से लेकर प्रखंड और जिलास्तरीय सरकारी कार्यालयों और पुलिस थानों की गतिविधियों को देख कर ही लगाया जा सकता है। स्कूलों से लेकर आंगनबाड़ी केंद्रों तक का जिलाधिकारी या वरिष्ठ अधिकारियों के औचक निरीक्षण का मतलब कितना ड्यूटी सुनिश्चित करना है और कितना कमाई करना, इसे नजदीक से देखे बिना समझना मुमकिन नहीं  है। मनरेगा के घोटालों से जुड़ी सीएजी की रिपोर्ट का जिक्र मात्र ही काफी है, इसको सत्यापित करने के लिए।

“सड़कों का जाल बिछा दिया गया है बिहार में” इसका जबर्दस्त प्रचार हुआ लेकिन इससे जुड़ा एक और सच है कि ‘विकास दिखाई दे’ इसके लिए भी सड़कों का होना जरूरी होता है। यह आप सबों को अच्छी तरह  से मालूम है कि सड़क निर्माण उन कामों में शायद अव्वल है, जिसमें सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार होता है। तो कुल बजट का तीस फीसदी सड़कों को समर्पित किए जाने का मतलब समझना कोई मुश्किल काम नहीं है। इस बहुप्रचारित ‘विकास’  की सच्चाई इन आंकड़ों से ही साफ़ हो जाती है कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रति लाख आबादी पर 257 किलोमीटर सड़क है, जबकि बिहार में प्रति लाख आबादी पर मात्र 90 किलोमीटर सड़क है।” फिर भी चोंचला ये कि बिहार में सडकों का जाल बिछा दिया गया है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना में जहां दूसरे राज्यों में 60 फीसदी काम हुआ है, वहीं बिहार की उपलब्धि मात्र 35 फीसदी है। बनायी गई सड़कों के बारे में खुद सरकार ने सदन में स्वीकार किया है कि राज्य में बनाई गयी सड़कों की गुणवत्ता काफी घटिया स्तर की है। ज्यादातर सड़कों पर कोलतार की परत चढ़ाकर देखने में सुहाने लायक बना दिया जाता है जिसकी उम्र दो से चार महीने से ज्यादा की नहीं होती। हर बार बरसात गुजरने के बाद सड़कों की दशा देखी जा सकती है।

बिहार में 6.5 फीसदी स्कूलों में कोई शिक्षक नहीं है, 20 फीसदी में पेयजल की व्यवस्था नहीं है, 56 फीसदी में शौचालय नहीं हैं और 88 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय नहीं हैं। 63 फीसदी छात्र-छात्राएं ही प्राथमिक स्कूल से माध्यमिक विद्यालय में पहुंचते हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत 84 फीसदी है। बिहार की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के पास ढांचागत संसाधनों की बहुत कमी है। संसाधनों का अनुमान लगाने का एक आम तरीका है कि एक सरकारी अस्पताल कितनी आबादी को स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करता है। इसका राष्ट्रीय औसत प्रति अस्पताल 1.45 लाख व्यक्ति है, उत्तर प्रदेश का औसत 1.98 लाख व्यक्ति, जबकि बिहार का औसत 8.7 लाख व्यक्ति है। प्रति व्यक्ति सार्वजनिक चिकित्सा व्यय की दृष्टि से भी बिहार देश के राज्यों की सूची में काफी नीचे है। फिर भी समग्र विकास का दावा छलावा नहीं तो और क्या है ?

राजनीति की अपनी मजबूरियां हो सकती हैं, लेकिन सवाल उठता है कि इसकी कीमत क्या हो ? प्रचार की सड़क पर सरपट दौड़ते नीतीश जी  ने सुशासन बाबू का तमगा तो खुद को पहना  दिया है, लेकिन छद्म विकास के दावों के सहारे राजनीति की जमीन सींचती  उनकी सरकार ने समाज को बदल सकने वाली हर  सोच को हर स्तर पर कुंठित किया है। हरेक जागरूक व्यक्ति ये भली-भांति जानता और समझता है  कि समाज को बदलने के लिए सड़कों के मुकाबले सोच की जरूरत ज्यादा होती है।

1 COMMENT

  1. नितीश जी का मीडिया मैनेजमेंट ठीक-ठाक है. भाजपा-जदयू की संयुक्त सरकार क समय कुछ अच्छे काम हुए थे. लेकिन नितीश अकेले उन उपलब्धियों को बचा कर नहीं रख पा रहे है. आज बिहार नितीश से मुक्ति चाहता है.

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