महत्वपूर्ण लेख समाज

प्रवासी भारतीयों में घटती शांत प्रक्रिया।

youthडॉ. मधुसूदन

***अमरिकन भारतीय समाज की एक शांत प्रक्रिया।
***स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, और स्वैराचार का फल।
***मिलियन डालर पाए, पर संतान खोए।
***व्यक्ति स्वातंत्र्य व्यक्ति को अलग कर देता  है।
***इत्यादि आगे पढें।

(१) अमरिका निवासी  भारतीय समाज में, एक शांत प्रक्रिया उभरते देख रहा हूँ। यह शान्त, मौन और धीमी प्रक्रिया है। और दिन प्रति दिन शनैः शनैः बढते बढते उग्र रूप धारण कर रही है। हमारे प्रवासी भारतीय समाज का ध्यान इस ओर खींचना चाहता हूँ। पश्चिम के अनुकरण से, भारत में भी, ऐसी प्रक्रिया छोटे रूप में, देखी जाती है; तो गौण उद्देश्य भी है, कि, उन्हें भी इस प्रक्रिया के, घटिया परिणामों से, चेताना चाहता हूँ। साथ साथ, राष्ट्र हितैषियों का ध्यान इस ओर खींचना चाहता हूँ।
इस प्रक्रिया के, मेरी दृष्टि में, काफी नकारात्मक परिणाम है। जो अगली पीढियों को अधिकाधिक मात्रा में, भुगतने पडेंगे।  जो लाभ पहली पीढी को अनायास, दृढ संस्कारों के कारण, जाने-अनजाने  हुआ, वैसा लाभ अगली पीढी को नहीं होगा। और उसके पश्चात की पीढी और भी क्षीण होती चली जाएगी।

(२)  पास जो होता है, उसकी उपेक्षा होती है। जो नहीं होता उसका मूल्य ऊंचा आँका जाता है। इसी भ्रांन्ति के कारण काफी भारतीय धन के पीछे दिन-रात लगे रहे। संतानों के संस्कार की ओर ध्यान देने का समय नहीं निकाल पाए। फलस्वरूप  उनके जीवन में, इस उपेक्षा का फल भोगने की बारी आयी है।

एक विवेकी मित्र से सुना, कि मिलियन डालर पाए, और, अपनी संतान खोए, तो क्या पाए? बात सच है। पर ऐसी अभिव्यक्ति भी सामान्यतः कोई करता नहीं। सारे मुठ्ठी बाँधे मौन है। दूसरा कुछ नहीं, यह अपनी गलती स्वीकार न करने की विवशता है;  लाज बचाने का प्रयास है।

(३) सारांश में, यहाँ वैयक्तिक स्वातंत्र्य की अति  व्यक्ति को अकेला कर देती है। जब आप स्वतंत्रता के कारण अलग हो जाते हैं, तो अधिक स्वतंत्र हो जाते हैं।
ऐसी अलगता आप को अधिक स्वातंत्र्य देती है। यह कुचक्र बढते बढते आप की स्वतंत्रता को स्वच्छंदता में परिवर्तित कर सकता है। और इसी के आगे बढते बढते स्वच्छंदता  स्वैराचार में परिणत हो  सकती है।

(४) कुछ वर्ष पहले, एक विवाह में जाना हुआ, जहाँ निमंत्रक परिवार नें अतिथियों का निःशुल्क प्रबंध एक तीन सितारा होटल में किया था।एक आमंत्रित भारतीय जो आए, तो, उन्हें होटल का प्रबंध घटिया लगा।कुछ क्रोधित ही होकर, वें, स्वयं अपनी श्रीमंताई को शोभा देनेवाली होटल में जाकर ठहरे। जब, दूसरे दिन सबेरे वे सज धज  कर विवाह में सम्मिलित हुए, तो सभी के सामने समस्या खडी हुयी। अन्य अभ्यागत जन उनसे वार्तालाप करने से सकुचाए।और वे भी अकेले रिक्त दिशा में देखते, दोनों हाथों को सामने, बाँधे बैठे  रहे।

(५) ऐसा वैयक्तिक स्वातंत्र्य, हमें समाज से अलग करता है। अपना सम्मान बचाने हम दोष स्वीकार करने से डरते हैं। अन्ततोगत्वा यह हमें ग्रस ही लेगा, और समाज को विगठित कर देगा। इस प्रक्रिया का, प्रारंभ वैयक्तिक स्वातंत्र्य के लुभावने नाम से होता है।ऐसा वैयक्तिक स्वातंत्र्य कुछ मात्रा में आवश्यक अवश्य है। कुछ, निजता भी आवश्यक है।
दूसरी ओर, शायद ऐसे प्रवासी भारतीय हैं,  जिनकी  वैयक्तिकता को दबा कुचला  गया था;तो उसकी  प्रतिक्रिया के चलते, वें अपनी संतान को स्वतंत्र  बर्ताव की छूट देते हैं।
इस पर चढता है, अमरिका का व्यक्ति स्वातंत्र्य और मुक्त  वातावरण जो, इस पर अतिशयोक्ति की सीमा तक छूट देता है।
इसके कारण, भारतीय परिवारों में भी कुछ स्वतंत्र,  स्वच्छंद, और स्वैराचारी संताने दिखाई देने लगी है। कानून से १८ की आयु तक ही माता-पिता का दायित्व होता है। सामान्यतः १८ से बडी अमरीकन सन्ताने माँ-बाप से अलग रहती है। जब मित्रों की यह अवस्था देखता है, तो, भारतीय युवा भी प्रभावित होता है।

(६) स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, और स्वैराचार की सीमा रेखाएं तो स्पष्ट होती नहीं है।
स्वतंत्रता अभिव्यक्ति है, बौद्धिक एवं वैचारिक परिपक्वता की।  स्वच्छंदता मन की लहर से संचालित होती है। पर स्वैराचार स्वयं को क्षति पहुंचाने की सीमा तक जा सकता है। जब व्यक्ति बुद्धि हीन, इंद्रियजन्य सुखों से, और विकारों से प्रेरित होती है, तो उसे स्वच्छंदता कहा जा सकता है,  स्वैराचार इसी का वह रूप है, जिसमें व्यक्ति स्वयं के स्वास्थ्य को हानि कर लेता  है।

(७) भारत की संस्कृति इसी लिए सारे संसार में अतुल्य है।  भारत नें आध्यात्मिक स्वातंत्र्य सभी को दिया है। इस के कारण भारत आध्यात्मिक जनतंत्र है।जिस किसी दर्शन से मनुष्य को ऊपर उठाया जा सकता है, सभी स्वीकार्य है। ऊर्ध्वगामी मापदण्ड है हमारा। जिसपर विस्तार से कभी चर्चा की जा सकती है। इस मापदण्ड के सूचकांक भी हैं। पर, व्यावहारिक स्तरपर हम संयम से, परम्परा को मानते है।
हमारी व्यावहारिकता सुसंवादी है; आध्यात्मिकता में हम स्वतंत्र है।
पश्चिमकी  आध्यात्मिकता रट्टामारु एकमार्गी है। पर व्यवहार में अतिशय स्वातंत्र्य देती है।

(८) मनुष्य के संस्कार के घटक होते हैं दैहिक या ऐंद्रीय, मानसिक-बौद्धिक, और आध्यात्मिक।
यदि व्यक्ति ऊर्ध्वगामिता अपने जीवन में व्यक्त करता है, तो उसकी गति, शारीरिक से मानसिक की ओर, मानसिक से बौद्धिक की ओर, और बौद्धिक से आध्यात्मिक की ओर निरन्तर होते रहती है। यह व्यक्ति की आंतरिक प्रक्रिया है। इसमें व्यक्ति को हमने स्वतंत्रता दी है। इसी कारण हमारे आध्यात्मिक विकास की अनेक विधाएं, अनेक मार्ग, अनेक पंथ इत्यादि इत्यादि अति विकसित अवस्था में पहुंच चुके है।

पर जहाँ वह समाज में रहता है; वहाँ सुचारु रूपसे बिना संघर्ष रहे, इस लिए हमारा व्यावहारिक आदर्श सुसंवादी है। वहाँपर हमने परम्परा से अनेक रूढियाँ उपजायी है।
हर व्यक्ति को सुसंवादी होकर अपने आसपास के समाज के साथ रहना है।
एक ओर, व्यक्तिगत विकास की सूचक दिशा है==>शारीरिक से==>मानसिक से==> बौद्धिक से==आध्यात्मिक।

और जिस समाज में आप रहते हैं, उस समाज से आप मिलके संवाद बनाके रहें। संघर्ष उकसाए बिना रहे।

दीनदयाल जी इस प्रक्रिया के लिए, व्यष्टि,से==> समष्टि से,===> सृष्टि से ===> परमेष्टि इत्यादि संज्ञाओं का
उपयोग करते हैं।
अर्थात व्यक्ति परिवार से संवाद बनाकर रहे।
परिवार समाज के साथ संवाद बनाकर रहे।
समाज देश(राष्ट्र) के साथ संवाद बनाकर रहे।
राष्ट्र विश्वके साथ संवाद बना कर रहे।
विश्व सृष्टि (प्रकृति)के साथ संवाद बना कर रहे।
और सृष्टि परम तत्व के साथ संवाद बनाकर रहे।

कभी इस विषय पर गहराई में विश्लेषण प्रस्तुत किया जाएगा।

दीनदयाल जी को जितना पढा उतना  अधिकाधिक प्रभावित ही होता गया।

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